चुनावी विश्लेषणः हरियाणा की बदलती परिस्थितियों ने सभी दलों को किया बहुमत से दूर, 45 दिनों में पूरब से पश्चिम हुआ मतदाताओं का मिजाज

By बद्री नाथ | Published: October 25, 2019 10:16 AM2019-10-25T10:16:01+5:302019-10-25T10:17:58+5:30

Complete Ananlysis of Haryana Assembly election Results: हरियाणा की जनता ने त्रिशंकु विधानसभा का जनादेश दिया है। सत्ता की चाबी निर्दलीय और चाबी वालों (जेजेपी) के हाथ में पहुंची, लेकिन जेजेपी के देर करने से निर्दलीय पहुंचे सत्ता के करीब...

Complete Ananlysis of Haryana Assembly election Result in Hindi, Poll strategy, alliance and leadership | चुनावी विश्लेषणः हरियाणा की बदलती परिस्थितियों ने सभी दलों को किया बहुमत से दूर, 45 दिनों में पूरब से पश्चिम हुआ मतदाताओं का मिजाज

चुनावी विश्लेषणः हरियाणा की बदलती परिस्थितियों ने सभी दलों को किया बहुमत से दूर, 45 दिनों में पूरब से पश्चिम हुआ मतदाताओं का मिजाज

Highlightsहर रोज बदलती राजनितिक परिस्थितियों नें इस चुनाव को काफी दिलचस्प बना दिया था। इस चुनाव में देश को ढेर सारी नयी राजनीतिक संकल्पनायें देखने को मिली तो ढेर सारे भ्रम भी टूटे हैं।

कहते हैं इतिहास अपने आपको दोहराता जरूर है। 2009 चुनाव के नतीजे जैसे आये थे ठीक वैसे ही इसबार भी हरियाणा के नतीजे आए हैं। जिस प्रकार 2009 में ओवर कॉन्फिडेंस से लबरेज हुड्डा ने लोकसभा में हरियाणा के 9 लोकसभाओं और 71 विधान सभाओं में जीत दर्ज करने के बाद विधान सभा भंग करके चुनाव लड़ा था और 71 से घटकर सीटें 40 रह गई थी। उस चुनाव में भी हरियाणा जनहित कांग्रेस ने 7 विधायक जिताकर विधान सभा पहुचाया था। इस बार भी लोकसभा चुनाव में सत्ताधारी दल बीजेपी ने 10 की 10 सीटें 79 विधान सभाओं में जीतकर 75 पार का नारा दिया और 40 पार नहीं कर सकी। तब हरियाणा जनहित कांग्रेस का उदय हुआ था अब जेजेपी सत्ता के केंद्र में आई है। तब भी गोपाल कांडा ने तत्कालीन सत्ताधारी दल कांग्रेस के साथ मिल कर  सरकार बनाने की हुंकार भरी थी अब एक बार फिर से  सत्ताधारी दल के साथ मिलकर सरकार बनाने के प्रक्रिया की शुरुआत गोपाल कांडा ने कर दी है।

हरियाणा की जनता ने किसी भी दल को स्पष्ट जनादेश नहीं दिया। हर रोज बदलती राजनितिक परिस्थितियों नें इस चुनाव को काफी दिलचस्प बना दिया था। हरियाणा विधान सभा चुनाव कई मायनों में खास रहा। इस चुनाव में देश को ढेर सारी नयी राजनीतिक संकल्पनायें देखने को मिली तो ढेर सारे भ्रम भी टूटे हैं। राजनीतिक फ्री लांसर की संकल्पना आई तो दलों के बीच गठबंधन टूटे और दलबदलू नेताओं और नाराज लोगों द्वारा निर्दली उम्मीदवार के रूप में उतरने से नए समीकरण बनें तो पुराने समीकरण बिगड़े। राष्ट्रीय मुद्दों से प्रादेशिक मुद्दों का अद्भुत संयोग देखने को मिला। मोदी की बात जनता ने कम सुनी इसका एक कारण क्षेत्रिय दलों की प्रादेशिक मुद्दों पर बीजेपी को घेरने की रणनीति,

