ब्लॉग: चार राज्यों में होगी निर्णायक चुनावी जंग

By राजकुमार सिंह | Published: March 19, 2024 10:04 AM2024-03-19T10:04:01+5:302024-03-19T10:08:26+5:30

उन्नीस अप्रैल से एक जून के बीच लोकसभा की 543 सीटों के लिए मतदान होगा, लेकिन लगता है कि अगली केंद्र सरकार के लिए चार राज्यों की चुनावी जंग निर्णायक साबित हो सकती है।

Blog: There will be decisive election battle in four states | ब्लॉग: चार राज्यों में होगी निर्णायक चुनावी जंग

फाइल फोटो

Highlightsअगली केंद्र सरकार के लिए चार राज्यों की चुनावी जंग निर्णायक साबित हो सकती हैसत्ता संघर्ष के गवाह बनेंगे ये चार राज्य महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, बिहार और कर्नाटक इन राज्यों से 158 सांसद चुने जाते हैं, यहां भाजपा ने पिछले चुनाव में 83 सीटें अपने नाम की थी

उन्नीस अप्रैल से एक जून के बीच लोकसभा की 543 सीटों के लिए मतदान होगा, लेकिन लगता है कि अगली केंद्र सरकार के लिए चार राज्यों की चुनावी जंग निर्णायक साबित हो सकती है। ये राज्य हैं: महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, बिहार और कर्नाटक। इन राज्यों से लोकसभा के लिए 158 सांसद चुने जाते हैं और पिछले चुनाव में भाजपा अकेले दम 83 सीटें जीतने में सफल रही थी।

उसके सहयोगियों की सीटें भी जोड़ लें तो एनडीए ने इनमें से 118 सीटें जीती थीं। आगामी लोकसभा चुनाव में वह प्रदर्शन दोहरा पाना संभव नहीं लगता। कारण भी साफ हैं: पिछले लोकसभा चुनाव से अब तक देश का राजनीतिक माहौल बदला है और समीकरण भी।

48 लोकसभा सीटोंवाले महाराष्ट्र से बात शुरू करें तो पिछली बार एनडीए 41 सीटें जीतने में सफल रहा था। तब भाजपा ने 23 और उसके मित्र दल शिवसेना ने 18 सीटें जीती थीं, लेकिन राज्य में सरकार के नेतृत्व को लेकर हुई तकरार के बाद अब दोनों अलग-अलग पाले में हैं।

बेशक शिवसेना में विभाजन के बाद राज्य में उद्धव ठाकरे के नेतृत्ववाली एमवीए सरकार गिर गई। बाद में एनसीपी में भी विभाजन हो गया। दोनों दलों से बगावत करनेवाले गुट अब भाजपा के साथ एनडीए में हैं। एकनाथ शिंदे तो मुख्यमंत्री भी हैं, जबकि अजित पवार उपमुख्यमंत्री।

इस राजनीतिक उठापटक के बाद महाराष्ट्र में होनेवाला यह पहला चुनाव होगा। इसलिए चुनाव में ही तय होगा कि शिंदे और अजित पवार के साथ सांसद-विधायकों के अलावा क्रमश: शिवसेना और एनसीपी का जनाधार कितना गया, पर महाराष्ट्र की राजनीति की सामान्य समझ यही कहती है कि उद्धव ठाकरे और शरद पवार के मुकाबले क्रमश: शिंदे और अजित शायद ही चुनाव में कुछ ज्यादा कर पाएं।

हां, भाजपा खुद बेहतर प्रदर्शन कर सकती है, पर इसमें संशय है कि वह पिछली बार से भी ज्यादा सीटें जीत पाएगी। इसलिए देखना महत्वपूर्ण होगा कि शिंदे की शिवसेना और अजित की एनसीपी कितनी सीटें जीत पाती हैं तथा ठाकरे और शरद पवार की पार्टियों को सहानुभूति का कितना चुनावी लाभ मिलता है। अगर प्रकाश आंबेडकर की वंचित विकास आघाड़ी भी एमवीए के साथ ‘इंडिया’ गठबंधन में शामिल होती है, तब भाजपा की मुश्किलें और भी बढ़ सकती हैं।

