जन स्वास्थ्य को लेकर सरकारों की अक्षम्य लापरवाही

By एनके सिंह | Published: June 30, 2019 11:01 AM2019-06-30T11:01:51+5:302019-06-30T11:01:51+5:30

केंद्र और राज्यों की सरकारों का स्वास्थ्य को लेकर सम्मिलित खर्च दुनिया में सबसे कम है. यहां तक कि जो दुनिया में सबसे गरीब देश हैं उनसे भी कम. तुर्रा ये कि बिहार देश में स्वास्थ्य पर सबसे कम खर्च करने वाला राज्य है जो राष्ट्रीय औसत का भी एक-तिहाई खर्च करता है, लेकिन पिछले 12 साल से सत्ता पर काबिज सरकार के मुखिया को ‘सुशासन बाबू’ कहा जाता है.

Governments' inefficient care of public health | जन स्वास्थ्य को लेकर सरकारों की अक्षम्य लापरवाही

जन स्वास्थ्य को लेकर सरकारों की अक्षम्य लापरवाही

Highlights2015-16 के मुकाबले 2017-18 में स्वास्थ्य सेवाओं में गिरावट बिहार में सबसे ज्यादा (6.35 प्रतिशत) रही.  मालदीव जैसे मुल्क का हमारे मुकाबले प्रति व्यक्ति खर्च अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के प्रतिशत के लिहाज से पांच गुना है.

नीति आयोग ने 23 पैमानों पर आधारित सालाना स्वास्थ्य सूचकांक हाल ही में जारी किया. हमेशा की तरह उत्तर प्रदेश और बिहार सबसे निचले पायदान पर रहे. जो बात किसी विश्लेषक ने नहीं देखी वह यह कि 2015-16 के मुकाबले 2017-18 में स्वास्थ्य सेवाओं में गिरावट बिहार में सबसे ज्यादा (6.35 प्रतिशत) रही.  

स्वास्थ्य सुविधा के अभाव में देश में लाखों बच्चे पिछले तमाम दशकों से हर साल असमय मौत की गोद में सो जाते हैं. इस साल फिर नीति आयोग ने केंद्र और राज्य की सरकारों को आईना दिखाया, लेकिन सत्ता चलाने वालों को कोई फर्क नहीं पड़ता. पिछले वर्ष संसद में भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्नी ने कुछ आंकड़े दिए थे जिनके अनुसार

केंद्र और राज्यों की सरकारों का स्वास्थ्य को लेकर सम्मिलित खर्च दुनिया में सबसे कम है. यहां तक कि जो दुनिया में सबसे गरीब देश हैं उनसे भी कम. तुर्रा ये कि बिहार देश में स्वास्थ्य पर सबसे कम खर्च करने वाला राज्य है जो राष्ट्रीय औसत का भी एक-तिहाई खर्च करता है, लेकिन पिछले 12 साल से सत्ता पर काबिज सरकार के मुखिया को ‘सुशासन बाबू’ कहा जाता है.

मालदीव जैसे मुल्क का हमारे मुकाबले प्रति व्यक्ति खर्च अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के प्रतिशत के लिहाज से पांच गुना है. भूटान, थाईलैंड और श्रीलंका का भी काफी ज्यादा है. लेकिन जब सत्ता पक्ष वोट के लिए जनता के पास जाता है तो कहता है ‘आज भारत ने इतना विकास किया है कि हम जीडीपी में दुनिया में पांचवें स्थान पर आ गए हैं’. नासमझ जनता कराहते हुए यह मान लेती है कि उसके ‘जिगर के टुकड़े’ का बीमार होना और चिकित्सा सुविधा के अभाव में मर जाना उसकी नियति है (या लीची खाने/खिलाने का दोष). वैसे 2017 में एक राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति बनाई गई और इन्हीं स्वास्थ्य मंत्नी ने लोकसभा में ऐलान किया कि इस मद में खर्च को जीडीपी का 2.50 फीसदी किया जाएगा (यान्ीे दूने से भी ज्यादा), पर ऐसे ऐलान अमल में शायद ही आते हैं. बजट आने पर पता चला कि खर्च में और कटौती हो गई. पिछले दस साल से केंद्र और राज्यों की सरकारें स्वास्थ्य पर कुल मिलाकर तीन रुपए से भी कुछ कम प्रति-व्यक्ति रोजाना खर्च करती हैं. बिहार में यह खर्च केवल 1.20 रु पया है. 
पूरे देश में जनता के स्वास्थ्य के मद में कुल खर्च (सरकारी और निजी जेब से) जितना है, लगभग उतने ही मूल्य का यह देश अनाज पैदा करता है. यानी जो काम लोगों को करना है (खेती), उससे तो अपना पेट वे भर ले रहे हैं बल्कि निर्यात करने लायक भी पैदा कर लेते हैं, लेकिन जब बीमार पड़ते हैं तो सरकार उन्हें उनकी जेब या ‘राम-भरोसे’ छोड़ दे रही है. देश में करीब छह लाख करोड़ रुपए का अनाज पैदा होता है और इतना ही स्वास्थ्य पर खर्च. इसमें सरकार मात्न एक-तिहाई ही खर्च करती है बाकी 2/3 (करीब चार लाख करोड़) उस गरीब को जायदाद बेच कर लगाना पड़ता है. यानी अगर एक गंभीर बीमारी परिवार में हो जाए तो वह किसान से खेत-मजदूर बन जाता है और उससे भी पूरा नहीं पड़ता तो दिल्ली से सटे नोएडा या चंडीगढ़ या केरल में जा कर ईंट-गारा ढोने लगता है. अब पाठक समझ गए होंगे कि क्यों इस देश में पिछले 25 सालों से हर 37 मिनट पर एक किसान आत्महत्या कर रहा है और क्यों इसी दौरान हर रोज 2052 किसान खेती छोड़ देते हैं. सरकारें आत्महत्या का कारण गृह-कलह या बीमारी बताती रही हैं और जब लगभग 180 बच्चे एक्यूट इन्सेफेलाइटिस सिंड्रोम (एईसी) से तो मरते हैं तो लीची और गरीबों की चिकित्सा-विज्ञान के प्रति नासमझी पर इल्जाम थोपा जाता है. 
 

Web Title: Governments' inefficient care of public health

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