ब्लॉगः भारत में प्राचीन काल से ही रहा है खुफिया तंत्र
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: July 25, 2023 09:10 AM2023-07-25T09:10:52+5:302023-07-25T09:12:34+5:30
मौर्य के मुख्य जासूसी सलाहकार चाणक्य उर्फ कौटिल्य थे, जिन्होंने अपनी पुस्तक अर्थशास्त्र में इसके बारे में विस्तृत निर्देश दिए हैं कि गुप्त माध्यमों से गुप्त सूचनाएं किस प्रकार एकत्रित की जानी चाहिए।
वप्पाला बालाचंद्रन: यह धारणा गलत है कि भारत में कोई खुफिया तंत्र नहीं था और इसे केवल अंग्रेजों ने ही लागू किया था। यहां तक कि वैदिक भारत में भी एक सुदृढ़ गुप्तचर व्यवस्था थी।
भारतीय इतिहासकारों में अग्रणी आर।सी। मजूमदार, जिन्होंने भारतीय विद्या भवन के ‘भारतीय लोगों का इतिहास और संस्कृति’ के 11 खंडों का संपादन किया, जिसे 1938 में कुलपति के।एम। मुंशी ने गति दी और 1951 से 2003 के बीच जारी किया गया, का कहना है कि वैदिक राजा ‘राजन’ के पास जासूस और दूतों की नियुक्ति करके जासूसी की एक प्रणाली थी। उत्तर वैदिक युग के दौरान राजाओं ने अन्य जनजातियों को चुनौती देना शुरू कर दिया जिसके परिणामस्वरूप राज्यों का एकीकरण हुआ और धीरे-धीरे सम्राटों का उदय हुआ। अंततः उत्तरी भारत में चार प्रमुख साम्राज्यों का उदय हुआ: अवंती, वत्स, कोसल और मगध।
ग्यारह खंडों वाली ‘द स्टोरी ऑफ सिविलाइजेशन’ श्रृंखला के प्रसिद्ध अमेरिकी लेखक विल ड्यूरेंट, जिन्होंने 1930 में पहला खंड (हमारी प्राच्य विरासत) जारी किया था, ने चंद्रगुप्त मौर्य के दौर का अध्ययन किया है, जिन्होंने मगध (321-297 ईसा पूर्व) पर शासन किया और अधिकांश भारत को अपने अधीन एकीकृत कर लिया था। 1930 के दौरान भारत में रहने वाले ड्यूरेंट का विवरण यूनानी इतिहासकार मेगस्थनीज (350-290 ईसा पूर्व) पर आधारित है। ड्यूरेंट के अनुसार, मौर्य ने अपने दैनिक कार्यक्रम को 16 अवधियों में विभाजित किया, प्रत्येक अवधि 90 मिनट की थी। आठवीं अवधि के दौरान ‘वह फिर से अपनी परिषद से मिला, और अपने जासूसों की रिपोर्टें सुनीं, जिनमें वे वेश्याएं भी शामिल थीं जिन्हें उसने इस उद्देश्य के लिए इस्तेमाल किया था।’ इससे पता चलता है कि प्राचीन भारत में संगठित और सुदृढ़ गुप्तचर व्यवस्था थी।
मौर्य के मुख्य जासूसी सलाहकार चाणक्य उर्फ कौटिल्य थे, जिन्होंने अपनी पुस्तक अर्थशास्त्र में इसके बारे में विस्तृत निर्देश दिए हैं कि गुप्त माध्यमों से गुप्त सूचनाएं किस प्रकार एकत्रित की जानी चाहिए। हालांकि, ‘अर्थशास्त्र’ केवल जासूसी पर ही नहीं बल्कि राज्य कला पर भी आधारित थी। गुप्तचरों के वर्णन और कर्तव्य अर्थशास्त्र में 15 अलग-अलग खंडों में दिए हुए हैं। जासूस विभिन्न आवश्यकताओं के लिए घरेलू और विदेशी खुफिया जानकारी एकत्र करने के लिए होते हैं, जैसे आंतरिक स्थिरता के लिए, गद्दारों का पता लगाने के लिए, युद्ध के लिए, अशांति पैदा करके कब्जे वाले क्षेत्रों में पहले के शासन को नष्ट करने और आक्रमणकारी के संप्रभु शासन को स्थिर करने के लिए। उन्होंने छल-कपट और गुप्त कार्रवाइयों के संबंध में निर्देश दिए हैं।
