ब्लॉग: नीतीश कुमार का आरक्षण का दांव कितना सफल होगा?

By लोकमत समाचार सम्पादकीय | Published: November 9, 2023 11:25 AM2023-11-09T11:25:55+5:302023-11-09T11:27:45+5:30

डॉ. आंबेडकर के इस कदम से पिछले 75 वर्षों में अनुसूचित जाति के सदस्य विकास की मुख्य धारा में शामिल हो सके। लेकिन आजादी के बाद जैसे-जैसे समय बीतता गया, आरक्षण तमाम राजनीतिक दलों के लिए एक चुनावी हथियार बन गया।

Blog How successful will Nitish Kumar's reservation bet be? | ब्लॉग: नीतीश कुमार का आरक्षण का दांव कितना सफल होगा?

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (फाइल फोटो)

Highlightsआरक्षण का मौजूदा सिलसिला विशुद्ध राजनीतिक हानि-लाभ से प्रेरित है कमजोर वर्गों के कल्याण की ईमानदार भावना के साथ शुरू किया गया थादेश में सबसे पहले आरक्षण कोल्हापुर के छत्रपति शाहूजी महाराज ने 1901 में दिया था।

नई दिल्ली: बिहार में जातिगत जनगणना का विवरण सार्वजनिक करने के साथ-साथ ओबीसी तथा एससी-एसटी आरक्षण का कोटा बढ़ाने की घोषणा कर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने 2024 के लोकसभा एवं 2025 के राज्य विधानसभा चुनाव के लिए कमर कस ली है। मगर संवैधानिक सीमा से ज्यादा आरक्षण तय करना इतना आसान भी नहीं है और हो सकता है कि आरक्षण बढ़ाने के लिए बिहार में जो कानून बने, वह अदालती चुनौती का सामना करने में विफल रहे।

आरक्षण कोई नया प्रयोग नहीं है। यह सिलसिला देश की आजादी के पहले से चल रहा है। फर्क इतना है कि आरक्षण का मौजूदा सिलसिला विशुद्ध राजनीतिक हानि-लाभ से प्रेरित है जबकि आजादी के पूर्व आरक्षण प्रशासनिक आवश्यकताओं और कमजोर वर्गों के कल्याण की ईमानदार भावना के साथ शुरू किया गया था। देश में सबसे पहले आरक्षण कोल्हापुर के छत्रपति शाहूजी महाराज ने 1901 में दिया था। इसके पीछे उनकी नीयत नेक थी। वह दलित समुदाय की गरीबी दूर करना चाहते थे। 1908 में अंग्रेजों ने प्रशासन में हिस्सेदारी के लिए भारत में विभिन्न समुदायों को आरक्षण देना शुरू किया। 1921 में मद्रास प्रेसिडेंसी में गैरब्राह्मणों को 44 प्रतिशत और अनुसूचित जातियों को 8 फीसदी आरक्षण देने की व्यवस्था की गई।  ब्राह्मणों, मुसलमानों तथा एंग्लो इंडियन व ईसाइयों को भी 16-16 प्रतिशत आरक्षण मिला. यह कोई राजनीतिक कदम नहीं था। वह प्रशासन में भारतीय समुदायों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना चाहते थे। डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने दलितों के लिए आरक्षण का संवैधानिक अधिकार सुनिश्चित किया. वह दलितों को आर्थिक-सामाजिक बराबरी दिलवाने, उनके विकास का मार्ग सुगम बनाने के लिए आरक्षण को असरदार माध्यम मानते थे।

