भारतीय लोकतंत्र अब परिपक्व हो रहा है। संसार में थोड़ी-थोड़ी धाक भी जमने लगी है। नई पीढ़ी ने अपनी प्रतिभा के बूते कमोबेश सभी देशों में अपने हुनर, कौशल और ज्ञान से अलग पहचान बनाई है तो दूसरी तरफ बढ़ती आबादी के कारण भी हिंदुस्तान को बड़े तथा ताकतवर मुल्कों की श्रेणी में रखा जाने लगा है।
एक औसत भारतीय निश्चित रूप से इस पर गर्व कर सकता है। सदियों तक गुलामी की जंजीरों में जकड़े रहने के बाद जो खुशी आजादी की मिली थी, अब वैसी ही प्रसन्नता आम भारतीय महसूस कर सकता है। मौजूदा हालात उसे इस बात की इजाजत देते हैं कि बिखरते समाज और चटकते रिश्तों के इस दौर में कुछ तो है, जिसे हमने बचा रखा है।
परदेस में मिलने वाली इज्जत हमें कंधे चौड़े रखने का अवसर देती है लेकिन बहुत कुछ ऐसा भी है, जो बीते दशकों में हमने खोया है। इसका अहसास कोई विदेशी नहीं कर सकता और एकदम नई नस्ल का कोई नुमाइंदा भी नहीं कर सकता। इसकी वजह यह कि उसने उस दौर को नहीं जिया है, जिस भारतीय समाज की साख समूची दुनिया में रही है।
स्वतंत्रता के बाद भारत के अस्तित्व को लेकर बड़ी शंकाएं जताई गई थीं। अंतरराष्ट्रीय लेखकों, इतिहासकारों, कूटनीति के जानकारों और राजनयिकों तक ने भारत में लोकतंत्र के भविष्य पर अनेक सवाल उठाए थे। गोरे विद्वान कहते थे कि आजाद होने के बाद भारत धीरे-धीरे बिखर जाएगा। वे मानते थे कि सदियों तक गुलामी की जंजीरों से जकड़ा रहा देश अब अपने पैरों पर खड़े होने की ताकत खो चुका है। थोड़े ही समय बाद लोकतंत्र का भाव कहीं खो जाएगा और यह देश बिखर जाएगा।
ऐसी सोच रखने वालों में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल भी थे। वे कहते थे कि भारत के राजनेताओं को सत्ता सौंपते हुए हम यह स्पष्ट जानते हैं कि यह तिनकों के पुतले हैं। कुछ वर्षों में ही इनका नामोनिशान तक नहीं रहेगा। जाने-माने अमेरिकी पत्रकार सेलिग हैरिसन के एक चर्चित लेख में कहा गया था कि देखने वाली बात ये है कि आजाद भारत जिंदा भी रह पाएगा या नहीं? मैक्सवेल ने कहा था कि भारत को एक लोकतांत्रिक ढांचे के रूप में विकसित करने का प्रयोग नाकाम हो गया है। अंग्रेज विद्वान जॉन स्ट्रेच ने लिखा था कि न तो भारत नाम का कोई देश पहले था और न कभी भविष्य में होगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
भारत इन सारी धारणाओं को धता बताते हुए शनैः शनैः आगे बढ़ता गया है। चुनाव दर चुनाव यह धारणा और पुख्ता होती गई है कि हमारी मजबूत संवैधानिक लोकतांत्रिक नींव के बिना यह संभव नहीं था। कितने लोगों को याद होगा कि स्वतंत्रता के पांच साल बाद इस देश में चुनाव हुए थे। लेकिन उन पांच सालों में हिंदुस्तान की एक ऐसी सरकार काम कर रही थी, जो सिर्फ कांग्रेसी नहीं थी।
