अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: पंजाब और यूपी के चुनाव में दलित वोटों की खींचतान
By अभय कुमार दुबे | Published: February 17, 2022 11:30 AM2022-02-17T11:30:11+5:302022-02-17T11:31:30+5:30
मायावती द्वारा पिछले बीस साल में जिस शैली की राजनीति की गई, उसके संचित परिणाम के कारण आज उनके साथ न तो अति-पिछड़े हैं न ही मुसलमान। ये वोट उन्हें तब मिलते हैं जब वे इनमें से किसी को टिकट देती हैं।
पंजाब और उत्तर प्रदेश के चुनावों में दलित वोटों की खींचतान मची हुई है। उत्तर प्रदेश में भाजपा की रणनीति का एक प्रमुख पहलू गैर-जाटव दलित वोटों को अपनी ओर खींचना है। उसे भरोसा है कि वह ऐसा कर पाएगी, क्योंकि 2017 और 2019 के चुनावों में उसे इस लक्ष्य में कामयाबी मिल चुकी है। इसी तरह समाजवादी पार्टी को लग रहा है कि अवध और पूर्वी उत्तर प्रदेश में जाटवों के बाद संख्या-बल में सबसे मजबूत पासी जाति के वोट इस बार उसे मिलने वाले हैं। दलित एकता का बिखराव बढ़ चुका है। मायावती की मुश्किल और भी बढ़ने वाली है क्योंकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों में जाटवों पर उनके दबदबे को भीम आर्मी के चंद्रशेखर रावण से चुनौती मिलने वाली है।
दलित राजनीतिक एकता के योग की शुरुआत पंजाब में हुई थी। आतंकवाद के जमाने में बहुजन समाज पार्टी जिस बहादुरी और कुर्बानी के साथ पंजाब में चुनाव लड़ी, वह अपने आप में एक मिसाल है। लेकिन जल्दी ही कांशीराम को लगने लगा कि देश में सबसे बड़ी दलित बिरादरी के बावजूद पंजाब में उसे अन्य कमजोर जातियों का सहयोग मिलने की परिस्थितियां नहीं हैं।
दूसरे, पंजाब के दलितों में डेरों के प्रभाव के कारण उनकी राजनीतिक गोलबंदी आसान नहीं थी। इसलिए वे इस फैसले पर पहुंचे कि पंजाब में बहुजन थीसिस परवान नहीं चढ़ सकती। इसलिए उन्होंने उत्तर प्रदेश में आजमाइश शुरू की। उन्हें एक जाटव नेता की खोज थी (उप्र की अनुसूचित जातियों में सत्तर फीसदी जाटव ही हैं), जो उनके बामसेफ और डीएस-फोर के सहयोगियों में नहीं था। इस खोज में उनके हाथ मायावती लगीं जो आज बसपा की सर्वेसर्वा हैं।
लेकिन क्या बहुजन थीसिस के आईने में देखने पर उन्हें कांशीराम का उत्तराधिकारी माना जा सकता है? कांशीराम ने जाटवों के नेतृत्व में अन्य दलित जातियों, अति-पिछड़ों और गरीब मुसलमानों को जोड़ कर एक बहुजन गुलदस्ता बनाया था। मायावती द्वारा पिछले बीस साल में जिस शैली की राजनीति की गई, उसके संचित परिणाम के कारण आज उनके साथ न तो अति-पिछड़े हैं न ही मुसलमान। ये वोट उन्हें तब मिलते हैं जब वे इनमें से किसी को टिकट देती हैं। जाटव मतदाता आज भी हाथी पर बटन दबाता है, लेकिन अगर मायावती इसी तरह चुनाव की होड़ में मुख्य खिलाड़ी बनने से चूकती रहीं तो अगले चुनावों में वह अपना वोट बर्बाद करने से बचने के बारे में सोचने लगेगा।
2007 में अकेले दम पर सरकार बनाने के बाद उनका ग्राफ लगातार गिर रहा है, और अब उनके बटुए में पंद्रह से बीस प्रतिशत वोट ही रह गए हैं। हम जानते हैं कि सम्मानजनक संख्या में सीटें मिलना तब शुरू होती हैं जब किसी के वोट बीस फीसदी से ऊपर जाते हैं। बसपा ने शुरू से ही आंदोलन की राजनीति में विश्वास नहीं किया। वह एक ‘सेफोक्रेटिक’ यानी विशुद्ध रूप से चुनावी सक्रियता पर निर्भर रहने वाली पार्टी रही है। अगर ऐसी पार्टी की नेता चुनाव के दौरान भी शिथिलता और निष्क्रियता दिखाएगी तो उसके इरादों पर संदेह भी होगा, और उसके संभावित हश्र पर अफसोस भी। मायावती का यह रवैया देख कर समीक्षक भी चक्कर में हैं कि आखिरकार बहनजी चाहती क्या हैं?
मायावती की इन अनिश्चितताओं की झलक भाजपा की चुनावी रणनीति में भी देखी जा सकती है। मीडिया मंचों पर सक्रिय भाजपा-रुझान वाले टिप्पणीकारों और भाजपा नेताओं के वक्तव्यों से पहले तो यह दिखाने का प्रयास हुआ कि लड़ाई सीधी सपा और भाजपा में है। लक्ष्य यह था कि गैर-जाटव वोटों को अपनी ओर खींचे रहने की सुविधा मिले। लेकिन जब भाजपा ने देखा कि गैर-जाटव वोट केवल उसी को नहीं सपा को भी मिलने वाले हैं, और उसे यह भी लगा कि मायावती के होड़ में रहने के कारण कुछ भाजपा-विरोधी जाटव वोट भी सपा की तरफ जा सकते हैं, तो मीडिया मंचों पर बसपा की ताकत को कम करके न आंकने की चेतावनियां दर्ज कराई जाने लगीं।
मायावती ने पंजाब में अकाली दल से समझौता किया था। उस समय किसी को नहीं पता था कि पंजाब कांग्रेस की राजनीति में क्या होने वाला है। आज कांग्रेस एक दलित चेहरे को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाकर चुनाव लड़ रही है। इस घटनाक्रम ने पंजाब के दलित वोटों को तीन हिस्सों में बांट दिया है। चन्नी के कारण कांग्रेस को सबसे ज्यादा दलित वोट मिल सकते हैं। कुछ इलाकों में अपने पहले से चले आ रहे प्रभाव के कारण बसपा के उम्मीदवार कुछ वोट खींचेंगे। और पिछले चुनाव में काफी दलित वोट लेने वाली आम आदमी पार्टी इस बार भी दलित वोटों का कुछ प्रतिशत जरूर पाएगी।