ब्लॉग: श्रम को ईश्वर और पसीने को पारस बताते थे संत रविदास
By कृष्ण प्रताप सिंह | Published: February 24, 2024 12:41 PM2024-02-24T12:41:24+5:302024-02-24T12:46:29+5:30
संत रविदास का जन्म विक्रम संवत् 1441 से 1455 के बीच माघ पूर्णिमा के दिन वाराणसी के मंडेसर तालाब के किनारे मांडव ऋषि के आश्रम के पास स्थित मांडुर नामक उसी गांव में हुआ था, जो अब मंडुआडीह कहलाता है।
हिंदी के संत कवियों की परंपरा में अपने अनूठेपन के लिए अलग से रेखांकित किए जाने वाले संत रविदास का जन्म विक्रम संवत् 1441 से 1455 के बीच रविवार को पड़ी किसी माघ पूर्णिमा के दिन उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले में मंडेसर तालाब के किनारे मांडव ऋषि के आश्रम के पास स्थित मांडुर नामक उसी गांव में हुआ था, जो अब मंडुआडीह कहलाता है।
एक वाक्य में उनका परिचय देना हो तो कहना होगा कि वे भक्ति काव्यधारा की उस बहुजन-श्रमण परंपरा के शीर्षस्थ संत कवियों में से एक हैं, जो हमारी सामाजिक व्यवस्था के ऊंच-नीच, विषमता व परजीविता के पोषक सारे मूल्यों को दरकिनार कर मनुष्यमात्र की समता की हिमायत करती रही है।
इस परंपरा के आलोक में संत रविदास के लिखे या कहे को कहीं से भी पढ़ना शुरू किया जाए, उनकी यह केंद्रीय चिंता सामने आए बिना नहीं रहती कि जाति का रोग, जो मनुष्य को जन्म के आधार पर ऊंचा या नीचा ठहराता है, मनुष्यता को निरंतर खाए जा रहा है। इसीलिए वे बारम्बार हिदायत देते हैं कि कोई भी इंसान जन्म के आधार पर नहीं, तब नीच होता है, जब अपने हृदय को संवेदना व करुणा कहें या दया व धर्म से विरहित कर लेता और खुद को ‘ओछे कर्मों की कीच’ लगा बैठता है।
इस सिलसिले में वे यह साफ करने से भी नहीं चूकते कि आदमी के आदमी से जुड़ने में यह जाति ही सबसे बड़ी बाधा है और ‘रैदास ना मानुष जुड़ सके, जब लौं जाय न जात।’ दरअसल, उनके समय में ऊंच-नीच व छुआछूत जैसी सामाजिक बीमारियों ने न सिर्फ सहज मनुष्यता का मार्ग अवरुद्ध कर रखा था, बल्कि अन्त्यज करार दी गई जातियों को, जिनमें संत रविदास की जाति भी शामिल थी, सर्वाधिक त्रास झेलने को अभिशप्त कर रखा था।
ऐसे में स्वाभाविक ही था कि वे अपनी रचनाओं में पीड़ित के रूप में उनका प्रतिरोध करते और उनके कवच-कुंडल बने पाखंडों व कुरीतियों के विरुद्ध मुखर होते। उनका साफ मानना था कि ईश्वर को जप-तप, व्रत-दान, पूजा-पाठ, गृहत्याग व इंद्रियदमन आदि की मार्फत नहीं पाया जा सकता। न ही जटाएं बढ़ाकर गुफाओं व कंदराओं में खोजने से। वह मिलेगा तो बस मानव प्रेम में क्योंकि वह प्रेम में ही निवास करता है।
इसलिए उन्होंने लोगों से सम्यक आजीविका व नेक कमाई को ही अपना धर्म व श्रम को ईश्वर मानकर दिन-रात उसे ही पूजने व पसीने को पारस मानने को कहा और बताया कि संसार में सुख पाने व चैन से रहने का बस यही एक रास्ता है। इससे भी बड़ी बात यह कि परउपदेशकुशलों की तरह उनकी यह सीख अन्यों के लिए ही नहीं थी। वे स्वयं भी श्रम करके ही जीवन-यापन करते और श्रम करके जीने को सबसे बड़ा मूल्य मानते थे।