महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव की तैयारियां आरंभ हो चुकी हैं और चुनाव आयोग राज्य का दौरा कर चुका है. हर चुनाव की तरह फिर बताया गया है कि राजनीतिक दलों को आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों को मैदान में उतारने के कारण को बताना आवश्यक होगा, जो मतदाताओं का अधिकार है. मगर सवाल यही आता है कि आपराधिक पृष्ठभूमि के नेताओं को बेरोकटोक चुनाव में उतारा ही क्यों जाता है?
हाल में हुए 18वीं लोकसभा के चुनाव में कुल 543 सीटों में से 251 नवनिर्वाचित सांसद ऐसे हैं, जिनके खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं. जिन पर हत्या, बलात्कार, लूट और डकैती जैसे गंभीर अपराधों के आरोप हैं.
यदि आंकड़ों को अधिक ध्यान से देखा जाए तो पिछली लोकसभा में जहां कुल सदस्यों के 43 फीसदी अर्थात् 233 सांसदों के खिलाफ आपराधिक मुकदमे थे, तो अब नई 18वीं लोकसभा में 46 प्रतिशत के साथ ये संख्या 251 हो गई है. यानी स्पष्ट रूप से तीन फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई है और वर्ष 2009 के आम चुनाव से मिलाया जाए तो बीते 15 साल में इसमें 55 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है.
नई लोकसभा में 170 गंभीर आरोपियों में 27 सांसद सजायाफ्ता हैं, वहीं चार पर हत्या के मामले हैं. 15 सांसदों पर महिलाओं के खिलाफ अपराध के आरोप हैं, जिनमें से दो पर बलात्कार जैसे संगीन आरोप हैं. इसी प्रकार 43 सांसद ‘हेट स्पीच’ के आरोपी भी हैं. इस ताजा परिस्थिति को देखकर राजनीतिक दलों की नेताओं की आपराधिक पृष्ठभूमि पर मंशा साफ हो जाती है. उन्हें हर हाल में चुनाव जीतना है.
हालांकि उम्मीदवारों के चयन पर उच्चतम न्यायालय सवाल उठा चुका है. उसने प्रत्याशियों को तय करने का आधार सिर्फ जीतने की क्षमता ही नहीं बल्कि शिक्षा, उपलब्धि और मेरिट पर ध्यान आवश्यक बताया है. मगर बिहार, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में आपराधिक तत्वों को स्पष्ट राजनीतिक समर्थन और संरक्षण मिलता है. अन्य राज्यों में भी यह बात अपनी तरह सिद्ध होती है.
दरअसल राजनीतिक दलों का एकमात्र उद्देश्य सत्ता पाना बन चुका है, जिसके लिए वे किसी भी तरह के समझौते के लिए तैयार होते हैं. यदि कोई उम्मीदवार चुनाव में जीत दर्ज कर सकता है तो उसकी पृष्ठभूमि सहजता से ही नजरअंदाज कर दी जाती है. वैसे अदालत से लेकर चुनाव आयोग और समाज तक आपराधिक तत्वों को जनप्रतिनिधि बनाने के खिलाफ हैं.
फिर भी कानून और व्यवस्था में अनेक स्थानों पर कमी और कमजोरी के चलते रास्ते निकल आते हैं. आवश्यक यह है कि असामाजिक तत्वों की राजनीति में घुसपैठ के मार्गों को सख्ती के साथ बंद किया जाए. इसके लिए सरकार और चुनाव आयोग को अपना स्पष्ट रुख तैयार करना होगा.
इसे मामला हां या नहीं में ही निपटाने की व्यवस्था बनानी होगी. लोकतंत्र के नाम पर राजनीति आपराधिक तत्वों के हवाले करने की सोच समाप्त करनी होगी. संभव है कि राजनीतिक दलों को उनसे सहायता मिलती हो, लेकिन समाज हित में समझौते करने होंगे. अन्यथा सड़क से लेकर संसद तक कानून और व्यवस्था का मजाक उड़ाने वाले ही नजर आएंगे, मतदाता पांच साल बेबस खड़े रह जाएंगे.