वेदप्रताप वैदिक का ब्लॉग : ब्रिक्स की प्रभावहीनता और भारत की भूमिका
By वेद प्रताप वैदिक | Published: September 11, 2021 04:37 PM2021-09-11T16:37:10+5:302021-09-11T16:50:21+5:30
ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका. इसकी 13 वीं बैठक का अध्यक्ष इस बार भारत है लेकिन ब्रिक्स की इस बैठक में अफगानिस्तान पर वैसी ही लीपा-पोती हुई, जैसी कि सुरक्षा परिषद में हुई थी.
‘ब्रिक्स’ नामक अंतरराष्ट्रीय संस्था में पांच देश हैं- ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका. इसकी 13 वीं बैठक का अध्यक्ष इस बार भारत है लेकिन ब्रिक्स की इस बैठक में अफगानिस्तान पर वैसी ही लीपा-पोती हुई, जैसी कि सुरक्षा परिषद में हुई थी.
सुरक्षा परिषद की अध्यक्षता भी भारत ने ही की है. भारत चाहता तो इन दोनों अत्यंत महत्वपूर्ण संगठनों में वह ऐसी भूमिका अदा कर सकता था कि दुनिया के सारे देश मान जाते कि भारत दक्षिण एशिया ही नहीं, एशिया की महाशक्ति है. लेकिन ऐसा हो नहीं पाया. इस बैठक में रूसी नेता व्लादिमीर पुतिन ने भाग लिया तो चीन के नेता शी जिनपिंग ने भी भाग लिया. द. अफ्रीका और ब्राजील के नेता भी शामिल हुए लेकिन रूस और चीन के राष्ट्रहित अफगानिस्तान से सीधे जुड़े हुए हैं. गलवान घाटी की मुठभेड़ के बाद मोदी और शी की यह सीधी मुलाकात थी लेकिन इस संवाद में से न तो भारत-चीन तनाव को घटाने की कोई तदबीर निकली और न ही अफगान-संकट को हल करने का कोई पक्का रास्ता निकला .
पांचों नेताओं के संवाद के बाद जो संयुक्त वक्तव्य जारी हुआ, उसमें वही घिसी-पिटी बात कही गई, जो सुरक्षा परिषद के प्रस्तावों में कही गई थी. यानी अफगानिस्तान के लोग मिल-जुल कर संवाद करें और अपनी जमीन का इस्तेमाल सीमापार के देशों में आतंकवाद फैलाने के लिए न करें. यह सब तो तालिबान नेता पिछले दो-तीन महीनों में खुद ही कई बार कह चुके हैं. क्या यही कहने के लिए ये पांच बड़े राष्ट्रों के नेता ब्रिक्स सम्मेलन में जुटे थे? जहां तक चीन और रूस का सवाल है, वे तालिबान से गहन संपर्क में हैं. चीन ने तो करोड़ों रु. की मदद तुरंत काबुल भी भेज दी है. पाकिस्तान और चीन अब अफगान सरकार से अपनी स्वार्थ-सिद्धि करवाएंगे.
भारत ब्रिक्स का अध्यक्ष था तो उसने यह प्रस्ताव क्यों नहीं रखा कि अगले एक साल तक अफगानिस्तान की अर्थव्यवस्था की जिम्मेदारी वह लेता है और उसकी शांति-सेना काबुल में रहकर साल भर बाद निष्पक्ष चुनाव के द्वारा लोकप्रिय सरकार बनवा देगी? भारत ने दूसरी बार यह अवसर खो दिया. वह दोहा-वार्ता में भी शामिल हुआ लेकिन अमेरिका के सहायक की तरह! वह तालिबान से सीधी बात करने से क्यों डरता है? यदि ये तालिबान पथभ्रष्ट हो गए और अलकायदा और खुरासान-गिरोह के मार्ग पर चल पड़े तो उसका सबसे ज्यादा नुकसान भारत को ही होगा. अफगानिस्तान की हालत तालिबान के पिछले शासन जैसी ही खराब हो जाएगी. वहां हिंसा का तांडव तो होगा ही, परदेसियों की दोहरी गुलामी भी शुरू हो जाएगी.