लोक लुभावन घोषणा पत्र और खट्टर के बिवादित बयान रहे।लोकसभा चुनाव से 150 दिन पहले होने वाले चुनावों में जैसे बीजेपी 5 राज्यों में हुए विधान सभा चुनावों में 5-0 से हारी थी वैसे ही लोकसभा चुनाव के 150 दिनों बाद हुए विधान सभा चुनावों में अपेक्षित जीत दर्ज नहीं कर सकी है। 5 महीना पहले हुए लोकसभा चुनावों में 58% वोट पाने वाली बीजेपी महज 36% पर सिमट गई। वहीं कांग्रेस व जेजेपी के वोट प्रतिशत व सीटों में में भारी बढ़ोत्तरी दर्ज की गई। हरियाणा की जनता द्वारा दिए गए जनमत ने यह बता दिया है कि प्रदेश के चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दों से काम नहीं बनता वरन इन चुनावों में क्षेत्रीय मुद्दों की महत्ता होती है। चुनाव के शुरुआत से अंत तक बदलाव की गुंजाइश बनी रही थी।

इनेलो में टूट कांग्रेस में फूट ने एकजुट बीजेपी को बनाया था सबसे मजबूत 

इससे पूर्व  बीजेपी के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर की जन आशीर्वाद यात्राओं में बीजेपी ने जमीन पर काफी अच्छा माहौल तैयार किया था जिससे बीजेपी एकतरफा चुनाव जीतती नजर आ रही थी इसी वजह से दूसरे दलों में जानें हेतु नेताओं के लिए सबसे अच्छा विकल्प बीजेपी थी। 6 अगस्त से 20 सितम्बर तक बीजेपी के द्वारा चलाये गए कार्यकर्ता बनाओ अभियान में बीजेपी से हर दल के लोग जुड़े ऐसा बीजेपी की उपलब्धियों नहीं बरन कांग्रेस में फूट और इनेलो में टूट की वजह से हुआ था। अगर कांग्रेस इस दरम्यान जमीन पर सक्रिय रही होती तो इनेलो की टूट का सबसे ज्यादे फायदा कांग्रेस को होता। सितम्बर महीने के पहले हफ्ते में प्रदेश कांग्रेस में महत्वपूर्ण बदलाव हुए थे जिसके मुताबिक सोनिया गाँधी के करीबी माने जाने वालों की हरियाणा कांग्रेस में जहाँ ताजपोशी हुई थी तो वहीँ राहुल गाँधी के करीबी रहे अशोक तंवर की विदाई हुई थी, इस बदलाव से कांग्रेस खेमे में एक बार फिर से उत्साह का संचार हो गया था । बदली हुई परिस्थिति में कांग्रेस में जान आ गयी थी।

पूरे चुनाव में हरियाणा में तमाम बदलाव देखने को मिले। दिन प्रतिदिन समीकरण बदलते रहे, किसी के लिए बनते तो किसी के लिए बिगड़ते नजर आये। ऐसी परिस्थतियों में कोई दल कभी ऊपर चला जाता तो अगले समय में वह नीचे आ जाता। चुनाव की घोषणा से 2 हफ्ते पूर्व सब कुछ बीजेपी के पक्ष में जाता दिख रहा था। इनेलो की टूट और कांग्रेस की फूट में एकजुट बीजेपी एकतरफा चुनाव जीतती नजर आ रही थी।

हुड्डा ने आखिरी वक्त में टाल दिया नई पार्टी का फैसला

19 अगस्त को रोहतक अनाज मंडी में बड़ी जनसभा करके हुड्डा नें जहां अपने पार्टी लाइन से ऊपर आकर 370 का समर्थन किया वहीं पार्टी का घोषणापत्र भी हरियाणा की जनता के समक्ष रख दिया। रैली की तैयारियां जिस तरीके से की गई थीं वैसे यह लग रहा था कि हुड्डा गुट कोई बड़ा धमाका करेगा पुरे देश को ऐसा लगा था  कि हुड्डा कांग्रेस से अलग रस्ते पर जाने का एलान करेंगे लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ लेकिन इस इकसरसाइज़ से एक बात हुड्डा के पक्ष में गई ये थी कि वे  कांग्रेस पार्टी पर जबरदस्त दबाव बनानें में सफल हुए। ऐसी बातें आई थी कि हुड्डा गुट मायावती से गठबंधन के लिए सम्पर्क साध रहा है लेकिन दुष्यंत ने इसी बीच मायावती से गठबंधन करके हुड्डा को नए पार्टी बनाने की योजना को विराम लगाने को  विवश कर दिया।

