अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: टीवी के खबरिया चैनल बनाम अखबारी पत्रकारिता

By अभय कुमार दुबे | Published: September 4, 2020 07:35 AM2020-09-04T07:35:49+5:302020-09-04T07:35:49+5:30

खबरिया चैनलों के इस रवैये की तुलना अगर अखबारी मीडिया से की जाए तो दोनों के बीच का अंतर साफ नजर आ जाता है. समाचार पत्रों ने इस प्रश्न पर पारंपरिक ढंग से सूचनाएं देने और उनका निष्पक्ष विश्लेषण करने का रवैया अपनाया है.

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सुशांत सिंह राजपूत और रिया चक्रवर्ती (फाइल फोटो)

अगर टीवी के खबरिया चैनलों पर यकीन किया जाए तो आसानी से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की ‘आत्महत्या’ दरअसल एक ‘हत्या’ थी. ये चैनल किसी न किसी प्रकार यह भी साबित करना चाहते हैं कि सुशांत की अभिनेत्री प्रेमिका रिया चक्रवर्ती का ही इस ‘हत्या’ में मुख्य हाथ था. ऐसा प्रतीत होता है कि इस टीवी-सरकस में इन चैनलों के दर्शक भी शामिल हो गए हैं. वे केवल खबरों के उपभोक्ता-भर नहीं हैं, बल्कि वे भी टीवी पर चीख-चिल्ला रहे एंकर की भांति चाहते हैं कि सुशांत की ‘आत्महत्या’ किसी न किसी तरह ‘हत्या’ साबित हो जाए. 

सरेआम एक मुकदमा चल रहा है जिसमें न जज है, न वकील. केवल एक या कुछ अभियुक्त हैं जिन्हें फैसला दिए जाने से पहले ही जनता की नजरों में दोषी करार दिया जा रहा है. हो सकता है कि अंत में ऐसा ही हो, लेकिन ऐसा न होने की संभावना भी है. अगर, ऐसा न हुआ तो क्या यह मीडिया रिया चक्रवर्ती की छवि खराब करने का दोषी स्वयं को मानेगा? क्या उसके भीतर आत्मालोचना और ऊहापोह की लहर दौड़ेगी? क्या वह उस अदृश्य कठघरे को हमेशा-हमेशा के लिए नष्ट कर देगा जिसमें उसने इस अभिनेत्री को खड़ा किया हुआ है? लेकिन, अगर रिया दोषी निकली तो क्या इसका श्रेय टीवी-मीडिया को जाएगा? 

जाहिर है कि उस समय ये खबरिया चैनल अपनी पीठ खुद ही ठोंकते हुए दावा करेंगे कि देखो-देखो, हमने तो पहले ही कहा था. दरअसल, रिया दोषी हो या निर्दोष, दोनों ही हालत में उसका श्रेय पुलिस, सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय और नारकोटिक्स ब्यूरो को दिया जाना चाहिए. मीडिया के किसी भी मंच को यह श्रेय लेने का अधिकार न कभी था, न कभी होगा.

खबरिया चैनलों के इस रवैये की तुलना अगर अखबारी मीडिया से की जाए तो दोनों के बीच का अंतर साफ नजर आ जाता है. समाचार पत्रों ने इस प्रश्न पर पारंपरिक ढंग से सूचनाएं देने और उनका निष्पक्ष विश्लेषण करने का रवैया अपनाया है. इस विश्लेषण में वे जांच एजेंसियों द्वारा दी जाने वाली सूचनाओं पर भरोसा करते नजर आते हैं. अखबारी पत्रकारिता ने शुरुआती दौर में टीवी-पत्रकारिता से सीखने की प्रवृत्ति दिखाई थी. शुरू में टीवी न केवल बहसों के जरिये अधिक जीवंत राजनीतिक विमर्श पैदा करता हुआ दिख रहा था, बल्कि वह आज की खबर आज ही दिखा देने की क्षमता से संपन्न था, जबकि अखबार आज की खबर अपने पाठकों तक कल ही पहुंचा सकते थे. यह अंतर अखबारों को और चुस्त-दुरुस्त करने की तरफ ले गया. 

2010 के बाद अखबारों के पहले पन्ने ऐसी खबरें देने लगे जिन तक टीवी पत्रकारों की पहुंच नहीं हो सकती थी. नतीजा यह निकला कि अक्सर टीवी को अखबारों में छपी खबरों के इर्दगिर्द अपने कार्यक्रम आयोजित करने पड़े. परिणाम यह निकला कि टीवी की दर्शक-संख्या तो बढ़ी, लेकिन अखबारों की पाठक-संख्या कम नहीं हुई.

अखबारों ने तो टीवी से सीख कर अपनी गुणवत्ता बढ़ा ली, लेकिन टीवी ने अखबारों से सीखने से इंकार कर दिया. वे एक दूसरे ही रास्ते पर चल निकले. उनके कार्यक्रम उत्तरोत्तर इकतरफा होते चले गए. कुछ चैनल सरकार के संकोचहीन समर्थक बन कर उभर आए. अपनी सरकारपरस्ती को उचित ठहराने के लिए उन्होंने राष्ट्रवाद, देशभक्ति, पाकिस्तान-चीन विरोध की आड़ ली. कुछ चैनल हर बात में सरकार की आलोचना करने लगे. इन दोनों के बीच खड़े चैनल भी हैं, जो निष्पक्ष दिखते हुए सरकार का समर्थन करने की कोशिश करते हैं.

 टीवी-पत्रकारिता के मूलत: दो मॉडल प्रचलित हैं. एक है एंकर आधारित मॉडल, जिसमें मशहूर हो चुके एंकर की हस्ती पूरी तरह से हावी रहती है. एक तरह से वही एंकर अपने कार्यक्रम की विषयवस्तु और मेहमानों की सूची तय करता है. वही अपने कार्यक्रम का ‘इंट्रो’ लिखता है. अपने कार्यक्रम की लोकप्रियता या अलोकप्रियता का जिम्मेदार भी वही होता है. दूसरा मॉडल कुछ ऐसा है जिसमें एंकर को उसके कार्यक्रम की लाइन और प्लेट दोनों तैयारशुदा हालत में सजा कर थमा दी जाती है, और उसका काम केवल प्रस्तुति का होता है. उसके कान में लगा हुआ ‘टॉकबैक’ लगातार उसे सम्पादकीय विभाग की तरफ से निर्देश देता रहता है कि उसे कब, क्या और किससे पूछना है.

खास बात यह है कि किसी भी सनसनीखेज या राजनीतिक महत्व वाले सवालों पर किए जाने वाले कार्यक्रमों में फैसला देने की प्रवृत्ति कम या ज्यादा दोनों मॉडलों में पाई जाती है. यह अलग बात है कि इस रवैये के कारण गंभीर और समझदार दर्शकों में खबरिया चैनलों की साख गिरती जा रही है. स्क्रीन पर चल रहे कोलाहल ने भले ही कुछ एंकरों को सुपरस्टार बना दिया हो, लेकिन इस मीडिया-मंच की गंभीरता पर एक स्थायी सवालिया निशान लग चुका है.

Web Title: blog: Sushant Singh Rajput Death case TV news channel vs newspaper journalism reporting

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