ब्लॉग: फसलों पर जलवायु परिवर्तन की तीखी मार

By पंकज चतुर्वेदी | Published: April 23, 2022 08:37 AM2022-04-23T08:37:29+5:302022-04-23T08:41:31+5:30

खेती के समक्ष सबसे खतरनाक चुनौती - जलवायु परिवर्तन और खेती के घटते रकबे पर कम ही बातें होती हैं. अब बहुत देर नहीं है जब किसान के सामने बदलते मौसम के कुप्रभाव उसकी मेहनत और प्रतिफल के बीच खलनायक की तरह खड़े दिखेंगे. 

crops climate change minerals | ब्लॉग: फसलों पर जलवायु परिवर्तन की तीखी मार

ब्लॉग: फसलों पर जलवायु परिवर्तन की तीखी मार

Highlightsइस बार जनवरी-फरवरी में बर्फ भी कम गिरी व मार्च में बरसात नाममात्र की हुई.तापमान में एक डिग्री बढ़ोत्तरी का अर्थ है कि खेत में 360 किलो फसल प्रति हेक्टेयर की कमी आ जाना.सन् 2001 से 2011 के बीच के दस सालों में किसानों की संख्या 85 लाख कम हो गई. 

पंजाब-हरियाणा के गेहूं किसान इस बार ठगा सा महसूस कर रहे हैं. मार्च के पहले सप्ताह से ही जो गर्मी पड़नी शुरू हुई कि गेहूं का दाना ही सिकुड़ गया. 

इंडियन ग्रेन मैनेजमेंट एंड रिसर्च इंस्टीट्यूट की टीम ने इन दोनों राज्यों के लगभग हर जिले में जाकर सर्वे किया तो पाया कि गेहूं का दाना कोई छह फीसदी सिकुड़ गया है. इससे कुल फसल के वजन में 10 से 12 प्रतिशत की कमी तो आ ही रही है, गुणवत्ता के तकाजे पर दोयम होने से इसके दाम कम मिल रहे हैं. 

उधर, गोवा में काजू उत्पादक भी बेसमय गर्मी से फसल चौपट होने पर दुखी हैं. गेंहूं के कमजोर होने का दायरा मध्य प्रदेश में भी व्यापक है. कश्मीर में ट्यूलिप हो या सेबफल - आड़ू, हर एक पर जलवायु परिवर्तन और वैश्विक तपन की तीखी मार पड़ रही है. जनवरी 1891 के बाद अर्थात लगभग 130 साल बाद कश्मीर में मार्च में इतनी गर्मी पड़ी है. 

इस बार जनवरी-फरवरी में बर्फ भी कम गिरी व मार्च में बरसात नाममात्र की हुई. इसका असर है कि देश के कुल सेब उत्पादन का 80 फीसदी उगाने वाले कश्मीर में 20 से 30 प्रतिशत कम उत्पादन होने का अंदेशा है. यहां पिछले साल 26 लाख टन सेब हुआ था. 

अकेले सेब ही नहीं, चेरी, आड़ू, आलूबुखारा जैसे फलों के भी गर्मी ने छक्के छुड़ा दिए हैं. वैज्ञानिक कहते हैं कि तीखी गर्मी से सेब की मिठास व रसीलेपन पर भी विपरीत असर होगा. 

यह किसी से छुपा नहीं है कि इस साल श्रीनगर का विश्वप्रसिद्ध ट्यूलिप गार्डन तय समय से पांच दिन पहले ही बंद करना पड़ा क्योंकि गर्मी में फूल मुरझा गए थे. यहां 62 प्रजाति के कोई डेढ़ लाख ट्यूलिप लगे हैं जो अधिकतम 22-25 डिग्री तापमान में ही जीवित रहते हैं.

खेती के समक्ष सबसे खतरनाक चुनौती - जलवायु परिवर्तन और खेती के घटते रकबे पर कम ही बातें होती हैं. अब बहुत देर नहीं है जब किसान के सामने बदलते मौसम के कुप्रभाव उसकी मेहनत और प्रतिफल के बीच खलनायक की तरह खड़े दिखेंगे. 

हालांकि बीते कुछ सालों में मौसम का चरम होना-खासकर अचानक ही बहुत सारी बरसात एक साथ हो जाने से खड़ी फसल की बर्बादी किसान को कमजोर करती रही है.

कृषि मंत्रालय के भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद का एक ताजा शोध बताता है कि सन 2030 तक हमारी धरती के तापमान में 0.5 से 1.2 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि अवश्यंभावी है. 

