गिरीश्वर मिश्र: मीडिया की सत्ता और स्वायत्तता
By गिरीश्वर मिश्र | Published: June 4, 2019 07:27 AM2019-06-04T07:27:30+5:302019-06-04T07:27:30+5:30
मालिक और संपादक के रिश्ते भी बदले हैं. सरकारी तंत्न की दखलंदाजी तथा प्रलोभन की वृत्ति ने भी मीडिया को प्रभावित किया है. तकनीकी प्रगति ने मीडिया को यथार्थ के बड़े ही करीब खड़ा कर दिया है और दर्शक के लिए उसे झुठलाना संभव ही नहीं होता.
जानकारी, सूचना और ज्ञान की भूख किसी न किसी रूप में हर समाज में चिरकाल से ही रही है और उसको पहुंचाने के उपाय किए जाते रहे हैं. परंतु आज जिस तरह एक निर्णायक संस्था के रूप में मीडिया छाता जा रहा है वह विलक्षण घटना है. उसकी उपस्थिति असरदार हो रही है.
मीडिया की बढ़ती पहुंच ने आज मीडिया का तर्क ही बदल डाला है. शुरुआती दौर में समाचार पत्न देश और समाज के लिए समर्पित लोगों द्वारा देशसेवा और स्वतंत्नता की प्राप्ति के लिए शुरू किए गए थे. आज पूरा दृश्य बदल चुका है. अब मीडिया बड़ी पूंजी की लागत वाले एक जटिल व्यापार का रूप ले चुका है जिसमें कई तरह के तकनीकी सहायकों और विशेषज्ञों की जरूरत पड़ती है. मीडिया की ताकत भी बढ़ चुकी है और उसकी हद में कोई भी आ सकता है .
मीडिया ने समाज के विभिन्न तबकों और आयु वर्गो की नस पकड़ कर उनकी भिन्न-भिन्न जरूरतों पर ध्यान देना शुरू किया है. साथ ही देश और समाज की गति पहचानने और उसे ‘फालो’ करने के लिए भी आम आदमी मीडिया के संपर्क में आता रहता है. सूचना क्र ांति ने देश और काल की सीमाओं को जिस तरह अकल्पनीय ढंग से ध्वस्त किया है और संचार को अबाध गति और विस्तार दिया है उसने हमारे मानसिक और व्यावहारिक धरातल पर उथल-पुथल मचा दी है. इस बदलते मीडिया-परिवेश में व्यक्ति संप्रभु हो रहा है. उसे वरण करने या चुनने का अवसर मिल रहा है.
नए दौर में मीडिया आर्थिक-राजनैतिक नियंत्नण के काम भी आ रहा है. टी.वी. अब इस अर्थ में एक जम्बो मीडिया तंत्न का रूप ले चुका है जो समाज की चेतना का भी नियमन करता है. स्पष्ट है कि मीडिया का संसार सोद्देश्य है न कि यादृच्छिक (रैंडम). समय के साथ चेतना, नियमन, साख और पूंजी मीडिया का स्वभाव, प्रक्रिया और उद्देश्य सभी में बदलाव आया है. सबके ऊपर पूंजी है और दायित्व की अवधारणा ध्यान आकृष्ट कर रही है. वैचारिक प्रतिबद्धता, निष्पक्षता जैसे आयाम पुनर्विचार की अपेक्षा कर रहे हैं.
मालिक और संपादक के रिश्ते भी बदले हैं. सरकारी तंत्न की दखलंदाजी तथा प्रलोभन की वृत्ति ने भी मीडिया को प्रभावित किया है. तकनीकी प्रगति ने मीडिया को यथार्थ के बड़े ही करीब खड़ा कर दिया है और दर्शक के लिए उसे झुठलाना संभव ही नहीं होता. ऐसे में स्वायत्त मीडिया की जबावदेही अधिक हो जाती है. जनसंख्या बहुल और विविधताओं से भरे भारत में मीडिया की संभावनाओं का कोई अंत नहीं है. जरूरत है सकारात्मक संभावनाओं को पहचानते हुए उसे देश के निर्माण में नियोजित किया जाए.