ब्लॉग: लोकतांत्रिक गणराज्य के 75वें वर्ष का जश्न
By फिरदौस मिर्जा | Published: January 26, 2024 11:55 AM2024-01-26T11:55:37+5:302024-01-26T12:01:15+5:30
भारत के संविधान के साथ जन्मे कई संविधान जैसे बर्मा(म्यांमार), पाकिस्तान, श्रीलंका अपने निर्माण के प्रथम पांच वर्ष भी नहीं देख सके, वहीं गंभीर चुनौतियों का सामना करते हुए भी हमारा संविधान गर्व से 75वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है।
26 जनवरी को हमारा प्रिय संविधान अपने 75वें वर्ष (अमृत काल) में प्रवेश कर रहा है। हमारे संविधान के साथ जन्मे कई संविधान जैसे बर्मा(म्यांमार), पाकिस्तान, श्रीलंका अपने निर्माण के प्रथम पांच वर्ष भी नहीं देख सके और गंभीर चुनौतियों का सामना करते हुए भी हमारा संविधान गर्व से 75वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है। शुरुआत में कई लोगों ने इसके प्रदर्शन पर संदेह जताया था लेकिन इसने असाधारण रूप से अच्छा प्रदर्शन किया है।
प्रस्तावना में संविधान खुद को ‘लोकतांत्रिक गणराज्य’ के रूप में परिभाषित करता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में कानून बहुमत द्वारा बनाए जाते हैं लेकिन गणतंत्र में जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा कानून बनाए जाते हैं। लोकतंत्र में बहुमत को मौजूदा अधिकारों की अवहेलना करने का अधिकार है लेकिन गणतंत्र में संविधान अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा करता है। लोकतंत्र में मुख्य ध्यान लोगों की सामान्य इच्छा पर होता है लेकिन गणतंत्र में मुख्य ध्यान संवैधानिक प्रावधानों पर होता है।
संविधान निर्माता डॉ. बाबासाहब आंबेडकर इन भिन्नताओं से अवगत थे और ‘लोकतंत्र’ शब्द के खतरे को भांपते हुए, बहुत समझदारी से इसे ‘लोकतांत्रिक गणराज्य’ बना दिया, जिससे संविधान शासन की आत्मा बन गया, लोगों को शक्ति दी गई लेकिन संविधान द्वारा नियंत्रित किया गया ताकि भारत कभी भी अधिनायकवादी या बहुसंख्यकवादी देश न बने। बहुमत इस पर शासन करने के लिए प्रतिनिधियों का चुनाव तो कर सकता है, लेकिन कानून बहुसंख्यकों की मर्जी से नहीं बल्कि संविधान द्वारा निर्धारित सीमा के भीतर बनाए जा सकते हैं और मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं किया जा सकता।
राष्ट्रपति न तो सम्राट बन सकता है और न ही प्रधानमंत्री तानाशाह, और यही हमारे संविधान यानी लोकतांत्रिक गणराज्य की खूबसूरती है। संविधान को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा है, इसमें 104 संशोधन करने पड़े. फरवरी 2000 में सरकार ने संविधान के कामकाज की समीक्षा करने और उपयुक्त सिफारिशें करने के लिए पूर्व मुख्य न्यायाधीश वेंकटचलैया की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय आयोग नियुक्त किया।
सभी मुद्दों पर विचार करने के बाद आयोग ने 31 मार्च, 2002 को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की जिसमें कहा गया कि संविधान ने असाधारण रूप से अच्छा प्रदर्शन किया है लेकिन सरकारें इसकी भावना पर खरा उतरने में विफल रही हैं और एससी, एसटी, अल्पसंख्यकों और अन्य पिछड़ा वर्ग की बेहतरी के लिए और अधिक काम करने की जरूरत है। इसने राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता और संसद व अन्य विधानमंडलों की जवाबदेही की सिफारिश की।
