BLOG: हजारों सपनों को उनकी मंजिल तक पहुंचाती है ये दिल्ली मेट्रो
By ऐश्वर्य अवस्थी | Published: May 30, 2018 12:53 PM2018-05-30T12:53:15+5:302018-05-30T12:53:15+5:30
ये दिल्ली है मेरे यार बस इश्क, मुहाब्बत प्यार....अगर मुंबई को सपनों की नगरी कहा जाता है तो दिल्ली भी कम नहीं हैं।
ये दिल्ली है मेरे यार बस इश्क, मुहाब्बत प्यार....अगर मुंबई को सपनों की नगरी कहा जाता है तो दिल्ली भी कम नहीं हैं। मुंबई में सपनों को पंख देती है लोकर ट्रेन तो दिल्ली दिल्ली उन पंखो को हवा में उड़ने का जरिया। हर रोज हजारों को उनके ठिकाने उनकी मंजिल तक ये मेट्रो ले जाने का काम करती है। 2011 के आस पास मेट्रो में इतनी भीड़ नहीं होती थी।
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बाराखम्बा स्टेशन जहां अगर लोगों को गिना जाए को 15, 20 लोग भी नहीं दिखते थे वो स्टेशन आज यात्रियों से भरा रहते है। बात मेट्रो स्टेशन की नहीं उस मेट्रो में चलने वालों लोगों की भी। जिसमें हजारों के सपने हर रोज दौड़ते हैं। कुछ सपनों को मंजिल मिल गई तो अभी भी कुछ तलाश में हैं। सच कहीं जब मैं मेट्रो में अकेले पहली बार कॉलेज गई थी तो नर्वस थी इसलिए नहीं मैं अकेले इतनी दूर कॉलेज जा रही बल्कि इसलिए थी कि मुझे अजीब सी फैशन कानों में लगे हैडफोन बड़ा बेचैन करते थे। एक सीट पर बैठने के लिए सब कैसे दरवाजा खुलने का इंतजार करते हैं।
ऐसा लगता है हर कोई बस अपने में खोया है। वक्त भले 2002 से पहली बार चलने वाली मेट्रो के साथ बदला हो लेकिन कुछ नहीं बदला तो इसमें सफर करने वाले लोग। सच कहूं आज आलम ये है कि फैशन देखनी है तो मेट्रो में सफर करो जनाब...कुछ स्टेशन फिक्श हैं जहां से फैंशन वीवा चढ़ती हैं और ऐसे करती हैं मानों मेट्रो उनके पिता जी हो अगर आप थोड़े कम अच्छे कपडे पहने हैं और सीट पर बैठे हैं तो भाई घूरघूर कर ही आप के हाल बेहाल कर दिए जाएंगे।
2002 से शुरु हुई मेट्रो में जाने अंजाने आज पास के कुछ चेहरे आपको आपने से लगने लगे हैं।
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वक्त के साथ ये मेट्रो खूब बदली है। पहले जहां 6 कोच थे और महिलाओं को भी उसी में सवारी करनी होती थी। वहीं अब 8 कोच किए तो महिलाओं के लिए 1 डिब्बे भी आरक्षित कर दिए गए। कितना कुछ इस मेट्रो में बदला है या यूं कहीं मेट्रो बदली है। सब बदलता और इस बीच अगर कुछ नहीं बदला तो वह है लोगों को उनकी मंजिल तक पहुंचाने का मेट्रो का जज्बा।