गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: प्रकृति के साथ जुड़ने और उसे संजोने का समय

By गिरीश्वर मिश्र | Published: July 17, 2020 11:31 AM2020-07-17T11:31:55+5:302020-07-17T11:31:55+5:30

आयुर्वेद की एक शाखा ही ‘वृक्षायुर्वेद’ है. घने जंगल बड़े मनोरम और सुरम्य होते हैं. नैसर्गिक रूप से विकसित होने वाले जंगल बेतरतीब होते हैं पर जैव विविधता की दृष्टि से बड़े ही अनमोल होते हैं. मानवी रिहाइश से दूर जंगलों में बहुत से जीव-जंतु भी पलते रहते हैं.

Girishwar Mishra's blog: Time to connect with and cherish nature. | गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: प्रकृति के साथ जुड़ने और उसे संजोने का समय

प्रधानमंत्नी  के आह्वान पर भारत सरकार के संस्कृति मंत्नालय ने ‘संकल्प पर्व’ आयोजित कर वृक्षारोपण के लिए सबको प्रेरित करने का बीड़ा उठाया है.

आकाश में आजकल बादल छा रहे हैं और वर्षा भी हो रही है, कहीं कम कहीं ज्यादा. झुलसाने वाली गर्मी से लोग राहत महसूस कर रहे हैं. मौसम बदल रहा है. यही वह समय है  जब हम पौधे लगा कर प्रकृति का स्वागत करें. वृक्षारोपण के लिए  ये दिन हर तरह से उपयुक्त हैं. आती-जाती फुहारों के बीच हमारे आस-पास का पर्यावरण इस समय हरी घास, हरे-भरे वृक्ष और लहलहाते तृण, लता-गुल्म और तमाम तरह की वनस्पतियों से खिलखिला रहा है.  इनके माध्यम से हम तक पहुंचता प्रकृति का जीवंत संगीत मानव-हृदय को अकल्पनीय सुख देता है. हरियाली आंखों को सुकून देती है और  संदेश देती है कि जीवन  का स्वभाव गतिमय और विकसित होते हुए ऊपर उठने वाला है. प्रकृति में ये परिवर्तन सृजनशीलता की प्रवृत्ति को भी साकार करते हैं.  

वृक्षों से प्राणवायु ऑक्सीजन तो मिलती ही है, अपनी उपस्थिति से वे प्रकृति के विभिन्न अवयवों के बीच संतुलन बनाने का भी काम करते हैं. वैसे भी वृक्षों से ज्यादा परोपकारी सृष्टि में शायद ही कोई और होगा. उनका पूरा अस्तित्व ही दूसरों के लिए होता है. पेड़ की घनी छाया तपती दुपहरी में बड़ी प्रिय होती है. इनके फल, फूल, जड़, छाल सब कुछ उपयोगी होते हैं. उनके द्वारा मिलने वाले बहुत से खाद्य पदार्थ और नाना प्रकार की औषधियों का तो कहना ही क्या. उनकी तो ये खान हैं.

आयुर्वेद की एक शाखा ही ‘वृक्षायुर्वेद’ है. घने जंगल बड़े मनोरम और सुरम्य होते हैं. नैसर्गिक रूप से विकसित होने वाले जंगल बेतरतीब होते हैं पर जैव विविधता की दृष्टि से बड़े ही अनमोल होते हैं. मानवी रिहाइश से दूर जंगलों में बहुत से जीव-जंतु भी पलते रहते हैं. शेर, चीता, हाथी, भालू आदि की वास-स्थली जंगल ही हैं. पेड़ों से मिलने वाली तरह-तरह की लकड़ी का नाना प्रकार का उपयोग होता है. मिट्टी का संरक्षण और जल की उपलब्धता या कहें जल चक्र  को भी ये निर्धारित करते हैं. हमारा जीवन और वन दोनों एक-दूसरे पर परस्पर-निर्भर हैं. वृक्ष लगाना पुण्य का कार्य माना जाता रहा है और वे मनुष्य को सदा से समृद्ध करते रहे हैं. कभी पूरी धरती का आधा हिस्सा वनाच्छादित था.

अब तीस प्रतिशत के करीब बचा है. यदि वृक्षों और वनों का पालन-पोषण और रक्षा का काम होता रहे तो वन भी रहेंगे और जीवन भी रहेगा.  वन और वृक्ष जीवन के साथ घुले-मिले रहे हैं. हमारी सांस्कृतिक स्मृति में और लोक-जीवन में वृक्षों की अभी भी एक खास जगह बनी हुई है. बेल, सप्तपर्णी, पलाश, कचनार, सहजन,  हरड, बहेड़ा, आंवला और नीम जैसे पेड़ अपने औषधीय गुणों के कारण बड़े लोकप्रिय रहे हैं और लोग घर के पास या बाग-बगीचे में इन्हें लगाते थे और जिसे जरूरत पड़ती थी वह इनका लाभ उठाता था. इसी तरह तुलसी, गिलोय, अपराजिता, विधारा, सतावर, पुनर्नवा, ब्राह्मी इत्यादि  पौधों को भी घरों के आस-पास  लोग रखते थे.

दुर्भाग्य से आधुनिकता, नगरीकरण  और औद्योगीकरण की जो धारा प्रवाहित हुई उसने हमारा नजरिया बदल दिया. बाजार ही सबसे बड़ा तर्क हो गया और नफा और फायदा कैसे बढ़ेगा, इसकी उधेड़बुन में सभी लगे हैं. वृक्ष और वन को आज हम संसाधन (रिसोर्स) मानते हैं और उनका मनमाना दोहन करते रहते हैं. चोरी-छिपे और कानून के इर्द-गिर्द जुगाड़ से रास्ता बना कर वनों को लगातार लोग नुकसान पहुंचा रहे हैं. हालांकि इधर वृक्षारोपण की ओर कुछ ध्यान दिया जा रहा है.

प्रधानमंत्नी  के आह्वान पर भारत सरकार के संस्कृति मंत्नालय ने ‘संकल्प पर्व’ आयोजित कर वृक्षारोपण के लिए सबको प्रेरित करने का बीड़ा उठाया है. यह अच्छी पहल है और इसके साथ सबको जुड़ना चाहिए. पर जरूरत है कि मन बदला जाए. लोगों की मानसिकता बदली जाए. आवश्यकता है कि इसे एक प्रभावी मुहिम के रूप में स्वीकार कर धरती को हरा-भरा बनाया जाए.
 

Web Title: Girishwar Mishra's blog: Time to connect with and cherish nature.

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