दुष्यंत दवे का ब्लॉगः लोकतंत्र के सभी अंग मिलकर करें काम

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: April 21, 2020 07:07 AM2020-04-21T07:07:11+5:302020-04-21T07:07:11+5:30

Dushyant Dave s blog: Let all parts of democracy work together | दुष्यंत दवे का ब्लॉगः लोकतंत्र के सभी अंग मिलकर करें काम

लोकतंत्र के सभी अंग मिलकर करें काम

हमारे संविधान के निर्माताओं ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि एक दिन हमारे लोकतंत्र के तीन में से दो अंग लगभग काम करना बंद कर देंगे. लेकिन भारत में आज यही हो रहा है. केवल कार्यपालिका ही अपना काम करने की कोशिश कर रही है. संसद फिलहाल स्थगित है और न्यायपालिका कोमा में. परिणाम यह कि कार्यपालिका को देश का कामकाज चलाने या उसे बिगाड़ने के लिए खुला हाथ मिला हुआ है.इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि देश और दुनिया इस वक्त अस्तित्व को मिल रही सबसे बड़ी आर्थिक चुनौती का सामना कर रहे हैं. भारत सरकार और प्रधानमंत्री देश के लिए सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास कर रहे हैं.

लेकिन उनके प्रयास का एक दूसरा पहलू भी है, जिस पर बहस की गुंजाइश है. कुछ लोग कह सकते हैं कि आपदा के वक्त में ऐसी बहस बेमानी है, लेकिन यह न भूलें कि ऐसा नहीं किया गया तो कई बुरी बातें और काम बेरोक-टोक चलते रहेंगे. हम यह भुला बैठते हैं कि हमारा संविधान एक जीवंत दस्तावेज है. इसने कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका को ऐसा बनाया है कि तीनों एक-दूसरे पर नजर रखकर कामकाज के सुचारु संचालन के लिए संतुलन भी साध सकें. थॉमस जैफरसन ने कहा था, ‘‘संविधान का सिद्धांत यही है कि कुछ विशेष मामलों को छोड़कर विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका का अलग-अलग अस्तित्व होगा. यह संविधान की आत्मा है. आजाद सरकार के हर दोस्त को इस बात का खयाल रखना चाहिए.’’तो फिर सवाल यह है कि लाखों नागरिकों की ताजा मुसीबतों के इस दौर में दो मजबूत अंग-संसद और न्यायपालिका-चुप क्यों बैठे हैं? क्योंकर मजदूरों, गरीबों और निचले वर्ग और किसानों को खुद के ही भरोसे छोड़ दिया गया है जबकि सरकार अनाज और अन्य संसाधनों की असीमित आपूर्ति का दावा कर रही है. यह इन लाखों लोगों के संवैधानिक और कानूनी अधिकारों का गंभीर उल्लंघन है. जो 24 मार्च से हर रोज देखने को मिल रहा है. और फिर भी कार्यपालिका पर राहत देने के लिए दबाव बनाना तो दूर, यह दोनों अंग इस पर कोई गंभीर सवाल तक नहीं उठा रहे हैं.

आखिर देश इन लोगों को उनकी परेशानियों का मुआवजा कैसे देगा? चुप्पी से नहीं. निष्क्रियता से नहीं और कार्यपालिका को खुली छूट देकर तो बिलकुल भी नहीं. देश ने नोटबंदी के कारण पहले भी नागरिकों की टाली जा सकने वाली मौतों, लाखों रोजगार खत्म होने और अर्थव्यवस्था को नुकसान का मंजर देखा है. नागरिक पीड़ा के दौर से गुजर रहे थे और संसद व न्यायपालिका मौन रहे. संवैधानिक तौर पर हमारी रक्षा के लिए बाध्य वर्ग ने फिर भी कोई सबक नहीं सीखा. वह आज भी नजरें चुरा रहे हैं.देश जबकि मुश्किलातों के दौर से गुजर रहा है सरकार के यह अंग नाकामी के ठीकरे से बच नहीं सकते. भारत के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समूह मुस्लिमों की हालत देखिए. हमने उनकी स्वास्थ्य समस्या को भी आपराधिक रंग दे दिया है. वह निरंतर अलग-थलग किए जा रहे हैं. एक विदेशी वायरस कोविड-19 का देश में प्रवेश क्या उनकी गलती थी? भारत सरकार जनवरी में खामोश बैठी रही, जब चीन ने 23 जनवरी को वुहान में महामारी का ऐलान कर दिया था. उसी वक्त यह सुनिश्चित किया जाना था कि विदेश से आ रहे लोगों को या तो प्रवेश ही नहीं दिया जाए या यहां लोगों से मिलने-जुलने (दिल्ली के मरकज सहित) से पहले कम से कम 14 दिन के अनिवार्य क्वारंटाइन में रखा जाए.

इसके बाद केवल चार घंटे के नोटिस पर लॉकडाउन लगा दिया गया. हर तरह का परिवहन बंद कर दिया गया. वह जाते तो कहां? फिर भी देश उन्हें स्वास्थ्य की समस्या से उबरने में मदद करने की बजाय, उनकी रक्षा के लिए बने संवैधानिक धड़ों की ही निगरानी में, उन पर आपराधिक आरोप लगा रहा है. 25 नवंबर 1949 को डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने अपने भाषण में कहा था, ‘‘ मुझे लगता है कि संविधान कितना ही अच्छा हो, यह बुरा होगा अगर उसे लागू करने के लिए चुने गए लोग बुरे हैं.’’ निश्चित तौर पर बाबासाहब और संविधान सभा के 388 अन्य महान भारतीय सदस्य आज निराश होंगे. हम केवल इतना ही कह सकते हैं, ‘‘हम भारत के नागरिक आपकी उम्मीदों पर खरा नहीं उतरने के कारण आपसे माफी मांगते हैं.’’

बाबासाहब के मुताबिक, ‘^‘विरोधियों के खिलाफ सारे पूर्वाग्रहों को छोड़कर उन्हें भी अपने साथ उस राह पर चलने दो. जैसा कि मैंने कहा अगर हम लंबे अरसे तक साथ चले तो यह राह हमें एकता की ओर ले जाएगी’’ दुर्भाग्य से सिविल सोसायटी, मीडिया और राजनीतिक दल इस राह पर नहीं चल रहे. न्यायपालिका को हस्तक्षेप करने का अधिकार है, स्वत: संज्ञान के जरिये. हमें यह नहीं भूलना नहीं चाहिए कि प्रशासनिक और विधायी कानूनों की न्यायिक समीक्षा हमारे संविधान का आधार है. न्यायपालिका को लोकप्रिय रुख के रंग में नहीं रंगना चाहिए. संसद को भी दोबारा बुलाकर अपनी अभिभावक जैसी भूमिका को निभाना चाहिए. उम्मीद की जाए कि दोनों जरूरी कदम उठाएंगे. इनके अलावा और कोई कार्यपालिका को सही दिशा नहीं दिखा सकता. ऐसा नहीं किया गया तो शायद यह अराजकता की वजह बनेगा.

Web Title: Dushyant Dave s blog: Let all parts of democracy work together

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