ब्लॉग: बुजुर्गों के तिरस्कार का सांस्कृतिक उपहास
By लोकमत समाचार सम्पादकीय | Updated: February 20, 2024 12:11 IST2024-02-20T12:05:14+5:302024-02-20T12:11:16+5:30
कहते हैं ओल्ड इज गोल्ड-लेकिन अब यह बीते दौर की बात हो गई है। 2022 में भारत में रहने वाले वरिष्ठ नागरिकों की संख्या 14.9 करोड़ थी।

फाइल फोटो
विडंबना यह है कि जब सेवानिवृत्त लोगों की वित्तीय सुरक्षा सुनिश्चित करने की बात आती है, तो हमारा तंत्र, राज्य,सरकार और सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारियों में भेदभाव करता है। कहते हैं ओल्ड इज गोल्ड-लेकिन अब यह बीते दौर की बात हो गई है। 2022 में भारत में रहने वाले वरिष्ठ नागरिकों की संख्या 14.9 करोड़ थी।
यह आंकड़ा संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में दर्ज है। यह संख्या 2050 तक दोगुनी से भी अधिक हो जाने का अनुमान है। जैसे-जैसे संख्या बढ़ रही है, भारत को वरिष्ठ नागरिकों से जुड़ी गंभीर समस्याओं का सामना कर पड़ रहा है। यह सरकार के लिए आर्थिक और स्वास्थ्य आपदा बनकर उभर सकती है।
यदि उम्र सिर्फ एक संख्या है, तो यह गलत संख्या है। पिछले सप्ताह जया बच्चन के संसद में दिए भाषण को लेकर एक व्हाट्सएप्प चैट ने भारत के वृद्धों और वृद्धों की आबादी की दुर्दशा और उनके प्रति सरकार की उदासीनता की मार्मिक सच्चाई को उजागर किया।
मीम्स और डीपफेक की बाढ़ के बावजूद, सच्चाई को छुपाया नहीं जा सकता। एक ओर जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘सब का साथ, सबका विकास’ और ‘सब का विश्वास’ का ध्येय वाक्य लेकर आगे बढ़ रहे हैं वहीं, बड़े अधिकारी, कॉर्पोरेट नेता और अन्य लोग समावेश की जगह बहिष्कार का माहौल बना रहे हैं।
वृद्ध भारतीयों को 70 वर्ष की आयु पार करने के बाद स्वास्थ्य बीमा, बैंक ऋण और वीजा या ड्राइविंग लाइसेंस से वंचित कर दिया जाता है। अब उन्हें अपनी 10 साल पुरानी डीजल और 15 साल पुरानी पेट्रोल कारों को भी कबाड़ में बेचना होगा। पेंशन के अलावा कोई आय नहीं होने के कारण वे अपर्याप्त और अक्षम सार्वजनिक परिवहन प्रणाली पर निर्भर रहने के लिए मजबूर हैं।
पश्चिम में बुजुर्गों को अनुत्पादक मानव संपत्ति समझा जाता है। पश्चिमी जीवनशैली के बढ़ते प्रभाव के कारण भारत में संयुक्त परिवार प्रणाली ध्वस्त हो रही है, जो वृद्धजन सेवानिवृत्ति के बाद बेरोजगार हो जाते हैं, उन्हें बच्चों द्वारा उनके ही बनाए घरों से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है।
परिवार का पालन-पोषण करने और अपनी संतानों को अच्छी शिक्षा मुहैया करवाने वाले कुछ बुजुर्गों को अपने ही घर में बिस्तर नहीं मिलता या बीमार पड़ने पर अस्पताल ले जाने वाला कोई नहीं होता। वित्तीय और कानूनी व्यवस्था लालची हो चली है और इसी वजह से हमारे यहां साठ, सत्तर और अस्सी साल के करीब 1.50 करोड़ बुजुर्ग सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा से वंचित हैं।
यह समाज इन बुजुर्गों को अनुभव और ज्ञान के साथ संपत्ति मानने के बजाय देनदारियां समझता है। हर दस में से एक भारतीय पेंशन और वृद्धावस्था लाभ जैसी विभिन्न सरकारी रियायतों और सुविधाओं से वंचित है। विडंबना यह है कि जब सेवानिवृत्त लोगों की वित्तीय सुरक्षा सुनिश्चित करने की बात आती है, तो हमारा तंत्र, राज्य,सरकार और सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारियों में भेदभाव करता है। नेताओं और सरकारों ने वरिष्ठ नागरिकों को सेवानिवृत्ति के बाद आराम और सुरक्षित जीवन देने का वादा किया है।
देश के सभी 4,200 विधायकों और 790 सांसदों को आजीवन पेंशन और अन्य लाभ सुनिश्चित किए गए हैं। सभी आईएएस, आईपीएस और अन्य सरकारी अधिकारियों के लिए एक आकर्षक पेंशन योजना है जिसमें उनके वेतन का लगभग 40-50 प्रतिशत पेंशन के रूप में मिलता है। एक वरिष्ठ अधिकारी की औसत पेंशन प्रति व्यक्ति औसत आय से दस गुना होती है।
बैंक भी वरिष्ठ नागरिकों के साथ भेदभाव करने में पीछे नहीं हैं। वे सावधि जमा पर अतिरिक्त ब्याज की पेशकश करते हैं, पर बुजुर्गों को बहुचर्चित शब्द-स्टार्टअप के लिए ऋण देने से इनकार कर दिया जाता है। साठ और उससे अधिक उम्र के लोगों को एफडी के ब्याज पर आयकर का भुगतान करना पड़ता है, इस वजह से उनके नगदी का प्रवाह और भी कम हो जाता है. यह कैसी क्रूरता है, वे तो पहले ही उस आय पर कर का भुगतान कर चुके हैं।
जैसे-जैसे कॉर्पोरेट दिग्गजों ने भारत की स्वास्थ्य सेवा प्रणाली पर कब्जा बढ़ाया है, गरीब या मध्यम वर्ग के बुजुर्गों के लिए चिकित्सा सहायता पहुंच से बाहर होती जा रही है। निजी बीमा कंपनियां 70 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों को पॉलिसी नहीं देतीं, या एक सीमा से अधिक प्रीमियम नहीं वसूलतीं. दूसरी ओर, सभी सरकारी अधिकारियों और राजनेताओं को सेवानिवृत्ति के बाद आजीवन मुफ्त चिकित्सा सुविधाएं मिलती रहती हैं।
जिस तरह धनसंपन्न और प्रतिष्ठित व्यक्तियों को राष्ट्रीय बुनियादी ढांचे और सामाजिक सुरक्षा का एकमात्र अधिकार नहीं दिया जा सकता, उसी तरह भारत के असुरक्षित वरिष्ठ नागरिकों को उनके वैध हिस्से से वंचित भी नहीं किया जा सकता है।
अयोध्या के इस दौर में यह याद रखना चाहिए कि भगवान राम अपने माता-पिता की इच्छा को शिरोधार्य करके वनवास गए थे। आज भरत के माता-पिता का ही निर्वासन हो रहा है। भारत अपनी उस परंपरा और संतानोचित कर्तव्य की विरासत को भुला नहीं सकता, जो हिंदू मान्यताओं की आधारशिलाओं में से एक है। ‘अपने अभिभावकों की सेवा करें’ यही नए भारतीय युग का मंत्र होना चाहिए।