ब्लॉग: दुनिया के सबसे झगड़ालू पड़ोसी से कैसे निपटें?

By राजेश बादल | Published: March 20, 2024 11:17 AM2024-03-20T11:17:23+5:302024-03-20T11:23:22+5:30

अरुणाचल प्रदेश पर चीन ने फिर विवाद को तूल दिया है। वह कहता है कि समूचा अरुणाचल उसका है। बीते पांच साल में उसने इस खूबसूरत भारतीय प्रदेश के बत्तीस स्थानों के नाम ही बदल दिए हैं।

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फाइल फोटो

Highlightsअरुणाचल प्रदेश पर चीन ने फिर विवाद को तूल दिया है, वह कहता है कि पूरा अरुणाचल उसका हैचीन ने बीते पांच साल में अरुणाचल प्रदेश के बत्तीस स्थानों के नाम ही बदल दिए हैंचीन कहता है कि अरुणाचल का नाम तो जंगनान है और वह चीन का अभिन्न हिस्सा है

अरुणाचल प्रदेश पर चीन ने फिर विवाद को तूल दिया है। वह कहता है कि समूचा अरुणाचल उसका है। बीते पांच साल में उसने इस खूबसूरत भारतीय प्रदेश के बत्तीस स्थानों के नाम ही बदल दिए हैं। सदियों से चले आ रहे भारतीय नामों को नकारते हुए चीनी भाषा मंदारिन और तिब्बती भाषा के ये शब्द वहां सरकारी तौर पर मान लिए गए हैं। अब चीन कहता है कि अरुणाचल का नाम तो जंगनान है और वह चीन का अभिन्न हिस्सा है। इस तरह से उसने एक स्थायी और संभवतः कभी न हल होने वाली समस्या को जन्म दे दिया है।

जब-जब भारतीय राजनेता अरुणाचल जाते हैं, चीन विरोध दर्ज कराता है. भारत ने दावे को खारिज करते हुए चीन के रवैये की आलोचना की है। उसने कहा है कि नाम बदलने से वह क्षेत्र चीन का कैसे हो जाएगा। अरुणाचल में अरसे से लोकतांत्रिक सरकारें चुनी जाती रही हैं और वह भारत का अभिन्न अंग है। दोनों विराट मुल्कों के बीच सत्तर साल से यह सीमा झगड़े की जड़ बनी हुई है। क्या संयोग है कि 1954 में जब भारत ने तिब्बत को चीन का हिस्सा मान लिया और दोनों देशों के बीच दो बरस तक एक रूमानी दोस्ती सारा संसार देख रहा था, तो उन्हीं दिनों यही पड़ोसी तिब्बत के बाद अरुणाचल को हथियाने के मंसूबे भी पालने लगा था।

इसी कारण 1956 आते-आते मित्रता कपूर की तरह उड़ गई और चीन एक धूर्त-चालबाज पड़ोसी की तरह व्यवहार करने लगा। तब से आज तक यह विवाद रुकने के बजाय बढ़ता ही जा रहा है। आज भारत और चीन के पास सीमा पर बैठकों का अंतहीन सिलसिला है, एक बड़ी और एक छोटी जंग है, अनेक खूनी झड़पें हैं और कई अवसरों पर कड़वाहट भरी अंताक्षरी।

असल प्रश्न है कि आबादी में भारत के लगभग बराबर और क्षेत्रफल में लगभग तीन गुना बड़े चीन को जमीन की इतनी भूख क्यों है और वह शांत क्यों नहीं होती? उसकी सीमा से चौदह राष्ट्रों की सीमाएं लगती हैं। गौर करने की बात यह है कि इनमें से प्रत्येक देश के साथ उसका सीमा को लेकर झगड़ा चलता ही रहता है। यह तथ्य संयुक्त राष्ट्र की अधिकृत जानकारी का हिस्सा है। जरा देशों के नाम भी जान लीजिए। यह हैं-भारत, रूस, भूटान, नेपाल, म्यांमार, उत्तर कोरिया, मंगोलिया, वियतनाम, पाकिस्तान, लाओस, किर्गिस्तान, कजाकिस्तान, ताजिकिस्तान और अफगानिस्तान। इन सभी के साथ चीन की सीमा को लेकर कलह की स्थिति बनी हुई है। बात यहीं समाप्त नहीं होती।

