डॉक्टर विजय दर्डा का ब्लॉग: एकसाथ चुनाव पर विरोध के स्वर क्यों ?
By विजय दर्डा | Published: September 4, 2023 07:04 AM2023-09-04T07:04:55+5:302023-09-04T07:11:18+5:30
आजादी के बाद संसद और विधानसभा के लिए पहले चुनाव एकसाथ हुए थे। फिर 1957, 1962 और 1967 में भी लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एकसाथ ही हुए।
कल्पना कीजिए कि चुनाव के दिन आप मतदान केंद्र पर जाएं और उसी दिन अपने सांसद के साथ ही अपना विधायक भी चुन लें! अभी हमें लोकसभा के लिए अलग और विधानसभा के लिए अलग-अलग समय पर वोट देना होता है लेकिन देश के युवा मतदाताओं के लिए यह जानना जरूरी है कि आजादी के बाद संसद और विधानसभा के लिए पहले चुनाव एकसाथ हुए थे। फिर 1957, 1962 और 1967 में भी लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एकसाथ ही हुए।
मामला तब गड़बड़ाया जब कुछ विधानसभाएं भंग कर दी गईं। पांच साल की कार्यअवधि के कारण विधानसभाओं की अवधि अलग हो गई और चुनाव भी अलग होने लगे। राजनीति में पैसे का बोलबाला शुरू हो गया और चुनाव महंगे होते चले गए। हमारे यहां चुनाव आयोग ने खर्च की जो सीमा निर्धारित कर रखी है, वह ठीक ऐसा ही है जैसे शाही शादी में चाय पानी का खर्चा होता है। यह पैसा भी तो आखिर आम लोगों का ही है!
अभी तो यह हाल है कि हर साल कहीं न कहीं चुनाव होते ही होते हैं। केवल लोकसभा और विधानसभा ही नहीं, ग्राम पंचायत, नगर पंचायत, जिला पंचायत, नगर परिषद के भी चुनाव होते रहते हैं। केंद्र से लेकर राज्य तक चुनाव आयोग हर वक्त कहीं न कहीं चुनाव को लेकर उलझा रहता है।
राजनीतिक दलों के नेता, सरकार के मंत्री संबंधित राज्यों में वक्त खर्च करते हैं। इससे पूरी कार्यप्रणाली पर असर पड़ता है। आचार संहिता लग जाती है। सरकार को फैसले लेने में मुश्किलें आती हैं। काम रुक जाते हैं। हमारे अर्धसैनिक बल चुनाव में उलझे रहते हैं।
यही कारण है कि चुनाव आयोग ने 1983 में प्रस्ताव रखा था कि देश में फिर से एकसाथ चुनाव की प्रक्रिया शुरू की जाए लेकिन तत्कालीन सरकार ने उस प्रस्ताव को दरकिनार कर दिया था। उसके बाद 1998-99 में भी लॉ कमीशन ने पूरी तैयारी के साथ सुझाव दिया था और कहा था कि इसके लिए संविधान में कुल पांच संशोधन करने होंगे। लॉ कमीशन की बात पर भी ध्यान नहीं दिया गया। मगर कई फोरम पर एक देश एक चुनाव को लेकर चर्चा होती रही। इसकी चर्चा कभी बंद नहीं हुई।
मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में 2014 में जब भाजपा ने लोकसभा का चुनाव लड़ा तो अपने घोषणा पत्र में स्पष्ट शब्दों में लिखा कि उसका इरादा एक देश एक चुनाव का है। प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने इस मसले पर 2016 में फिर चर्चा गर्म की। 2017 में नीति आयोग ने वर्किंग पेपर भी प्रस्तुत किया।
साल 2019 में नरेंद्र मोदी जब दोबारा प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने इस मसले को लेकर सर्वदलीय बैठक बुलाई लेकिन कांग्रेस सहित कई दलों ने इस बैठक का बहिष्कार किया यानी यह स्पष्ट कर दिया कि वे इसके पक्ष में नहीं हैं!