साल-दर-साल बढ़ते तापमान का प्रभाव सन् 2050 में 0.80 से 3.16 और सन् 2080 तक 1.56 से 5.44 डिग्री हो सकता है. जान लें कि तापमान में एक डिग्री बढ़ोत्तरी का अर्थ है कि खेत में 360 किलो फसल प्रति हेक्टेयर की कमी आ जाना. 

इस तरह जलवायु परिवर्तन के चलते खेती के लिहाज से 310 जिलों को संवेदनशील माना गया है. इनमें से 109 जिले बेहद संवेदनशील हैं, जहां आने वाले एक दशक में ही उपज में कमी आने की संभावना है.

आजादी के तत्काल बाद देश के सकल घरेलू उत्पाद में खेती की भूमिका 51.7 प्रतिशत थी जबकि आज यह घट कर 13.7 प्रतिशत हो गई है. 

यहां गौर करने लायक बात यह है कि तब भी और आज भी खेती पर आश्रित लोगों की आबादी 60 फीसदी के आसपास ही थी. जाहिर है कि खेती-किसानी करने वालों का मुनाफा, आर्थिक स्थिति सभी कुछ दिनोंदिन जर्जर होती जा रही है.

कृषि प्रधान कहे जाने वाले देश में किसान ही कम हो रहे हैं. सन् 2001 से 2011 के बीच के दस सालों में किसानों की संख्या 85 लाख कम हो गई. 

वर्ष-2001 की जनगणना के अनुसार देश में किसानों की कुल संख्या 12 करोड़ 73 लाख थी जो 2011 में घटकर 11 करोड़ 88 लाख हो गई. 

आज भले ही हम बढ़िया उपज या आयात के चलते खाद्यान्न संकट से चिंतित नहीं हैं, लेकिन आनेवाले सालों में यही स्थिति जारी रही तो हम सुजलाम्‌-सुफलाम्‌ नहीं रह पाएंगे. कुछेक राज्यों को छोड़ दें तो देशभर में कृषि का क्षेत्र घट रहा है.

जलवायु परिवर्तन या तापमान बढ़ने का बड़ा कारण विकास की आधुनिक अवधारणा के चलते वातावरण में बढ़ रही कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा है. 

‘हार्वर्ड टीएच चान स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ’ की ताजा रिपोर्ट बताती है कि इससे हमारे भोजन में पोषक तत्वों की भी कमी हो रही है. 

रिपोर्ट चेतावनी देती है कि धरती के तापमान में बढ़ोत्तरी खाद्य सुरक्षा के लिए दोहरा खतरा है. ‘आईपीसीसी’ समेत कई अंतरराष्ट्रीय अध्ययनों में इससे कृषि उत्पादन घटने की आशंका जाहिर की गई है, जिससे खाद्य संकट गहरा सकता है.

ताजा रिपोर्ट और बड़े खतरे की ओर आगाह कर रही है. दरअसल, कार्बन उत्सर्जन से भोजन में पोषक तत्वों की कमी हो रही है. रिपोर्ट के अनुसार कार्बन उत्सर्जन में बढ़ोत्तरी के कारण चावल सहित तमाम फसलों में पोषक तत्व घट रहे हैं. 

इससे 2050 तक दुनिया में 17.5 करोड़ लोगों में जिंक की कमी होगी, 12.2 करोड़ लोग प्रोटीन की कमी से ग्रस्त होंगे. दरअसल 63 फीसदी प्रोटीन, 81 फीसदी लौहतत्व तथा 68 फीसदी जिंक की आपूर्ति पेड़-पौधों से होती है, जबकि 1.4 अरब लोग लौहतत्व की कमी से जूझ रहे हैं जिनके लिए यह खतरा और बढ़ सकता है.

शोध में पाया गया है कि अधिक कार्बन डाईऑक्साइड की मौजूदगी में उगाई गई फसलों में जिंक, आयरन एवं प्रोटीन की कमी पाई गई है. वैज्ञानिकों ने अपने प्रयोगों के जरिये इस बात की पुष्टि भी की है. 

रिपोर्ट में कहा गया है कि कार्बन डाईऑक्साइड पौधों को बढ़ने में तो मदद करती है, लेकिन पौधों में पोषक तत्वों की मात्रा को कम कर देती है. यह रिपोर्ट भारत जैसे देशों के लिए अधिक डराती है क्योंकि हमारे यहां पहले से कुपोषण एक बड़ी समस्या है.

Web Title: crops climate change minerals

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