कृष्ण प्रताप सिंह का ब्लॉग: समाज को कहां ले जाएगी तेजी से बढ़ती यह असमानता?

By कृष्ण प्रताप सिंह | Published: January 20, 2022 11:53 AM2022-01-20T11:53:10+5:302022-01-20T11:53:10+5:30

आक्सफेम इंडिया की ताजा रिपोर्ट कहती है कि देश के टॉप 10 रईसों के पास इतनी दौलत मौजूद है कि वे देश के सभी स्कूल-कॉलेजों का अगले पच्चीस सालों तक का खर्च चला सकते हैं। लेकिन सवाल है कि वे यह खर्च क्यों चलाना चाहेंगे?

Blog of Krishna Pratap Singh Where will this rapidly growing inequality take the society? | कृष्ण प्रताप सिंह का ब्लॉग: समाज को कहां ले जाएगी तेजी से बढ़ती यह असमानता?

कृष्ण प्रताप सिंह का ब्लॉग: समाज को कहां ले जाएगी तेजी से बढ़ती यह असमानता?

Highlights‘विश्व असमानता रिपोर्ट-2022’ के अनुसार, भारत दुनिया के गैरबराबरी से सर्वाधिक पीड़ित देशों में शामिल है।आक्सफेम इंडिया की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, देश के टॉप 10 रईसों के पास इतनी दौलत मौजूद है कि वे देश के सभी स्कूल-कॉलेजों का अगले पच्चीस सालों तक का खर्च चला सकते हैं।

आगामी गणतंत्र दिवस पर हम अपने जिस संविधान के शासन का उत्सव मनाएंगे, उसकी प्रस्तावना में हमने देश को समता, स्वतंत्रता और न्याय पर आधारित संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष व लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने का संकल्प ले रखा है। लेकिन कोई पूछे कि इस संकल्प के प्रति हम कितने ईमानदार हैं, तो जवाब के लिए कहीं दूर जाने की आवश्यकता नहीं है।

खासकर समता के संकल्प का हाल-बेहाल करते हुए हमारी सरकारों ने उसे किस दुखदायी अंजाम तक पहुंचा दिया है, इसे समझने के लिए आक्सफेम इंडिया की उस रिपोर्ट पर एक उड़ती-सी नजर डाल लेना भर पर्याप्त है, जो कहती है कि बीते साल यानी 2021 में देश में जहां अरबपतियों की संख्या खासी तेजी से बढ़ी, कोरोना की आपदा भी उनकी संपत्ति दोगुनी होने से नहीं रोक पाई, बल्कि अवसर सिद्ध हुई, वहीं गरीबों की सिर्फ संख्या बढ़ी- सरकारों द्वारा उसे विवादास्पद करार देने और बड़ी संख्या में लोगों को गरीबी की रेखा से ऊपर उठाने के दावों के बावजूद इस एक साल में ही गरीब दोगुने हो गए!

लेकिन क्या कीजिएगा, इस तरह की रिपोर्ट्स से गुजरने के इतने आदी हो गए हैं कि अब वे हमें न विचलित करती हैं और न रास्ता बदलने को बाध्य। तिस पर देश में कोई ऐसा राजनीतिक प्रवाह भी नहीं है जो सत्ताओं व सरकारों को आईना दिखाकर उन्हें इनकी शर्म महसूस करने और हालात बदल सकने वाले नीतिगत परिवर्तनों के लिए बाध्य कर सकें। 

सरकारें इन हालात को बदलना चाहतीं तो राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन यानी नेशनल सैंपल सर्वे आर्गनाइजेशन (एनएसएसओ) ने पांच साल पहले ही बता दिया था कि तब तक गरीब गांवों में 17 और शहरों में 23 रुपए रोज पर ही अपने दिन काटने को मजबूर थे। उनका मासिक खर्च गांवों में 522 और शहरों में 701 रुपए से आगे नहीं बढ़ पा रहा था। यह तब था, जब गांवों के सबसे अमीर पांच प्रतिशत लोग और अमीर होकर 4481 रुपए प्रति व्यक्ति प्रति माह खर्च करने की स्थिति में आ गए थे और शहर का सबसे अमीर पांच प्रतिशत तबका 10282 रुपए प्रति व्यक्ति प्रति महीना खर्च करने में सक्षम हो गया था। सौ अग्रणी कॉर्पोरेट घरानों का देश की नब्बे प्रतिशत संपदा पर तभी प्रत्यक्ष व परोक्ष नियंत्नण था, जबकि एक तिहाई ग्रामीण आबादी भूमिहीन व निर्धन थी।

अब आक्सफेम इंडिया की ताजा रिपोर्ट कहती है कि देश के टॉप 10 रईसों के पास इतनी दौलत मौजूद है कि वे देश के सभी स्कूल-कॉलेजों का अगले पच्चीस सालों तक का खर्च चला सकते हैं। लेकिन सवाल है कि वे यह खर्च क्यों चलाना चाहेंगे?

गौरतलब है कि पिछले दिनों ‘विश्व असमानता रिपोर्ट-2022’ आई तो हमारा देश दुनिया के गैरबराबरी से सर्वाधिक पीड़ित देशों में शामिल हो गया। इस रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2021 में देश की एक फीसदी आबादी के पास राष्ट्रीय आय का 22 फीसदी हिस्सा संकेंद्रित हो गया, जबकि निचले तबके के 50 फीसदी लोगों के पास महज 13 फीसदी हिस्सा बचा। देश की वयस्क आबादी की औसत राष्ट्रीय आय 204200 रुपए के विपरीत निचले तबके की आबादी की, जो कुल आबादी की आधी है, महज 53610 रुपए और शीर्ष 10 फीसदी आबादी की इससे करीब 20 गुना (1166,520 रुपए) अधिक है। शीर्ष 10 फीसदी आबादी के पास कुल राष्ट्रीय आय का 57 फीसदी, जबकि एक फीसदी आबादी के पास 22 फीसदी हिस्सा रह गया, जबकि नीचे से 50 फीसदी आबादी की इसमें हिस्सेदारी मात्न 13 फीसदी रह गई।

यह स्थिति किस तरह हमारे संवैधानिक संकल्प का विलोम है, इसे यों समझ सकते हैं कि संविधान में हमने समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्नता और प्रतिष्ठा और अवसर की समानता प्राप्त कराने की प्रतिज्ञा की थी।

संविधान के चौथे भाग में राज्य के निदेशक तत्वों में कहा गया था कि राज्य आर्थिक व्यवस्था को इस तरह चलाएं जिससे धन और उत्पादन के साधनों का सर्वसाधारण के लिए अहितकारी केंद्रीकरण न हो। इस बात पर भी जोर दिया गया था कि राज्य का संचालन करने वाली सरकारें अपनी जनता के दुर्बल वर्गो के, खासतौर पर अनुसूचित जातियों और जनजातियों के शिक्षा, अर्थ से जुड़े हितों का सावधानी से विकास करें और सामाजिक अन्याय और सभी प्रकार के शोषण से उनकी सुरक्षा करें। लेकिन गैरबराबरी के ताजा आईने में कौन कह सकता है कि संविधान के लागू होने से अब तक के सात दशकों में आई सरकारों ने इस दिशा में सदाशयतापूर्वक यात्रा की है?

Web Title: Blog of Krishna Pratap Singh Where will this rapidly growing inequality take the society?

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