हालांकि जासूसी पर चाणक्य के निर्देशों को विदेशों में मान्यता नहीं मिली। प्रसिद्ध सीआईए प्रमुख एलन डलेस, जिन्हें द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिकी इंटेलिजेंस के जनक के रूप में स्वीकार किया जाता है, ने अपनी पुस्तक ‘द क्राफ्ट ऑफ इंटेलिजेंस’ (1963) में जासूसी पर चाणक्य के निर्देशों का उल्लेख नहीं किया है। जबकि उन्होंने उसी अवधि के चीनी रणनीतिकार सन त्जु का उल्लेख किया है।
इसी प्रकार, 1950 तक किसी भी भारतीय अधिकारी या इतिहासकार ने दक्षिण भारत के ‘तिरुवल्लुवर’ नामक एक अन्य दार्शनिक के महत्व को स्वीकार नहीं किया, जिन्होंने जासूसी परक साहित्य में भी योगदान दिया था। ‘तिरुवल्लुवर’ एक प्रसिद्ध संत और कवि थे जिनकी जन्मतिथि निश्चित नहीं है। हालांकि शोधकर्ताओं का अनुमान है कि यह पहली शताब्दी ईसा पूर्व और दूसरी शताब्दी ईस्वी के बीच हुए थे।
भारतीय इंटेलिजेंस के जनक दिवंगत बी।एन। मल्लिक, जो सबसे लंबे समय (1950-1964) तक भारतीय इंटेलिजेंस ब्यूरो के निदेशक थे, ने अपने संस्मरणों में कहा था कि यह अनुभवी भारतीय राष्ट्रीय नेता सी। राजगोपालाचारी (राजाजी) थे जिन्होंने 1950 में उनसे अपने अधिकारियों को खुफिया प्रशिक्षण के लिए तिरुक्कुरल का अध्ययन करने के लिए कहा था।
तिरुक्कुरल का अर्थ है पवित्र दोहे। इसमें 1330 कुरल हैं जो 133 अध्यायों में विभाजित हैं। कुरल 581 से 590 में राजा को खुफिया जानकारी प्राप्त करने के तरीके के बारे में मार्गदर्शन दिया गया है। कुरल 589 और 590 वह निर्धारित करते हैं जिसे अब हम ‘प्रतिबंधात्मक सुरक्षा’ की तरह ‘इंटेलिजेंस ट्रेडक्राफ्ट’ कहते हैं।
कौटिल्य और तिरुवल्लुवर के जासूसी के सिद्धांतों के बाद छत्रपति शिवाजी महाराज के दौर में जासूसी और खुफिया कार्यों के बारे में प्रसिद्ध बहिरजी नाईक के माध्यम से लिखित लेख मौजूद हैं, जिनके पास कुछ विवरणों के अनुसार 3000 जासूस थे। 2019 में डॉ। बाबासाहब आंबेडकर मराठवाड़ा विश्वविद्यालय में संस्कृत विभाग में पदस्थ डॉ। प्रदन्या कोनराडे ने एक लेख में बताया कि कैसे शिवाजी 1664 में औरंगजेब की वित्तीय राजधानी सूरत को लूटने में कामयाब रहे। वह कहती हैं कि बहिरजी नाईक अवसर देखकर ‘फकीर’, तपस्वी, कोली, भिक्षुक या बुजुर्ग व्यक्ति के रूप में अपना वेश बदलने में माहिर थे। जेम्स एम। कैंपबेल ने अपने हिस्ट्री ऑफ गुजरात (1896) में भी यह बात कही थी, जो बॉम्बे प्रेसीडेंसी भाग एक के आधिकारिक गजेटियर का हिस्सा है।