अब सरकार एकसाथ चुनाव पर अडिग दिख रही है, पिछले साल ही चुनाव आयोग ने स्पष्ट कर दिया था कि वह एकसाथ चुनाव कराने में सक्षम है। अब पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के नेतृत्व में एक समिति का गठन भी कर दिया गया है। इस समिति में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी, वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे, पूर्व नेता प्रतिपक्ष गुलाम नबी आजाद, वित्त आयोग के पूर्व अध्यक्ष एन.के. सिंह, लोकसभा के पूर्व महासचिव सुभाष सी कश्यप तथा पूर्व मुख्य सतर्कता आयुक्त संजय कोठारी को समिति का सदस्य बनाया गया है।
केंद्रीय मंत्री अर्जुन राम मेघवाल विशेष आमंत्रित सदस्य होंगेय़ कानूनी मामलों के सचिव नितेन चंद्रा को समिति का सदस्य सचिव बनाया गया है।
समिति के गठन के साथ ही अधीर रंजन चौधरी ने सदस्य बनने से इनकार करके कांग्रेस का रुख स्पष्ट कर दिया है। विरोध के और भी स्वर उभरने लगे हैं। ऐसी स्थिति में सवाल पूछा जाने लगा है कि देश ने एकसाथ चुनाव से लोकतंत्र का सफर शुरू किया था तो अब विरोध क्यों?
दरअसल 2015 में आईडीएफसी इंस्टीट्यूट की एक अध्ययन रिपोर्ट आई थी कि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एकसाथ होने की स्थिति में 77 फीसदी संभावना है कि मतदाता एक ही दल या गठबंधन को चुनेंगे। यदि चुनाव छह महीने के अंतराल पर होते हैं तो यह संभावना घट कर 61 प्रतिशत हो जाएगी।
मुझे लगता है कि हमारे देश का मतदाता बहुत परिपक्व हो चुका है। वह जानता है कि उसे क्या चाहिए। कई राजनीतिक दल कह रहे हैं कि नरेंद्र मोदी का ग्राफ गिरा है और विपक्ष एकजुट हो रहा है इसलिए 2024 के चुनाव को लेकर यह सब कवायद हो रही है लेकिन सवाल है कि ग्राफ गिरने की बात का आधार क्या है? केंद्र और राज्य के चुनाव में मतदाता की सोच भिन्न होती है। राज्य के आधार पर केंद्र को नहीं आंका जा सकता!
अब सवाल यह है कि एकसाथ चुनाव के लिए संविधान संशोधन होता है तो उसे राज्यसभा में पास कराना और 14 राज्यों का अनुमोदन क्या हो पाएगा? मुझे लगता है कि कुछ पार्टियां साथ दे देंगी तो राज्यसभा में भी सफलता मिल जाएगी। इस संशोधन को 14 राज्यों की स्वीकृति की जरूरत होगी। 12 राज्यों में भाजपा की सरकार है। ओडिशा और आंध्रप्रदेश में लोकसभा के साथ ही विधानसभा के चुनाव होते हैं इसलिए उनका साथ भाजपा को मिल सकता है।
चलिए, चलते-चलते आपको एक दिलचस्प जानकारी दे दूं कि भारत एक चुनाव के रास्ते पर फिर से बढ़ता है तो एक और इतिहास रचेगा। इस वक्त दुनिया में केवल स्वीडन, बेल्जियम और दक्षिण अफ्रीका ही ऐसे देश हैं जहां प्रतिनिधि संस्थाओं के चुनाव एकसाथ होते हैं। हां, नेपाल में भी नया संविधान लागू होने के बाद 2017 में एकसाथ चुनाव हुए थे। वैसे ये छोटे देश हैं। भारत बहुत बड़ा है लेकिन मुझे एकसाथ चुनाव में कोई संदेह नजर नहीं आ रहा है। नरेंद्र मोदी के बारे में कहावत ही है कि मोदी हैं तो मुमकिन है।