इन परिस्थितियों ने कांग्रेस को विकल्प के रूप में उभारा 

हुड्डा की रोहतक के अनाज मंडी में बुलाई गई रैली से पूर्व तक ऐसी बातें मीडिया और सोशल मीडिया पर तैरती रहीं कि कांग्रेस हाई कमांड  हुड्डा को हरियाणा कांग्रेस की कमान सौंपेगा लेकिन कांग्रेस खेमें में काफी मंथन चला हुड्डा को उम्मीदों पर उम्मीदे दी जाती  रहीं। ये रैली बिना किसी धमाके के समाप्त हो गई। हुड्डा ने न किसी दल की घोषणा की और न ही उन्हें कांग्रेस पार्टी ने अध्यक्ष पद दिया दिया तो बस आश्वासन। इस रैली में हुड्डा ने कांग्रेस पार्टी की बुराई भी किया और नया दल भी नहीं बनाया । रैली के बाद हुड्डा ने 35 सदस्यीय समिति बनाकर कांग्रेस पार्टी पर दबाव बनाने का मात्र अंतिम रास्ता चुना। 

हुड्डा अपने समर्थकों के साथ अपने पंत मार्ग निवास पर डेरा डाले रहे। चुनाव के मुहाने पर खड़े जिस कांग्रेस पार्टी के नेताओं को जहाँ जमीन पर दिखना चाहिए था वो दिल्ली में हुड्डा जी के दरबार की शोभा बढ़ा रहे थे इस समय तंवर गुट हरियाणा की जमीन पर सक्रिय था। यह कांग्रेस और हुड्डा गुट के लिए बड़ा ही असमंजस का दौर था लेकिन भूपिंदर सिंह हुड्डा और शैलजा  की ताजपोशी के पहले जहां कांग्रेस में आंतरिक विरोध अपने चरम पर था वहीं  हुड्डा की ताजपोशी के बाद बीजेपी खेमें में आतंरिक विरोध के सुर पनपते दिखे। अहिरवार के सबसे लोकप्रिय नेता और हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री राव वीरेंद्र सिंह के बेटे राव इन्द्रजीत सिंह और सर छोटू राम की विरासत के वारिस और बीजेपी के सबसे ज्यादे जनाधार वाले नेता चौधरी वीरेंद्र सिंह के द्वारा बीजेपी से बगावत की खबरें आईं। इसी क्रम में कांग्रेस पार्टी में अशोक अरोड़ा, गगंजोत संधू और पूर्व सांसद जेपी की कांग्रेस में ज्वाइनिग से काफी मजबूत बिकल्प के रूप में देखा जाने लगा।

बदलती परिस्थितियों में कैसे हुए बदलाव

अगर एक महीने पहले की बात की जाए तो बीजेपी 75 क्या 80 सीटों पर जीतती नजर आ रही थी। लेकिन चुनाव खत्म होते-होते बीजेपी 40 सीटों पर सिमट गई। ऐसा बीजेपी द्वारा की गई टिकट वितरण में गलतियों, खट्टर के विवादित बयानों और अपने प्रदेश सरकार की उपलब्धियों के वजाय 370 पर फोकस करने व बिपक्षी दलों द्वारा बीजेपी को मुलभुत मुद्दों पर बीजेपी को हर समय घेरने सबसे बढ़कर मूलभुत मुद्दों के आधार पर कांग्रेस व जेजेपी के द्वारा लाये गए घोषणापत्रों से माहौल काफी कुछ बदला चुका है। 4 सितम्बर को कांग्रेस संगठन में किये गए बदलाव और इसके बाद ही मायावती द्वारा जेपेपी से समर्थन वापस लेने और इसी के तुरंत बाद अशोक अरोड़ा, गंगनजोत सिंह संधू और जेपी के कांग्रेस ज्वाइन करने के बाद ही पूरी लड़ाई कांग्रेस व बीजेपी के बीच केन्द्रित हो गई थी।

