डॉ. विशाला शर्मा का ब्लॉग: कृषकों के कष्टों को वाणी प्रदान करने वाले दिनकर

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: September 23, 2020 14:49 IST2020-09-23T14:49:29+5:302020-09-23T14:49:29+5:30

कवि ने यह स्पष्ट घोषणा की है कि समानता के आधार पर ही प्रत्येक सुख-सुविधाओं का विभाजन होना चाहिए, जिससे राष्ट्र के सभी घटकों को समान रूप से सभी पदार्थ प्राप्त हों और सभी समान रूप से जीवन में प्रगति के पथ पर बढ़ते रहें.

Dr. Vishala Sharma Blog: Dinkar who gives voice to the sufferings of farmers | डॉ. विशाला शर्मा का ब्लॉग: कृषकों के कष्टों को वाणी प्रदान करने वाले दिनकर

कवि ने यह स्पष्ट घोषणा की है कि समानता के आधार पर ही प्रत्येक सुख-सुविधाओं का विभाजन होना चाहिए

कविवर रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की कलम ने भारत माता की विशाल गोद में अर्धनग्न, भूख से व्याकुल कृषकों के कष्टों को अनुभव के तराजू पर तौला. उन्होंने अनुभव किया उस दारिद्र्य पीड़ित भू-भाग के किसानों के बिलखते हुए भूखे बच्चों के क्रं दन को. और उनकी वाणी भी उसी अनुभूति से प्रेरित होकर गा उठी- ‘दो घड़ी नहीं आराम कहीं मैंने जा घर घर देखा.’

इतना ही नहीं कवि ने अपने अन्य सहधर्मियों को भी अपनी अनुभूति से प्रेरणा दी और कहा- ‘‘सभ्य समाज का हंसना और रोना दोनों ही अर्थपूर्ण होता है, उसने तुम्हें रिझा लिया है, जरा इन्हें भी देखो जिनका हंसना और रोना केवल हंसना और रोना ही होता है.’’

कृषकों की दयनीय स्थिति उनके काव्य में समूचे वेग के साथ मुखरित हुई है. कवि ने देखा है कि चाहे ग्रीष्म की भीषण लपटें तन को झुलसा रही हों, धरती तवे की तरह जल रही हो, शरीर से पसीना ढल रहा हो, जेठ का मौसम हो या फिर पूस-माघ की ठिठुरती ठंड पड़ रही हो, बर्फीली सर्द आहें शरीर को कंपकंपा रही हों, किंतु कृषकों को चैन नहीं है. एक पल को भी विश्राम लेना मानो उनके भाग्य में नहीं है- ‘‘जेठ हो कि पूस हमारे कृषकों को आराम नहीं है/ छूटे बैल से संग कभी जीवन में ऐसा याम
नहीं है.’’

इतने अनवरत परिश्रम के उपरांत भी कृषकों का जीवन सुखी नहीं है, उन बदनसीबों को वस्त्र कहां, सूखी रोटी भी नहीं मिलती. कवि ने वैभव के सपनों से दूर रहकर खेतों का खामोश क्रंदन और खलिहानों का हाहाकार सुना है, उसने इस दुखमय संसार का सजीव चित्रण कर ‘बैलों के बंधुओं’ से यह प्रश्न किया कि वह वर्षभर कैसे जीवित रहते हैं? ‘‘बैलों के ये बंधु वर्ष भर क्या जाने कैसे जीते हैं/ बंधी जीभ आंखें विषम गम खा शायद आंसू पीते हैं.’’

 स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात सभी को यह आशा थी कि स्वच्छ शासन द्वारा भारत में एक ऐसे नए समाज की रचना होगी, जिसमें सभी व्यक्तियों को सभी प्रकार की समान सुविधाएं प्राप्त होंगी, शिक्षा की उन्नति होगी, खेतों में खूब उपज होगी, छोटे-बड़े एवं ऊंच-नीच का भाव समाप्त हो जाएगा और समाज के सभी व्यक्ति समान रूप से मिल-बांटकर खाएंगे. परंतु ऐसा नहीं हुआ और समाज में इसके लिए बराबर व्यग्रता और बेचैनी बनी रही.

कवि ने यह स्पष्ट घोषणा की है कि समानता के आधार पर ही प्रत्येक सुख-सुविधाओं का विभाजन होना चाहिए, जिससे राष्ट्र के सभी घटकों को समान रूप से सभी पदार्थ प्राप्त हों और सभी समान रूप से जीवन में प्रगति के पथ पर बढ़ते रहें. असमानता का हृदय विदारक चित्रण कवि ने प्रस्तुत किया है- ‘‘कहीं दूध के बिना तरसती मानव की संतान/ कहीं क्षीर के मटके खाली करते जाते स्वान/ कहीं वसन रेशम के सस्ते महंगी कहीं लंगोटी/ कोई घी से नहा रहा मिलती न किसी को रोटी.’’

Web Title: Dr. Vishala Sharma Blog: Dinkar who gives voice to the sufferings of farmers

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