पिछले कुछ वर्षों से यह देखा जा रहा है कि सरकारें संविधान के साथ गणतांत्रिक भावना से व्यवहार नहीं कर रही हैं और लोकतांत्रिक तरीकों की ओर अधिक झुक रही हैं। देश बहुसंख्यकवादी बनता जा रहा है और बहुसंख्यकों को खुश करने के लिए अल्पसंख्यक अधिकारों को कुचला जा रहा है।
हमें याद रखना चाहिए कि लोकतंत्र के महज बहुसंख्यकवाद की तुलना में व्यापक नैतिक निहितार्थ हैं। मात्र बहुसंख्यकवादी लोकतंत्र के देर-सबेर निर्वाचित निरंकुशता में बदल जाने की संभावना होती है। बहुलवाद लोकतंत्र की आत्मा है। ऐसा कहा जाता है कि एक सच्चा लोकतंत्र निश्चित रूप से वह है जिसमें बहुसंख्यकों की शक्ति का अस्तित्व अल्पसंख्यकों के अधिकारों के सम्मान की शर्त पर हो।
संविधान की प्रस्तावना उसके सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक दर्शन की कुंजी है। यह लोगों के बीच सद्भाव को सुनिश्चित करता है, न्याय, स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे पर आधारित एक समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य का वादा करता है। लोकतंत्र, कानून का शासन, संवैधानिकता और अल्पसंख्यक अधिकारों का सम्मान बहुलवादी समाज के आवश्यक सामूहिक अन्योन्याश्रित, अदृश्य तत्व हैं, जो मिलकर व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता व अखंडता को सुनिश्चित करते हैं।
संविधान एक सामाजिक क्रांति का वादा करता है, और इसकी प्राप्ति के लिए लोकतांत्रिक साधन उपलब्ध कराता है। डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने कहा था, ‘‘आपको केवल राजनीतिक लोकतंत्र से संतुष्ट नहीं होना चाहिए। हमें अपने राजनीतिक लोकतंत्र को एक सामाजिक लोकतंत्र बनाना चाहिए। राजनीतिक लोकतंत्र तब तक टिक नहीं सकता जब तक कि इसके मूल में सामाजिक लोकतंत्र न हो।"
हाल ही में हुए एक सर्वे में बताया गया है कि केवल 1 प्रतिशत अति अमीर भारतीय ही देश की 41 प्रतिशत संपत्ति के मालिक हैं। सामाजिक लोकतंत्र के लिए यह वास्तविक खतरा है क्योंकि यह आर्थिक लोकतंत्र में परिवर्तित नहीं हो रहा है। अमेरिका, जर्मनी, ब्रिटेन, फ्रांस आदि विकसित अर्थव्यवस्थाओं में भी संपत्ति के विभाजन में इतनी असमानता नहीं है। आय में असमानताओं को दूर किए बिना और कानून के शासन के माध्यम से समाज की असमानताओं को खत्म करने का प्रयास किए बिना न्यायसंगत सामाजिक व्यवस्था स्थापित नहीं की जा सकती।
सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन लाने के लिए आवश्यक है कि भौतिक संसाधनों या उनके स्वामित्व और नियंत्रण को इस प्रकार वितरित किया जाए कि इससे आम लोगों की भलाई हो सके। एकता और सहयोग से हम जो हासिल करते हैं, वही टिका रह सकता है। झगड़े, मनमानी और धमकियों से हम लंबे समय तक टिक नहीं पाएंगे, इससे केवल आपसी दुश्मनी ही बढ़ेगी। एक राष्ट्र एक संविधान बना सकता है, लेकिन एक संविधान एक राष्ट्र नहीं बना सकता।
एक संविधान अपने नियमों और भावनाओं में शानदार होते हुए भी स्वयं क्रियान्वित होने वाला दस्तावेज नहीं है। इसे लागू करने के लिए मनुष्यों की आवश्यकता होती है। लोगों की राजनीतिक परंपराएं और संवैधानिकता की भावना ही संविधान को कार्यान्वित करती है। इसका सार इसके कार्यान्वयन में है। आइए हम संविधान के सिद्धांतों का पालन करते हुए उसकी रक्षा करने का संकल्प लें।