क्षेत्रीय दलों में कलह और सामंती चरित्र, राजेश बादल का ब्लॉग
By राजेश बादल | Published: June 22, 2021 03:49 PM2021-06-22T15:49:58+5:302021-06-22T15:52:03+5:30
सत्तारूढ़ जेडीयू के मुखिया नीतीश कुमार क्या अपने आप में सामंती चरित्र का प्रतिनिधित्व नहीं करते? मुलायम सिंह ने समाजवादी पार्टी बनाई. कुछ बरस बाद पार्टी उनके पुत्र व भाई की कलह का शिकार बन गई.
हिंदुस्तानी लोकतंत्र में क्षेत्रीय दलों को ग्रहण सा लग गया है. स्थापना के दशकों बाद भी जम्हूरियत से उनका जमीनी फासला बढ़ता जा रहा है.
बहुदलीय तंत्न किसी भी गणतांत्रिक देश की खूबसूरती का सबब होता है. पर जब दलों के अंदर राजरोग पनपने लगे तो फिर प्रजातांत्रिक शक्ल के विकृत होने का खतरा बढ़ जाता है. बिहार में लोकतांत्रिक जनता पार्टी (लोजपा) का आंतरिक घटनाक्रम कुछ ऐसी ही कहानी कहता है. चिराग रामविलास पासवान के उत्तराधिकारी हैं.
जिस तरह राजतंत्न में राजकुमार ही उत्तराधिकारी होता था और कभी कभी हम पाते थे कि उत्तराधिकार के लिए जंग छिड़ जाती थी, ऐसी ही अंदरूनी लड़ाई इस नन्ही सी पार्टी में भी नजर आ रही है. राजघराने की तर्ज पर राजा के भाई ने भतीजे की पीठ में खंजर घोंप दिया. वैसे तो यह इस प्रदेश की इकलौती कहानी नहीं है. इसी दौर में लालू यादव ने आरजेडी को जन्म दिया.
वे घनघोर समाजवादी और लोकतंत्न समर्थक लोकनायक जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में प्रशिक्षित हुए थे. लेकिन उनका लोकतंत्न राजतंत्न में तब्दील हो गया, जब उन्होंने सियासत के ककहरे से अपरिचित पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्नी बना दिया. उसके बाद अगली पीढ़ी भी राजपाट संभालने लगी. सत्तारूढ़ जेडीयू के मुखिया नीतीश कुमार क्या अपने आप में सामंती चरित्र का प्रतिनिधित्व नहीं करते?
पड़ोसी उत्तर प्रदेश ने भी यही कहानी दोहराई. मुलायम सिंह ने समाजवादी पार्टी बनाई. कुछ बरस बाद पार्टी उनके पुत्न व भाई की कलह का शिकार बन गई. अंतत: कमान पुत्न अखिलेश यादव के हाथ में आई. इन दलों में एक और स्थाई रोग चस्पा हो गया. ये दल यादव कुल की जातियों के रौब तले दब गए. इसी तरह बसपा का उद्भव कुछ जातियों से नफरत के बीज से हुआ.
इन दलों ने समर्थकों को लोकतांत्रिक बनाना तो दूर, उन्हें सामंती प्रजा बना दिया. इन दलों को अन्य जातियों के वोटों की खातिर कुछ टुकड़े उनको भी डालने पड़े. पर समग्र समाज का प्रतिनिधित्व करने में ये दल नाकाम रहे, इसीलिए ढाई -तीन दशक बाद भी बौने ही हैं. राष्ट्रीय पार्टी के रूप में विकसित नहीं हो पाए. वे शायद राष्ट्रीय होना ही नहीं चाहते. अपनी छोटी-छोटी रियासतों से ही गद्गद् हैं.
हरियाणा में चौधरी देवीलाल ने जिसकी नींव डाली, क्या वह दल युवराजों के अपने खंडित साम्राज्य में तब्दील नहीं हो चुका है? वे जनादेश का मखौल उड़ाते दिखाई देते हैं. जिस पार्टी से चुनाव अभियान में मोर्चा लेते हैं, परिणाम आने के बाद उसी से हाथ मिलाकर गद्दी नशीन हो जाते हैं. पुराने जमाने के छोटे राजाओं की तरह. सिद्धांत-सरोकार कपूर की तरह उड़ जाते हैं.