 डॉ. आंबेडकर के इस कदम से पिछले 75 वर्षों में अनुसूचित जाति के सदस्य विकास की मुख्य धारा में शामिल हो सके। लेकिन आजादी के बाद जैसे-जैसे समय बीतता गया, आरक्षण तमाम राजनीतिक दलों के लिए एक चुनावी हथियार बन गया। आरक्षण के माध्यम से राजनीतिक हित साधने का खेल शुरू हो गया। नब्बे के दशक में मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के पीछे भी पिछड़ों के कल्याण से ज्यादा राजनीतिक हानि-लाभ पर ही पूरा ध्यान केंद्रित था। इसके बाद तो आरक्षण ने जनता के सारे महत्वपूर्ण मसलों को गौण बना दिया। महाराष्ट्र ने हाल ही में सामाजिक कार्यकर्ता मनोज जरांगे के नेतृत्व में उग्र मराठा आरक्षण आंदोलन देखा।  गुजरात में पाटीदार, राजस्थान में गुर्जर, हरियाणा में जाट सरकारी नौकरियों तथा शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण चाहते हैं। गुजरात में पाटीदार आंदोलन के सहारे ही हार्दिक पटेल रातों-रात ताकतवर नेता के रूप में स्थापित हो गए। आरक्षण की मांग करनेवाले समुदायों को शांत करने के लिए संबंधित राज्यों में सत्तारूढ़ दलों ने कानून बनाने का दिखावा किया। इन सत्तारूढ़ पार्टियों को आरक्षण की सीमा से लेकर संवैधानिक व्यवस्था की पूरी जानकारी थी। इसके बावजूद आरक्षण को उन्होंने तय सीमा से ज्यादा देने के लिए कानून बनाया ताकि आंदोलनरत समुदायों की सहानुभूति चुनाव में मिले।  उन्हें यह मालूम था उनका यह कदम कानून की कसौटी पर खरा नहीं उतरने वाला।

अविभाजित आंध्र प्रदेश में मुसलमानों के लिए सरकारी नौकरियों में अलग से आरक्षण की व्यवस्था की गई। लेकिन सुप्रीम कोर्ट में यह फैसला टिक नहीं सका। महाराष्ट्र में भी पिछले एक दशक से मराठा आरक्षण को कानूनी रूप देने का प्रयास भाजपा, शिवसेना, कांग्रेस, राकांपा ने सत्तारूढ़ रहते वक्त किया। उनके प्रयास कानून की कसौटी पर खरे नहीं उतरे। भाजपा, शिवसेना (शिंदे) तथा राकांपा (अजित पवार गुट) के गठबंधन की सरकार भी इस दिशा में जद्दोजहद कर रही है।  पिछली सरकारों की विफलता को देखते हुए वह फूंक-फूंक कर कदम उठा रही है और दूसरी ओर मराठा समाज भी इस बात पर अड़ा हुआ है कि आरक्षण के नाम पर उसके हाथ में कोई खिलौना थमा नहीं दिया जाए। इस वक्त सबसे ज्यादा 69 प्रतिशत आरक्षण तमिलनाडु में है। वह संवैधानिक कसौटी पर भी खरा उतरा। लेकिन आरक्षण की मांग से जूझ रहे अन्य राज्यों ने तमिलनाडु मॉडल को नहीं अपनाया।

नीतीश कुमार महत्वाकांक्षी नेता हैं। विपक्षी दलों के नए गठबंधन पर अपनी पकड़ बनाने के लिए उन्हें बिहार में अपना प्रभुत्व साबित करना है। 2024 का लोकसभा तथा 2025 का बिहार विधानसभा चुनाव उन्हें इसका अवसर देंगे लेकिन सिर्फ घोषणा करने या कानून बना देने से उनका काम आसान नहीं हो जाता। वह जो भी कानून बनाएंगे, वह संविधान की कसौटी पर खरा उतरना चाहिए। इसके अलावा जातिवार जनगणना का विवरण सामने आने के बाद बिहार में वे समुदाय भी आरक्षण की मांग करेंगे जो गरीब घोषित हुए हैं और आरक्षण की सुविधा से वंचित हैं। ये समुदाय मांग कर सकते हैं कि आरक्षण का वर्तमान में लाभ उठा रहे आर्थिक रूप से समृद्ध वर्गों को इस सुविधा से बाहर किया जाए। इससे बिहार में नया सामाजिक टकराव भी शुरू हो सकता है, जिससे निपटना नीतीश कुमार के लिए आसान नहीं होगा. हो सकता है इस टकराव का उन्हें गंभीर राजनीतिक खामियाजा भी भुगतना पड़े। आरक्षण को एक राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल करना बंद होना चाहिए अन्यथा एक सीमा के बाद जनता गंभीर सबक सिखाने में नहीं हिचकिचाएगी।

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