नौ राष्ट्रों की जमीन या समंदर पर भी चीन अपना मालिकाना हक जताता है। इन नौ देशों में जापान, ताइवान, इंडोनेशिया, दक्षिण कोरिया, ब्रुनेई, फिलीपींस, उत्तर कोरिया, वियतनाम और कम्बोडिया जैसे राष्ट्र हैं। इस तरह कुल तेईस देशों से उसके झगड़ालू रिश्ते हैं। इस नजरिये से चीन संसार का सबसे खराब पड़ोसी है। इस सूची में रूस, पाकिस्तान, नेपाल, उत्तर कोरिया और म्यांमार के नाम देखकर आप हैरत में पड़ गए होंगे लेकिन यह सच है।

रूस से तो 55 साल पहले वह जंग भी लड़ चुका है। जापान से भी उसकी दो जंगें हुई हैं। इनमें लाखों चीनी मारे गए थे। ताइवान से युद्ध की स्थिति बनी ही रहती है। वियतनाम से स्प्रैटली और पेरासील द्वीपों के स्वामित्व को लेकर वह युद्ध लड़ चुका है। फिलीपींस ने पिछले साल दक्षिण चीन सागर में अपनी संप्रभुता बनाए रखने के लिए चीन के सारे बैरियर तोड़ दिए थे। नेपाल और भूटान अपनी सीमा में अतिक्रमण के आरोप लगा ही चुके है। उत्तर कोरिया के साथ यालू नदी के द्वीपों पर चीन का संघर्ष छिपा नहीं है। सिंगापुर में अमेरिकी सैनिकों की मौजूदगी से चीन के संबंध सामान्य नहीं हैं। मलेशिया के प्रधानमंत्री भी दक्षिण चीन महासागर के बारे में अनेक बार चीन से टकराव मोल ले चुके हैं।

अब आते हैं भारत और चीन के सीमा विवाद पर। भारत ने तो चीन को दिसंबर 1949 में ही मान्यता दे दी थी। इसके बाद 1950 में कोरियाई युद्ध में शुरुआत में तो हमने अमेरिका का साथ दिया, लेकिन बाद में हम अमेरिका और चीन के बीच मध्यस्थ बने और चीन का संदेश अमेरिका को दिया कि यदि अमेरिकी सेना यालू नदी तक आई तो चीन कोरिया में अपनी सेना भेजेगा। इसके बाद संयुक्त राष्ट्र में चीन को हमलावर करार देने का प्रस्ताव आया तो भारत ने चीन का समर्थन किया लेकिन चीन ने भारत की सदाशयता को नहीं समझा।

इसके बाद भी 1954 तक भारत और चीन मिलकर नारा लगा रहे थे-हिंदी, चीनी भाई-भाई. भारत ने तिब्बत के बारे में चीन से समझौता किया, लेकिन चीन की नजर भारतीय सीमा पर जमी रही। मगर, दो साल बाद स्थितियां बदल चुकी थीं। दिसंबर 1956 में प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई ने तीन-तीन बार प्रधानमंत्री नेहरूजी से वादा किया कि वे मैकमोहन रेखा को मान लेंगे पर तिब्बत में 1959 की बगावत के बाद दलाई लामा की अगुआई में 13 हजार तिब्बतियों ने भारत में शरण ली।

यहां उनका शानदार स्वागत हुआ। इसके बाद ही चीन के सुर बदल गए। भारत से मौखिक तौर पर मैकमोहन रेखा को सीमा मान लेने की बात चीन करता रहा, पर उसके बारे में कोई संधि या समझौता नहीं किया। उसने भारत सरकार को जहर बुझी चिट्ठियां लिखीं। नेहरूजी को कहना पड़ा कि चीन को अपने बारे में बड़ी ताकत होने का घमंड आ गया है। इसके बाद 1962 तक की कहानी लद्दाख में धीरे-धीरे घुसकर जमीन पर कब्जा करने की है। 1962 में तो वह युद्ध पर ही उतर आया।

उसके बाद की कहानी अविश्वास, चीन की दबे पांव भारतीय जमीन पर कब्जा करने और अंतहीन वार्ताओं में मामले को उलझाए रखने की है। हालांकि 1967 में फिर चीन के साथ हिंसक मुठभेड़ें हुईं। तब तक इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बन गई थीं। इस मिनी युद्ध में चीन की करारी हार हुई। घायल शेर की तरह चीन इस हार को पचा नहीं सका और तब से आज तक वह सीमा विवाद पर गुर्राता रहा है। डोकलाम हिंसा में गहरी चोट खाने के बाद भी वह बदलने को तैयार नहीं है। भारत भी संप्रभु देश है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसकी छवि चीन से बेहतर ही है। वह चीन की इन चालों को क्यों पसंद करे?

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