उसी सरकार ने दरअसल आज के भारत की नींव डाली थी। भले ही कांग्रेस के जवाहर लाल नेहरू प्रधानमंत्री थे लेकिन उनके बारह मंत्री मजहब और दलीय विचारधारा से ऊपर उठकर काम कर रहे थे। उसमें पांच प्रतिनिधि ऐसे थे, जिनका कांग्रेस और कांग्रेस की विचारधारा से कोई लेना-देना नहीं था।
वो सिर्फ हिंदुस्तान की तरक्की के लिए नेहरू के कंधे से कंधा मिलाकर काम करना चाहते थे। ऐसी उदारता और सहिष्णुता बेमिसाल है। इनमें से एक थे संविधान के शिल्पी डॉक्टर बाबासाहब आंबेडकर। उनके अलावा हिंदू महासभा के श्यामाप्रसाद मुखर्जी और पंथिक पार्टी के बलदेव सिंह भी नेहरू के पहले मंत्रिमंडल में शामिल थे। यह सभी प्रधानमंत्री के मुखर आलोचक थे लेकिन राष्ट्र निर्माण में उन्होंने तमाम मतभेदों को भूलकर काम किया था।
उसी अवधि में देश की इस पहली राष्ट्रीय सरकार ने लोकतंत्र की प्रतीक संस्थाओं का विराट जाल बिछाने का महत्वपूर्ण काम किया था। यह देखकर वास्तव में आश्चर्य होता है कि आज भारत को महाशक्ति में बदलने वाली वही संस्थाएं हैं, जो आजादी के बाद बनाई गई थीं। प्रधानमंत्री नेहरू मानते थे कि भारत जैसे धार्मिक और परंपरावादी देश में सबसे बड़ी चुनौती उसे आधुनिक बनाने की है। इसके लिए प्रजातंत्र की जड़ों को नए सिरे से मजबूत करना जरूरी था। आज विश्व में भारतीय लोकतंत्र की साख है तो इसके पीछे उन्हीं संस्थाओं का योगदान है।
फिर ऐसा क्या हुआ, जो हमारे तंत्र में कुछ पीछे छूटता रहा और हमें उसके चटकने का अहसास भी नहीं हुआ? हमने इन लोकतांत्रिक संस्थाओं के ढांचे को कमजोर किया और सरोकारों वाले स्वप्नदर्शी नेतृत्व को हाशिये पर पहुंचा दिया। आज ईमानदार, योग्य और साधनहीन नेताओं की हमारे तंत्र में कोई संभावना नहीं है इसलिए मजबूत जनाधार वाले नेता धीरे-धीरे समाप्त होते गए और राजनीतिक दल चुनाव आते ही सार्वजनिक रूप से कहने लगे कि वे केवल जीतने वाले उम्मीदवारों को ही टिकट देंगे। यह कोई छिपा हुआ तथ्य नहीं है कि आज चुनाव जीतने के लिए धन बल और बाहुबल ही आवश्यक है।
प्रतिभा और काबिलियत के लिए कोई स्थान नहीं है। जनाधार वाले नेताओं का वह दौर भी हमने देखा है, जब केवल नेता का नाम सुनते ही कई कई किमी दूर से लोग उनको सुनने के लिए आते थे। आज स्थिति उलट है। सभाओं में श्रोताओं को लाने के लिए लंच बॉक्स और पांच सौ का नोट लगता है। लाने-ले जाने की सवारी अलग से जरूरी है।
उपन्यास सम्राट प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी ने लिखा था कि उन दिनों गांधीजी की सभा में बीस-बीस किमी से लोग पैदल आते थे। एक दिन पहले अपना भोजन पोटली में बांधकर लाते थे। उन दिनों न टीवी था, न इंटरनेट और न टेलीफोन। यह जनाधार और लोगों के दिलों में स्थान था।
मैं नहीं कहता कि आज सियासत में सारे नेता गांधी हो जाएं, लेकिन यह तो देखना ही होगा कि अपने कार्यों से राजनेता अवाम के दिल में इतनी साख पैदा करें कि मतदाता स्वतःस्फूर्त नेताजी को सुनने के लिए पहुंचें। यह तभी हो सकता है जब सियासत सेवा बने, धंधा नहीं।