कृष्ण प्रताप सिंह का ब्लॉगः बाबासाहब आंबेडकर के विचार अपनाने में ही सच्ची सार्थकता
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: April 14, 2019 07:22 AM2019-04-14T07:22:20+5:302019-04-14T07:22:20+5:30
बाबासाहब समानता को लोकतंत्र का दूसरा नाम बताते और कहते थे कि राजनीतिक समानता हासिल हो जाने के बाद भी आर्थिक समानता के बिना लोकतंत्र सफल नहीं हो सकता.
कृष्ण प्रताप सिंह
इन दिनों देश की प्राय: सारी राजनीतिक पार्टियों में खुद को बाबासाहब डा़ भीमराव आंबेडकर से जोड़ने और उनका वारिस सिद्ध करने की होड़-सी मची हुई है. यह होड़ बाबासाहब द्वारा समता, स्वतंत्रता, न्याय और बंधुत्व पर आधारित संविधान के निर्माण और दलितों व वंचितों की मुक्ति के मार्ग की तलाश में निभाई गई भूमिका से प्रेरणा लेने अथवा उनके विचारों को अंगीकृत करने के लिए होती, तो वाकई सराहना की पात्र होती. लेकिन दुर्भाग्य से इसमें सारा जोर बाबासाहब के कहे-किए को परे रखकर अपनी भावनाओं व जरूरतों के अनुरूप उनके नए बुत गढ़ने में है. ऐसे बुत, जो बाबासाहब की शिक्षा, संगठन और संघर्ष से जुड़े आह्वान को दलितों-वंचितों तक पहुंचाएं या नहीं लेकिन उनका चुनावी इस्तेमाल आसान बना दें. ऐसे में कभी उनके विचारों की बात चलती भी है तो उन्हें यथारूप स्वीकार करने के बजाय उनकी मनमानी व्याख्याएं की जाने लगती हैं.
बाबासाहब समानता को लोकतंत्र का दूसरा नाम बताते और कहते थे कि राजनीतिक समानता हासिल हो जाने के बाद भी आर्थिक समानता के बिना लोकतंत्र सफल नहीं हो सकता. बाबासाहब चाहते थे कि बहुजन समाज के मित्र के तौर पर समाजवाद की स्थापना शांतिपूर्ण तरीके से हो. उनका सपना था कि इस समाजवाद में जो भी प्रमुख उद्योग हों अथवा जिन्हें प्रमुख उद्योग घोषित किया जाए, वे राज्य के स्वामित्व में रहें तथा राज्य द्वारा चलाए जाएं. राज्य द्वारा बीमा का राष्ट्रीयकरण किया जाए जिससे उसे संसाधन प्राप्त हो सकें और उन्हें तेजी से औद्योगिकीकरण में लगाया जा सके. उनका मानना था कि निजी पूंजी से हुआ औद्योगिकीकरण संपदा की विषमताओं को ही जन्म देगा. इसके अतिरिक्त जो प्रमुख उद्योग नहीं, किंतु बुनियादी उद्योग हों, वे भी राज्य के स्वामित्व में हों और उन्हें भी राज्य द्वारा चलाया जाए.
कृषि राज्य का उद्योग हो तथा सामूहिक खेती की जाए. राज्य द्वारा अर्जित भूमि मानक के आधार पर गांव के निवासियों को पट्टे के रूप में दी जाए. ऐसी रीति से कि न कोई जमींदार रहे और न भूमिहीन मजदूर. उन्होंने भारतीय संविधान में राज्य या कि राजकीय समाजवाद के उल्लेख की वकालत की, जिससे उसकी स्थापना विधानमंडलों की इच्छा पर निर्भर न रहे और संवैधानिक विधि द्वारा स्थापित राज्य समाजवाद को विधायिका या कार्यपलिका द्वारा बदला न जा सके. उनका मानना था कि इससे तीन उद्देश्यों की पूर्ति होगी-समाजवाद की स्थापना, संसदीय लोकतंत्र को जारी रखना तथा तानाशाही से बचना. वे आर्थिक क्षेत्र में राज्य का हस्तक्षेप जरूरी मानते थे, यद्यपि स्वीकारते थे कि राज्य के हस्तक्षेप से स्वतंत्रता में कमी आती है. उन्हें लगता था कि इसके बिना स्वतंत्रता जमींदारों की लगान लेने, पूंजीपतियों को कार्य के घंटे बढ़ाने तथा मजदूरी घटाने की स्वतंत्रता बन जाएगी.
आज जिस तरह सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों का विनिवेशीकरण कर उन्हें पूंजीपतियों के हवाले करने तथा अर्थव्यवस्था पर पूंजीपतियों का वर्चस्व स्थापित करने का सिलसिला रोके नहीं रुक रहा, किसानों की जमीनें तथा देश की खनिज संपदा भी पूंजीपतियों के हवाले की जा रही है, उससे स्पष्ट है कि देश को बाबासाहब के आर्थिक चिंतन से उल्टी दिशा में ले जाया जा रहा है. काश, खुद को बाबासाहब की विरासत से जोड़ने की होड़ मचाने वाली राजनीतिक पार्टियां, जो कभी न कभी केंद्र या किसी न किसी प्रदेश में सत्ता में रह चुकी हैं या मौजूद हैं, बाबासाहब के इन विचारों के आइने में भी अपनी सूरत निहारतीं.