42 सीटोंवाले प. बंगाल में पिछली बार भाजपा ने सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस को जोरदार टक्कर देते हुए 18 सीटें जीती थीं। ‘इंडिया’ गठबंधन बन जाने के बावजूद तृणमूल सभी सीटों पर अकेले चुनाव लड़ रही है। ऐसे में तृणमूल-भाजपा और कांग्रेस-वाम मोर्चा के बीच दिलचस्प त्रिकोणीय चुनावी मुकाबले में भाजपा पर सीटें बढ़ाने से ज्यादा बचाने का दबाव रहेगा, क्योंकि ममता सरकार के विरुद्ध सत्ता विरोधी भावना के लिए भाजपा से इतर भी एक विकल्प उपलब्ध होगा। जाहिर है, तृणमूल और कांग्रेस-वाम मोर्चा अलग-अलग लड़ कर भी जो सीटें जीतेंगे, वे चुनाव के बाद भाजपा विरोधी खेमे में ही रहेंगी।

40 सीटों वाले बिहार में पिछली बार एनडीए ने 39 सीटें जीत कर लगभग क्लीन स्वीप किया था। बेशक विपक्षी गठबंधन के सूत्रधार नजर आ रहे नीतीश कुमार फिर पाला बदल कर एनडीए में वापस लौट चुके हैं, पर रामविलास पासवान अब नहीं हैं, जिनकी लोक जनशक्ति पार्टी ने छह सीटें जीती थीं। रामविलास के निधन के बाद लोजपा भाई और बेटे की बीच दोफाड़ हो गई। पांच सांसदों के नेता के रूप में भाई पशुपति पारस केंद्र सरकार में मंत्री भी बन गए, जबकि बेटे चिराग ने भाजपा का हनुमान बन कर पिछले विधानसभा चुनाव में नीतीश के जदयू को 43 सीटों पर समेटने में भूमिका निभाई।

ऐसा लग रहा है कि भाजपा इस बार चिराग पर दांव लगाएगी। उस सूरत में पशुपति ‘इंडिया’ गठबंधन का दामन थाम सकते हैं। बेशक चिराग और पशुपति, दोनों के ही जनाधार की चुनावी परीक्षा अभी होनी है, लेकिन ज्यादातर जानकारों का मानना है कि एनडीए के लिए 39 सीटें जीत पाना संभव नहीं लगता. अगर ऐसा होता है तो स्वाभाविक ही ‘इंडिया’ की सीटें बढ़ेंगी।

28 लोकसभा सीटोंवाले कर्नाटक में पिछले लोकसभा चुनाव के समय भाजपा की सरकार थी और वह अकेले दम 25 सीटें जीती थी। भाजपा समर्थित एक निर्दलीय भी जीता था, लेकिन पिछले साल कांग्रेस के हाथों राज्य की सत्ता से बेदखली के बाद उसके लिए पिछला प्रदर्शन दोहरा पाना नामुमकिन होगा। हालांकि अब भाजपा ने एच.डी. देवेगौड़ा के जद(एस) से गठबंधन किया है, पर कर्नाटक में कांग्रेस की सीटें बढ़ना तय है।

ऐसे में स्वाभाविक सवाल यह है कि जब इन चार राज्यों में भाजपा की सीटें घटने की आशंका है, तो वह 370 सीटें जीतने का लक्ष्य कैसे हासिल करेगी? सच तो यह है कि अगर इन चार राज्यों में भाजपा की सीटें अनुमान के मुताबिक घटीं, तब तो 272 का जादुई आंकड़ा छूने का दारोमदार भी उत्तर प्रदेश पर टिक जाएगा। 80 सीटोंवाले उत्तर प्रदेश से भाजपा ने पिछली बार अकेले दम 62 और सहयोगियों के साथ मिल कर 64 सीटें जीती थीं, लेकिन 2014 में वह अकेले दम 71 और सहयोगियों के साथ 73 सीटें जीतने में सफल रही थी।

माना जा रहा है कि रामलला की प्राण प्रतिष्ठा से बने माहौल तथा जयंत चौधरी के पालाबदल के बाद उत्तर प्रदेश में भाजपा 2014 का प्रदर्शन दोहरा सकती है। बेशक प्रधानमंत्री मोदी की निरंतर यात्राओं तथा आंध्र प्रदेश में फिर टीडीपी से गठबंधन के जरिये भाजपा दक्षिण में अपनी पैठ बढ़ाने की कवायद कर रही है, लेकिन उसके बल पर 370 का गगनचुंबी लक्ष्य छू पाना संभव नहीं लगता। उसके लिए जरूरी होगा कि भाजपा नुकसान की आशंकावाले चारों राज्यों में अपनी चुनावी बिसात ऐसी बिछाए कि नुकसान न्यूनतम हो।

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