लाइव न्यूज़ :

शब्दों को जबान और जिंदगी से निकाल फेंकना सांस्कृतिक साजिश है

By स्वाति बक्शी | Updated: January 15, 2021 08:02 IST

भाषा का चौकीदार बनने की इस दीवानगी में डूबने से पहले जरा ये सोचिए कि शब्दों को धकेलकर बाहर फेंकने से किसका फायदा हो रहा है? 

Open in App
ठळक मुद्देये कौन सी हिंदी भाषा है जिसे मीडिया ने बोलचाल की भाषा समझ रखा है?हिंदी सीखने-समझने के सबसे आसान माध्यमों को शब्दों से डर क्यों लगता है?

इस हफ्ते एक लेख लिखते समय, एक नेता की टिप्पणी में किए गए भाषाई प्रयोग को रेखांकित करते हुए मैने ‘आवरण’ शब्द का इस्तेमाल किया. कॉपी लिख कर भेज दी लेकिन शाम तक दिमाग में घूमता रहा कि इस शब्द को लिखना चाहिए था या नहीं, कहीं बहुत अटपटा प्रयोग तो नहीं था? ये उलझन दरअसल इस बात से पैदा नहीं हुई कि प्रयोग सही था या नहीं, इसकी वजह मीडिया में हिंदी भाषा के इस्तेमाल को लेकर बनाई गई मान्यताओं से जुड़ी है जो इस कदर घर कर जाती हैं कि आसानी से जबान पर आने वाला शब्द भी जिबरिश लगने लगे.

आप चाहें ना चाहें लेकिन भाषाई प्रयोग को लेकर सामान्य बना दी गई बातों की राजनीति लंबा और गहरा असर रखती है. इतना कि आप शायद खुद अपनी सामान्य जबान को पुरातनपंथी मानने लग जाएं, वो जबान जो आपके आस पास हमेशा से बोली जाती रही है, लोक-व्यवहार का हिस्सा है. पत्रकारिता के पेशे में आने से पहले किसी प्रशिक्षण संस्थान से होकर गुजरने वाले लोगों को शायद कॉपी लिखने के शुरूआती पाठ याद हों. चाहे रेडियो हो या टीवी, लिखने के कुछ कारगर नियम-कायदे बताए जाते हैं जिनमें ‘बोलचाल की भाषा’ का इस्तेमाल करने की अहमियत समझाई जाती है.

इस बात में शक की बिल्कुल गुंजाइश नहीं है कि संचार माध्यम की भाषा, देखने-सुनने वालों की बोली-भाषा होनी चाहिए. मेरा सवाल हमेशा से यही रहा है कि आखिर ये कौन तय करेगा कि कौन सा शब्द भाषा में अब इस्तेमाल नहीं होता और इसको वीरगति को प्राप्त हो जाना चाहिए ? हम सामाजिक प्राणी है और वक्त के रुख का अंदाजा तो रहता है लेकिन करोड़ों लोगों की भाषा- हिंदी के किन शब्दों को प्रचलन से एकदम बाहर ही निकाल देना है ये चंद लोग कैसे तय करते हैं? दरअसल ये समझ अपनी टारगेट ऑडियंस के बिना किसी शोध पर आधारित अनुमानों, हमारे अपने शब्द ज्ञान और सामाजिक-सांस्कृतिक नजरिए की राजनीति से जुड़ी है.  

बोलचाल की हिंदी भाषा!

पिछले इतने सालों में हिंदी प्रसारक या प्रडयूसर के तौर पर काम करते हुए, सैकड़ों बार ऐसा हुआ कि कॉपी में शब्द लिख कर मिटा दिए. ये सोचकर कि अरे, ये तो अब लोग कहां बोलते होंगे लेकिन अब लगता है कि आखिर ये कौन सी हिंदी भाषा है जिसे मीडिया ने बोलचाल की भाषा समझ रखा है. जिसके उन शब्दों से भी लोग अंजान हैं जो बहुत आसानी से हमारे भाषाई परिवेश का हिस्सा रहे हैं और अगर नहीं रहे तो सीखने की गुंजाइश पैदा करते हैं. मेरा लहजा शिकायती लग सकता है और शायद है ही पर उसकी खासी वजह है और वो ये है कि दरअसल सरलीकरण के नाम पर इस रवैये ने ना जाने कितने खूबसूरत शब्दों को बेमौत मार दिया है. 