जेजेपी कैसे बनी तीसरा राजनीतिक विकल्प

बसपा से गठबंधन टूटने के बाद बैकफुट पर जा चुकी जेजेपी ने बीजेपी व कांग्रेस के द्वारा की गई हर गलतियों को अपने पक्ष में जोड़ा। परिणाम स्वरूप बीजेपी व कांग्रेस के टिकट वितरण से नाराज लोगों को जोड़कर जेजेपी ने काफ़ी अच्छी रणनीतिक बढ़त हासिल की। कांग्रेस के अशोक तंवर के जाने से उतना ज्यादा नुकसान नहीं हुआ। अगर 10 दिन पहले दुष्यंत के साथ मंच साझा करते या फिर केवल दुष्यंत के साथ जाते तो कांग्रेस को नुकसान हो जाता। अशोक तंवर फैक्टर से मजबूत हो रही जेजेपी के खिलाफ हुड्डा ने वोटकटुवों लोगों से बचने की जो बात कही वो काफी कारगर रहीं। अशोक तंवर समर्थक पार्टी से नाराज थे वो दुष्यंत के साथ हो भी लेते, इससे हर विधान सभा सीटों पर कांग्रेस को औसतन 2000 वोटों का नुकसान हो जाता पर सुबह दुष्यंत के साथ शाम को अभय चौटाला को समर्थन फिर अगली सुबह सिरसा सीट पर हलोपा व ऐलनाबाद सीट पर अभय को समर्थन देकर सबको संशय में डाल दिया। उसके बाद दुष्यंत के साथ भी नहीं दिखे।

कांग्रेस फायदे में क्यूँ है?

- बिना चेहरे का चुनाव लड़ी। (चेहरा अगर हुड़्डा होते तो नॉन जाट न आते दलित होता तो जाट जजपा में चले जाते)

- संगठन में देर से पर दुरुस्त बदलाव

- जे पी, अशोक अरोड़ा, गगनजोत संधू... आदि नेताओं का  मुख्य समय पर कांग्रेस से जुड़ना।

- कांग्रेस की तरफ से जाट लैंड में चौधर लाने की बात प्रभावी रही।

कांग्रेस के प्रदर्शन में बेहतर करने की गुंजाइश

कांग्रेस ने यह चुनाव भावनात्मक अपील के आधार पर लड़ा है। संगठन विहीन कांग्रेस का पूरा चुनाव प्रत्याशियों के सहारे लड़ा गया है इससे पार्टी थोड़ी कमजोर रह गई। जल्दबाजी में ही सही संगठन बन जाते और हर जातियों को प्रतिनिधित्व दिया जाता तो और अच्छे परिणाम होते। पूरे प्रदेश में ब्लॉक अध्यक्ष, जिलध्यक्ष... बना लिए जाते और बोला जाता ये कमेटियां अस्थायी हैं तो ज्यादा बगावत भी नहीं होती और काम भी निकल जाता।

कैप्टन अमरिंदर सिंह की तर्ज पर हुड्डा को सीएम फेस के रूप में घोषित करने की मांग पुरानी थी पर ऐसा नहीं होना कांग्रेस के पक्ष में गया। इसका कारण यह था कि 2016 में जाट आन्दोलन के बाद की परिस्थितियों में हुड्डा की छवि एक जाट नेता के रूप में उभरी थी। अगर उन्हें सीएम फेस बनाकर चुनाव लड़ा जाता तो नान जाट वोट आनें की सम्भावनाएं समाप्त हो जातीं। इसका एक महत्वपूर्ण उदाहरण विगत लोकसभा चुनाव में नॉन जाट (यादव बाहुल्य) कोसली विधान सभा में कांग्रेस की बुरी हार में निहित है।

