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ब्लॉग: मायावती का ‘एकला चलो’ का राग

By उमेश चतुर्वेदी | Updated: January 19, 2024 10:14 IST

मायावती के कारण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर अपने-अपने क्षेत्रों में प्रभावी दलों का मोर्चा बनाने की कोशिशों में जुटी कथित सांप्रदायिकता विरोधी वैचारिकी और राजनीति को बड़ा झटका लगा है।

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ठळक मुद्देमायावती के कारण भाजपा विरोधी राजनीति करने वाले दलों के मोर्चे को काफी धक्का लगा हैअपने 68वें जन्मदिन पर मायावती ने स्पष्ट कर दिया है कि वो किसी गठबंधन में शामिल नहीं होंगीमायावती ने इस फैसले से विपक्ष की राजनीति कर रहे दलों को भारी झटका लगा है

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर अपने-अपने क्षेत्रों में प्रभावी दलों का मोर्चा बनाने की कोशिशों में जुटी कथित सांप्रदायिकता विरोधी वैचारिकी और राजनीति को मायावती से बड़ा झटका लगा है। अपने 68वें जन्मदिन पर मायावती ने विपक्षी राजनीतिक ताकतों को निराश करते हुए साफ कर दिया कि आगामी आम चुनावों में उनका दल किसी दल के साथ गठबंधन नहीं करने जा रहा है।

मायावती के साथ आने से इंडिया गठबंधन को फायदा होगा या नुकसान, इसका विश्लेषण करने के पहले बसपा के कुछ चुनाव नतीजों की ओर ध्यान देना जरूरी है। बसपा को गठबंधन की सबसे बड़ी सफलता 1993 के उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव में मिली। बेशक तब सपा और बसपा गठबंधन सत्ता में आया, लेकिन भाजपा को 1991 के विधानसभा चुनाव की बनिस्बत ज्यादा ही वोट मिला था।

उस दौरान बसपा और सपा के वोट बैंक एक-दूसरे को ट्रांसफर हुए थे। इसी की वजह से राम लहर के बावजूद भाजपा को यूपी में हार मिली थी। 1993 की जीत ने एक संदेश दिया कि अगर दोनों दल एक-दूसरे से मिलें तो उनके वोट बैंक ट्रांसफर होंगे और भाजपा को अलग रखा जा सकता है। 1996 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के साथ बसपा ने गठबंधन किया।

इस चुनाव में बसपा को ज्यादा फायदा हुआ। बसपा आगे भी बढ़ती रही। 2007 में तो खुद के दम पर बहुमत हासिल करके सरकार बनाने में कामयाब रही लेकिन बाद के दिनों में बसपा की स्थिति बेहतर नहीं रह पाई। 2014 में मोदी लहर के दौरान बसपा को उत्तर प्रदेश में एक भी लोकसभा सीट पर कामयाबी नहीं मिली। इसका नतीजा यह हुआ कि 2019 में बुआ यानी मायावती और बबुआ यानी अखिलेश यादव का गठबंधन हुआ और इस गठबंधन ने राज्य की 15 सीटें जीत लीं। जिसमें से दस बसपा को मिलीं।

इन चुनावों की ओर देखें तो एक बात स्पष्ट रूप से नजर आती है कि बसपा ने जब भी किसी से गठबंधन किया, उसमें खुद को मजबूत स्थिति में रखा। 1993 का चुनाव अपवाद है बाकी हर बार बसपा ने गठबंधन करते वक्त यह ध्यान में रखा कि वह आगे रहे और उसकी मर्जी चले। इसका उदाहरण 2019 का आम चुनाव भी है, जिसमें उसे सपा की तुलना में अपेक्षाकृत आसान सीटें मिलीं। फिर उसने सबसे ज्यादा यानी 38 सीटों पर चुनाव लड़ा था, जबकि सपा को सिर्फ 37 और बाकी पांच सीटें राष्ट्रीय लोकदल और दूसरे छोटे दल को मिलीं। 38 में से मायावती को दस सीटों पर कामयाबी मिली।

सवाल यह है कि इंडिया गठबंधन में अगर मायावती जाती हैं तो क्या उन्हें इस बार फिर पिछली बार की तरह तवज्जो मिलेगी? इसका जवाब निश्चित तौर पर न में है। 1995 के गेस्ट हाउस कांड के बाद से मायावती ने एक सबक लिया है कि खुद को आगे और ताकतवर रखो। इंडिया गठबंधन के साथ अगर वे जातीं तो निश्चित तौर पर उन्हें केंद्रीय राजनीति में भाजपा विरोधी ताकतों की धुरी बनी कांग्रेस के साथ ही, हो सकता है कि सपा की भी बात सुननी पड़ती। मायावती अगर राजग में जातीं तो उत्तर प्रदेश को अपना गढ़ बना चुकी भाजपा के सामने भी उनकी नहीं चलती। इसीलिए माया ने एकला चलो का राग अलापा है।

टॅग्स :मायावतीMayawati Bahujan Samaj Partyलोकसभा चुनाव 2024कांग्रेससमाजवादी पार्टीउत्तर प्रदेशuttar pradesh
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