रेडियो की शुरूआती ट्रेनिंग में जब संगीत बजाने को लेकर चर्चा होती थी तब ये भी बताया गया था कि हम हमेशा सिर्फ वो ना सुनाएं जो लोग सुनना चाहते है, वो भी सुनाएं जो हम सुनाना चाहें और शायद लोगों को पसंद आए. ये मसला माध्यम और ऑडियंस के संबंधों का है और ‘बोलचाल की भाषा’ में निहित भदेसपन को जगह देने का मूल भाव हल्केपन को मानक बनाने की मुहिम में तब्दील हो गया मालूम पड़ता है.

ये कह पाना भी मुश्किल है कि इस मुहिम का मकसद रेडियो या टीवी को अपने सुनने या देखने वाले से एक आत्मीय संबंध बनाना या बोझिल भाषा से पीछा छुड़ाना है. ये एक ऐसा उन्माद है जिसमें कुछ दिमाग तय कर लेते हैं कि फलां शब्द हिंदी समाचारों की दुनिया का हिस्सा बन सकता है या नहीं. भाषा का चौकीदार बनने की इस दीवानगी में डूबने से पहले जरा ये सोचिए कि शब्दों को धकेलकर बाहर फेंकने से किसका फायदा हो रहा है? 

टारगेट ऑडिएंस कौन है?

अगर फिर भी दलील यही है कि ‘लेकिन हमारी टारगेट ऑडिएंस का क्या’ तो मेरा सवाल फिर वही है, कौन सी ऑडिएंस टारगेट की जा रही है ? अगर हिंदी बोलने समझने वाली जनता है तो उनको शब्दों से परहेज क्यों होगा? जब लोग विदेशी भाषाएं सीखने में हजारों रुपए खर्च करते हैं तो हिंदी सीखने-समझने के सबसे आसान माध्यमों को शब्दों से डर क्यों लगता है? संचार माध्यमों ने लोगों को नई चीजें दिखाने-बताने की जिम्मेदारी तो नहीं छोड़ी है, सांप-बिच्छू की अनोखी कहानियां ही लीजिए तो फिर अक्लमंदी से भाषाई इस्तेमाल से ये दिक्कत क्यों. 

भाषा बरतने की चीज है, जितनी बरती जाएगी उतना सामान्य जिंदगी का हिस्सा होगी. शब्द दर शब्द उसको लोगों की जबान और जिंदगी से निकाल फेंकना सांस्कृतिक साजिश है या फिर इस मानसिकता कि जड़ों में कुछ और कारण हैं, ये नतीजा मैं बिना शोध के नहीं निकालना चाहती.

टॅग्स :हिन्दीकला एवं संस्कृति
Open in App

संबंधित खबरें

विश्वलूव्र, मोनालिसा की चोरी और कला की वापसी के रूपक

भारतभाषा के नाम पर बांटने की कोशिश ठीक नहीं 

भारतHindi Diwas 2025: भारत ही नहीं, इन देशों में भी हिंदी का बोलबाला, वजह जान हैरान रह जाएंगे आप

भारतHindi Diwas 2025: साहित्यकारों की रीढ़ की हड्डी है हिंदी, अंशुमन भगत बोले-समाज के लिए आधारस्तंभ

भारतहोमर का ‘इलियड’ और बाबा बुल्के की गोसाईं गाथा 

भारत अधिक खबरें

भारतMahaparinirvan Diwas 2025: आज भी मिलिंद कॉलेज में संरक्षित है आंबेडकर की विरासत, जानें

भारतडॉ. आंबेडकर की पुण्यतिथि आज, पीएम मोदी समेत नेताओं ने दी श्रद्धांजलि

भारतIndiGo Crisis: लगातार फ्लाइट्स कैंसिल कर रहा इंडिगो, फिर कैसे बुक हो रहे टिकट, जानें

भारतIndigo Crisis: इंडिगो की उड़ानें रद्द होने के बीच रेलवे का बड़ा फैसला, यात्रियों के लिए 37 ट्रेनों में 116 कोच जोड़े गए

भारतPutin Visit India: भारत का दौरा पूरा कर रूस लौटे पुतिन, जानें दो दिवसीय दौरे में क्या कुछ रहा खास