वीरेंद्र सहवाग को चुनाव के अंतिम दिन प्रचार में लाया गया। अगर इन्हें चुनाव की शुरुआत से प्रचार में लगाया जाता तो काफी फायदा होता। इनेलो के टूटने के समय कांग्रेस ने उसके नेताओं को जोड़ने की दिशा में कोई सक्रियता नहीं दिखाई।

इस चुनाव को हुड़्डा का अंतिम चुनाव घोषित किया जाता या 1 साल पहले उन्हें पार्टी की कमान दी जाती तो दुष्यन्त के पक्ष में जाने वाला सिरसा, हिसार, जींद और फतेहाबाद का जाट वोट बड़ा हिस्सा कांग्रेस को आता।

चुनाव प्रचार की विशेष बातें: नफा-नुकसान  

हरियाणा फौजियों और खिलाड़ियों का कारखाना कहा जाता है। सबसे ज्यादा मेडल दिलाने की बात हो या फिर देश की सुरक्षा में योगदान की बात हो हरियाणा इस मामले में अव्वल रहा है। इसीलिए बीजेपी ने लोगों को 370 को पूरी तरह से भुनाने की कोशिश की। बाद में कांग्रस के संयमित प्रयासों से काफ़ी अच्छा माहौल बना। कांग्रेस पार्टी व जेजेपी के द्वारा क्षेत्रीय/प्रादेशिक  मुद्दों को अहमियत दी गई लेकिन बीजेपी के द्वारा राष्ट्रीय मुद्दों को महत्व दिया गया। 

हरियाणा विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने पूरी ताकत झोंकी

- 40 स्टार प्रचारकों ने 19 दिनों में 285 सभाएं की
- नरेंद्र मोदी- 7 रैलियां
- अमित शाह- 5 रैलियां
- जेपी नड्डा- 3 सभाएं
- मनोहर लाल- 77 सभाएं
- राजनाथ सिंह- 9 सभाएं
- नितिन गडकरी- 1 सभा
- हेमा मालिनी- 9 सभाएं
- सन्नी देओल- 4 सभाएं

बीजेपी की तरफ से अन्य राज्यों के नेताओं को प्रचार में उतारने की रणनीति अच्छी रही। दूसरी तरफ कांग्रेस में ऐसा नहीं दिखा। सिर्फ राहुल गाँधी की रैलियां ही एकमात्र आधार बनकर दिखी। कांग्रेस चाहती तो सचिन पायलट को गुज्जर बाहुल्य कैथल, दलित बाहुल्य जगहों पर पी एल पुनिया, बनिया बाहुल्य इलाकों में श्री प्रकाश जायसवाल और ब्राह्मण बाहुल्य इलाकों में बगल के राज्य के मनीष तिवारी की सेवाएं ले सकती थी।

खट्टर के जनादेश यात्रा के समय पर अगर कांग्रेस जमीन पर महिलाओं की "सुरक्षित महिला" सम्मेलन करती। युवाओं की सभाएं होती, किसान सम्मलेन और बुजुर्गो के साथ आशीर्वाद सभा होता तो पूरे हरियाणा के हर समाज कांग्रेस से जुड़ जाते। रैलियों में भीड़ जुटाने के मामले में कांग्रेस व जेजेपी काफ़ी सफल रहीं। ड्रग्स के मुद्दों पर कांग्रेस के स्टार प्रचारकों ने बहुत कम बोला है। अगर इस मुद्दे को अपने मुख्य संदेश में रखा जाता तो काफ़ी फायदा होता।

बीजेपी कहाँ और कैसे पिछड़ी?