पढ़े-लिखे मतदाता भी इन नए नरेशों की स्तुति करते हैं. कमोबेश यही हाल पंजाब का है. वहां अकाली दल भी सामूहिक नेतृत्व को तिलांजलि देकर एक परिवार को ही क्षत्नप बना बैठा है. क्या उस परिवार से अलग कोई राजनेता उस पार्टी का अध्यक्ष बनने की सोच भी सकता है? महाराष्ट्र में सरकार चला रही शिवसेना भी उत्तराधिकार परंपरा निभा रही है.
एक जमाने में इस दल में चचेरे भाइयों के बीच शक्ति संघर्ष देखने को मिला था. अंतत: युवराज उद्धव ठाकरे के हाथ में कमान आई. शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी भी कोई अपवाद नहीं है. इस पार्टी के भीतर कितने चुनाव हुए हैं? क्या वाकई दल में सब कुछ गणतांत्रिक ढंग से चल रहा है? शरद पवार के बिना पार्टी के अस्तित्व की कौन कल्पना कर सकता है.
तमिलनाडु में सत्ताधारी द्रविड़ मुनेत्न कषगम(डीएमके) का भी हाल ऐसा ही है. करुणानिधि ने राजा की तरह पार्टी को चलाया. राजपरिवार जैसे संघर्ष इसके अंदर भी हुए. शक्ति केंद्र पनपे और फिर एक युवराज के हाथ में कमान आ गई. नवोदित आम आदमी पार्टी का भी यही हाल है. अरविंद केजरीवाल से बड़ी आशाएं थीं. लेकिन क्या हुआ. इस पार्टी पर भी तानाशाही के घुड़सवार चढ़ बैठे.
उनकी टीम में स्वतंत्न सोच रखने वाले अधिकतर लोग उनके साथ नहीं रहे. आशुतोष, कुमार विश्वास, किरण बेदी, योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण, आशीष खेतान, मेधा पाटकर, एडमिरल रामदास, कपिल मिश्र, अंजलि दमानिया, कप्तान गोपीनाथ और प्रो.आनंद कुमार तक उनसे पल्ला झाड़ चुके हैं.
वैसे तो 25-30 बरस एक विराट लोकतंत्न की आयु में कोई खास मायने नहीं रखते, मगर हिंदुस्तान में इन वर्षो ने यकीनन लोकतंत्न का चेहरा विकृत किया है. नब्बे के दशक में जब राजनीतिक अस्थिरता के खेत में ढेर सारी प्रादेशिक पार्टियों की फसल उगी तो उम्मीद थी कि जम्हूरियत की फसल लहलहाएगी. पर ऐसा न हुआ. इन दलों ने लोकतंत्न मजबूत करने के बजाय उसमें घुन लगा दिया.
वे भूल गए कि जातियों की महामारी के कारण यह देश पहले ही बहुत भुगत चुका है. भारतीय संविधान की भावना तो ऐसी नहीं है. तो अब क्या माना जाए. इस मुल्क की मिट्टी या मिजाज सिर्फ राजतंत्न के लिए बचा है? एक अखिल भारतीय रियासत राष्ट्र की छोटी-छोटी आधुनिक रियासतों का सहारा लेकर हुकूमत करे? जब कोई महीन सा राजपरिवार बड़ा हो जाए तो वह सल्तनत संभाल रहे राजघराने को हटा दे?
अवाम धीरे-धीरे लोकतंत्न को बौना होते तब तक देखती रहे, जब तक कि वह दम न तोड़ दे? यदि ऐसा हुआ तो निश्चित ही वह बेहद दुखद होगा. इस आलेख का मकसद केवल प्रादेशिक पार्टियों की शैली पर ध्यान केंद्रित करना था. दोनों बड़ी पार्टियों पर आइंदा विश्लेषण करेंगे.