गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: प्रवेश और परीक्षा के भंवर में फंसी देश की शिक्षा

By गिरीश्वर मिश्र | Published: April 19, 2022 02:52 PM2022-04-19T14:52:43+5:302022-04-19T14:55:01+5:30

दिल्ली जैसे प्रतिष्ठित केंद्रीय विश्वविद्यालय और ऐसे ही अनेक संस्थानों में अध्यापकों के हजारों पद लंबे समय से खाली पड़े हैं और अतिथि’ (एडहॉक/ गेस्ट) अध्यापकों के जरिए जैसे-तैसे काम निपटाया जा रहा है.

Girishwar Misra blog: country's education trapped in the vortex of admission and examination | गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: प्रवेश और परीक्षा के भंवर में फंसी देश की शिक्षा

प्रवेश और परीक्षा के भंवर में फंसी देश की शिक्षा

भारत में शिक्षा का आयोजन किस प्रकार हो? यह समाज और सरकार दोनों के लिए केंद्रीय सरोकार है. शिक्षा से जुड़े बहुत से सवाल मसलन - शिक्षा किसलिए दी जाए? शिक्षा कैसे दी जाए? शिक्षा का भारतीय संस्कृति और वैश्विक क्षितिज पर उभरते ज्ञान-परिदृश्य से क्या संबंध हो? शिक्षा की विषयवस्तु क्या और कितनी हो? उठाए जाते रहे हैं और सरकारी नीति के मुताबिक समय-समय पर टुकड़े-टुकड़े कुछ-कुछ किया जाता रहा. 

मुख्य परिवर्तन की बात करें तो स्कूली अध्यापकों के लिए प्रशिक्षण (बीएड) बड़े पैमाने पर शुरू हुआ, एनसीआरटी ने राष्ट्रीय स्तर पर मानक पाठ्यक्रम की रूपरेखा और पाठ्य पुस्तकें तैयार कीं, छात्रों के लिए शिक्षाकाल की अवधि में इजाफा हुआ, सेमेस्टर प्रणाली चली, बहु विकल्प वाले वस्तुनिष्ठ (आब्जेक्टिव) प्रश्न का परीक्षा में उपयोग होने लगा, अध्यापकों के लिए पुनश्चर्या कार्यक्रम शुरू हुए और अध्यापकों की प्रोन्नति के लिए अकादमिक निष्पादन सूचक (एपीआई) लागू किए जाने जैसे ‘सुधारों’ का जिक्र किया जा सकता है. इनसे कई तरह के बदलाव आए हैं जिनके मिश्रित परिणाम हुए हैं.

इस बीच शिक्षा का परिप्रेक्ष्य भी बदला है और शिक्षा व्यवस्था में कई तरह की विविधताएं भी आई हैं.  शिक्षा के परिदृश्य का यह पहलू इस बात से भी जुड़ा हुआ है कि सरकार की ओर से न पर्याप्त निवेश हो सका और न व्यवस्था ही कारगर हो सकी. इसका एक ही उदाहरण काफी होगा. दिल्ली जैसे प्रतिष्ठित केंद्रीय विश्वविद्यालय और ऐसे ही अनेक संस्थानों में अध्यापकों के हजारों पद वर्षों से खाली पड़े हैं और ‘तदर्थ’/ ‘अतिथि’ (एडहॉक/ गेस्ट) अध्यापकों के जरिए जैसे-तैसे काम निपटाया जा रहा है. ऐसे ही एनसीईआरटी, जो स्कूली शिक्षा का प्रमुख राष्ट्रीय केंद्र और शिक्षा नीति को लागू करने वाली संस्था है, पिछले कई वर्षों से आधे से भी कम कर्मियों के सहारे घिसट रहा है.  

इन सब पर समग्रता में विचार करते हुए भारत सरकार ने 2014 में देश के लिए नई शिक्षानीति बनाने का बीड़ा उठाया और लगभग छह वर्ष में नीति का एक महत्वाकांक्षी  मसौदा 2020 में प्रस्तुत किया और उसे ले कर पिछले एक वर्ष से पूरे देश में चर्चाओं का दौर चला है. उस पर अमल करते हुए कई कदम उठाए गए हैं जिनमें पाठ्यक्रम की रूपरेखा (एनसीएफ) का निर्माण प्रमुख है.  

कहा जा रहा है कि नई शिक्षा नीति के कार्यान्वयन के अंतर्गत विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने सभी विश्वविद्यालयों के लिए एक प्रवेश-परीक्षा लेने का प्रस्ताव रखा है.  

यह नया स्पीड ब्रेकर क्या गुल खिलाएगा और उसके क्या परिणाम हो सकते हैं इस पर गौर करना जरूरी है. साथ ही विविधता में एकता लाने का यह प्रयास समाज के बौद्धिक स्तर के संवर्धन में कितना लाभकारी होगा यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए. सबका अनुभव है कि उच्च शिक्षा के अवसरों की उपलब्धता, खास तौर पर अच्छे संस्थानों और शिक्षा केंद्रों पर, बेहद अपर्याप्त रही है और उसमें कोई ज्यादा वृद्धि नहीं हुई है. 

इसके चलते प्रतिस्पर्धा में सफलता पाने के लिए बारहवीं की परीक्षा के प्राप्तांकों को ही आधार बनाया गया. मेडिकल, इंजीनियरिंग और प्रबंधन जैसी व्यावसायिक शिक्षा में प्रवेश के लिए परीक्षा द्वारा प्रवेश की व्यवस्था पहले से ही लागू है. अब उसे सामान्य शिक्षा के क्षेत्र में भी लागू किया जा रहा है. औपचारिक शिक्षा वाली परीक्षा में सामान्य अंकों को उपार्जित करने पर अतिरिक्त जोर पड़ा और उसमें सही गलत किसी भी तरह से बढ़त पाने की इच्छा का परिणाम कई समस्याओं को पैदा करता रहा है. 

मसलन पिछले सत्र में एक प्रदेश के बोर्ड में अप्रत्याशित रूप से शत प्रतिशत अंक पाने वाले बड़ी संख्या में छात्र दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रवेश को प्रस्तुत हुए और छा गए. शेष छात्र मुंह देखते रहे. प्रस्तावित प्रवेश परीक्षा के साथ पहले वाली औपचारिक परीक्षा भी बनी रहेगी  पर  उससे अधिक महत्व की होगी क्योंकि प्रवेश अंतत: नई परीक्षा के परिणाम द्वारा ही निर्धारित होगा. अर्थात् अब छात्रों और अभिभावकों पर एक नहीं दो दो परीक्षाओं का भूत सवार होगा.

Web Title: Girishwar Misra blog: country's education trapped in the vortex of admission and examination

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