बीजेपी की जैसी दमदार शुरुआत रही थी वैसा अंत तक बनाए नहीं कर पाई। खट्टर के विवादित बयानों (खोदा पहाड़ निकली चुहिया वो भी मरी हुई) और मंत्रियों और विधायकों के टिकट काटने और टिकट वितरण में हुई गलतियों की वजह से बीजेपी नुकसान में रहेगी। बहुत से मंत्रियों और विधायकों के टिकट काटे गए और उनके स्थान पर जिन्हें टिकट दिया गया वो पहले से चुनाव की तैयारी में भी नहीं लगे थे। नतीजतन जल्दबाजी में चुनाव लड़ने का भी नुकसान हुआ है।

इसके अलावा शिरोमणि अकाली दल के साथ बीजेपी का गठबंधन न होने और छोटे बादल (सुखवीर) के प्रचार में उतरने और 'बीजेपी का हवा नहीं है जैसे बयानों' से सिरसा, अम्बाला, यमुनानगर, कुरुक्षेत्र जैसे सिख बाहुल्य इलाके में बीजेपी को लोकसभा चुनावों के मुकाबले कम वोट और सीटें मिली। इन जगहों पर कांग्रेस रणजीत सिंह चित्रा सरवारा को टिकट देती और सिख समाज के स्टार प्रचारकों लाती तो काफ़ी फायदा होता। वैसे रणजीत सिंह निर्दली उम्मीदवार के रूप में चुनाव जीत गए हैं।

हरियाणा प्रदेश की राजनीति हर पल बदलती रही। बीजेपी व कांग्रेस के टिकट वितरण से नाराज लोगों को जेजेपी द्वारा अपने खेमे में लेने से ढ़ेर सारी जगहों पर लड़ाई त्रिकोणीय और बहुकोणीय हो गई। निश्चित तौर पर बीजेपी को इसका अहसास हो गया। नतीजतन मोदी जी की रैलियों की संख्या बढ़ाई गई। कई जगहों (टोहाना और नारनौद ) पर अमित शाह रैली करने खुद नही गए, वहीं कांग्रेस की तरफ से संपत सिंह, चित्रा सर्वहारा, निर्मल सिंह, रणजीत सिंह तथा अशोक तंवर जैसे नेताओं के पार्टी से बिमुख होने से कांग्रेस के पक्ष में आये लहर को थोडा-बहुत नुकसान पहुचाया। 

चुनाव प्रचार समाप्त होते होते बीजेपी की भी सासें फूल गई थी। अब बीजेपी का 75 पार का नारा हकीकत के ग्राउंड पर 40 ही रह गई है। विकल्प के रूप में तेजी से उभरती कांग्रेस काफी उतार-चढ़ाव से जूझते हुए सरकार बनाने के आकड़े से दूर है। कांग्रेस में ऐसे नए लोग चुनाव जीते जिनके जीतने की उम्मीद कम थी पर ऐसे भी लोग हैं जिनके (कैथल से रणदीप सुरजेवाला, कलायत से जेपी, थानेसर से अशोक अरोड़ा, मेहम से आनंद सिंह डांगी, पलवल से करण सिंह दलाल, फरीदाबाद से ललित नागर, गन्नौर से कुलदीप शर्मा, बाडडा से रणवीर महेन्द्रा) हारने की उम्मीद कम थी।

नतीजे तो सत्ता की चाबी वालों और निर्दलियों दोनों के के हाथ में थमाई थी। बीजेपी के मंत्रियों (कैप्टन अभिमन्यु, ओ पी धनकर, कृष्णा बेदी, शिक्षा मंत्री रामबिलास शर्मा, परिवहन मंत्री कृष्‍णलाल पंवार, कृषि मंत्री ओमप्रकाश धनखड़ और महिला विकास मंत्री कविता जैन) और प्रदेश अध्यक्ष सुभाष बराला समेत कई दिग्‍गज हार गए हैं। अगर ये 7 मंत्री चुनाव जीतते तो निश्चित तौर पर बीजेपी पूर्ण बहुमत में आ जाती। लेकिन एक बात चुनाव नतीजों से स्पष्ट हो गई है हरियाणा चुनाव में न ही तो बीजेपी जीती न कांग्रेस हारी है जीती 36 बिरादरी है।

 

Web Title: Complete Ananlysis of Haryana Assembly election Result in Hindi, Poll strategy, alliance and leadership

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