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राजनीति को बदल सकती है जातियों की जनगणना, अभय कुमार दुबे का ब्लॉग

By अभय कुमार दुबे | Updated: August 17, 2021 14:05 IST

केंद्र सरकार ने जब से संघ के पूर्व सरकार्यवाह भैयाजी जोशी के मुख से जनगणना का विरोध सुना है, तभी से ही वह चुप्पी साधे हुए है.

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ठळक मुद्देगृह मंत्री ने 2018 में केवल यह क्यों कहा कि इस बार ओबीसी जातियों की ही गिनती होगी? आरक्षण को 27 फीसदी से बढ़ाकर अपनी संख्या के बराबर लाने का दावा ज्यादा मजबूती से कर सकेंगे.आखिर दलितों और आदिवासियों के लिए आरक्षण का प्रतिशत उनकी आबादी के हिसाब से ही तय किया गया है.

भाजपा की सरकार के तहत 2018 में गृह मंत्रलय में हुई एक बैठक के बाद तत्कालीन गृह मंत्री ने कहा था कि 2021 में होने वाली जनगणना में अन्य पिछड़े वर्ग की श्रेणी में आने वाली जातियों को गिना जाएगा.

 

अनुसूचित जातियों और जनजातियों की जातिवार गिनती पहले से ही होती है. अर्थात, अगर उस निर्णय के तहत जातिगत जनगणना हो तो भारतीय समाज के सत्तर से अस्सी फीसदी हिस्से की जातिवार संख्यात्मक तस्वीर सामने आ जाएगी. लेकिन सरकार ने जब से संघ के पूर्व सरकार्यवाह भैयाजी जोशी के मुख से जनगणना का विरोध सुना है, तभी से ही वह चुप्पी साधे हुए है.

जो भी हो, यह सवाल तो उठता ही है कि गृह मंत्री ने 2018 में केवल यह क्यों कहा कि इस बार ओबीसी जातियों की ही गिनती होगी? उन्होंने द्विज जातियों (ब्राह्मण, ठाकुर, वैश्य) और कायस्थों-भूमिहारों जैसी ऊंची जातियों की गिनती करने के बारे में क्यों नहीं कहा?

समाजशास्त्री सतीश देशपांडे ने इस संबंध में एक विचारणीय दलील दी है कि आज भी इस देश की ऊंची जातियां स्वयं को दृश्यमान करने या न करने का अधिकार अपने पास रखना चाहती हैं. यह तर्क सुनने में रैडिकल लगता है, लेकिन जातिवार जनगणना न कराने के आग्रह के पीछे कुछ और भी कारण हैं. दरअसल, इसके परिणाम कुछ ऐसे निकल सकते हैं जो इस समय न तो इसके समर्थकों की समझ में आ रहे हैं, और न ही इसके विरोधियों के. मुख्य तौर पर ओबीसी जातियों के नुमाइंदे जातिगत जनगणना के लिए दबाव डाल रहे हैं.

उन्हें लगता है कि इसके जरिये वे अपने आरक्षण को 27 फीसदी से बढ़ाकर अपनी संख्या के बराबर लाने का दावा ज्यादा मजबूती से कर सकेंगे. आखिर दलितों और आदिवासियों के लिए आरक्षण का प्रतिशत उनकी आबादी के हिसाब से ही तय किया गया है. मंडल कमीशन की रपट भी इस मांग को प्रोत्साहित करती है, क्योंकि पिछड़ों के लिए 27 फीसदी आरक्षण की सिफारिश करने के साथ-साथ इस रपट में एक जगह यह भी लिखा गया है कि उन्हें आरक्षण तो आबादी के मुताबिक ही मिलना उचित होगा.

वैसे भी आज की तारीख में ओबीसी नेता यह नहीं समझ पा रहे हैं कि जैसे ही ओबीसी जातियों की अलग-अलग संख्या की प्रामाणिक जानकारी मिलेगी, वैसे ही इस दायरे की प्रभुत्वशाली जातियों (यादव, लोधी, शाक्य और कुर्मी) को उनकी संख्या से अधिक मिल रहे आरक्षण के लाभों पर सवालिया निशान लग जाएगा.

अंदेशा यह है कि जो गोलबंदी वे ऊंची जातियों के खिलाफ करना चाहते हैं, वह ओबीसी दायरे में अतिपिछड़ों द्वारा उन्हीं के खिलाफ होने लगेगी. ओबीसी जातियों में एकता के बजाय फूट पड़ जाएगी. नतीजतन, सामाजिक न्याय की राजनीति खात्मे की तरफ बढ़ने लगेगी. जातिगत जनगणना के विरोधियों को लगता है कि इससे जाति-संघर्ष तीखा होगा. हिंदू और मुस्लिम समाज के भीतर गृहयुद्ध छिड़ सकता है.

मुमकिन है कि यह अंदेशा केवल कपोल-कल्पना ही साबित हो. फिर भी, भले ही जातिसंघर्ष न हो, लेकिन जातिगत जनगणना राजनीतिक गोलबंदी के ढांचे को रैडिकली बदल सकती है. राजनीतिक मांगों का विन्यास और पार्टियों के घोषणापत्र हो सकता है कि जनगणना के बाद पहले जैसे न रह जाएं. चुनाव में टिकटों के बंटवारे के मानक नये सिरे से तैयार करने पड़ सकते हैं.

पार्टियों में पदों का बंटवारा, सरकारों में मंत्रिपदों का वितरण-यानी हर चीज पहले जैसी नहीं रह जाएगी. कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि जातिगत जनगणना के प्रभाव गहन और बुनियादी होंगे-उन अर्थो में नहीं जिनमें लोग सोच रहे हैं, बल्कि उन अर्थो में जिनमें अभी सोचना तकरीबन नामुमकिन है.

कुछ समीक्षकों ने जातिवार जनगणना को संसद में पारित किए गए ओबीसी आरक्षण से संबंधित संशोधन विधेयक से भी जोड़ा है. दलील दी है कि अब जातिगत जनगणना पहले से भी ज्यादा जरूरी हो गई है. क्या वास्तव में दोनों के बीच ऐसा कोई संबंध है? यह संविधान संशोधन राज्यों को केंद्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग से पूछे बिना पिछड़ी जातियों की अनुसूचियां बनाने का अधिकार देता है.

इसका जातिवार जनगणना से कोई सीधा संबंध नहीं है. कोई जाति गिनी जाए या नहीं, इससे उसे आरक्षण मिलने की पात्रता प्रभावित नहीं होती. हां, यह जरूर है कि जातिवार जनगणना होने पर सामाजिक न्याय की राजनीति आरक्षण की दावेदारी सरकारी क्षेत्र से परे जाते हुए निजी क्षेत्र तक पहुंचा सकती है.

ऐसा एक प्रयास मध्य प्रदेश में कांग्रेस सरकार के तहत हुए दलित सम्मेलन के जरिये हो चुका है, जब ‘डाइवर्सटिी’ के अमेरिकी सिद्धांत की तर्ज पर भारत में भी दलित उद्यमशीलता को बढ़ावा देने की मांग उठाई गई थी. निजी क्षेत्र ऐसी हर मांग को शंका की निगाह से देखता है, और वह तब तक इसे मानने को तैयार नहीं हो सकता जब तक संसद कानून बनाकर उसे मजबूर न कर दे.

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