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ब्लॉग: दल बदलने से नहीं बढ़ती नेता की प्रतिष्ठा

By राजेश बादल | Updated: March 15, 2023 12:22 IST

जाहिर है कि इसके पीछे कोई सैद्धांतिक कारण नहीं, बल्कि निजी स्वार्थ होते हैं। इनके चलते लोकतंत्र को भारी नुकसान उठाना पड़ता है। जिन मतदाताओं के कंधों पर जनतंत्र का बोझ होता है, वे ठगे से रह जाते हैं। मान सकते हैं कि भारतीय मतदाता यूरोप अथवा पश्चिमी देशों के मतदाताओं की तुलना में कम जागरूक हैं इसलिए अपने राजनेताओं के इन अलोकतांत्रिक प्रपंचों के घातक परिणाम नहीं सूंघ पाते।

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ठळक मुद्देभारतीय सियासत वैचारिक आधार पर साफ-साफ दो धड़ों में बंट सी गई है।जिस दिन वोटर सौ फीसदी जागरूक हो जाएगा, उस दिन वह ऐसी राजनीति को नकार देगा।

इस साल की शुरुआत तीन राज्यों में विधानसभाओं के चुनाव से हुए और वर्ष की विदाई भी कुछ प्रदेशों के निर्वाचनों के साथ होगी। बीते चुनाव में तमाम पार्टियों के अनेक राजनेता पाला बदल कर इधर से उधर चले गए। अभी भी यह सिलसिला जारी है।

कुछ राजनीतिक दलों ने विचित्र सा गठबंधन किया। वे राष्ट्रीय स्तर पर एक गठबंधन के साथ खड़े नजर आते हैं, लेकिन प्रादेशिक चुनाव में वे उसके धुर विरोधी गठबंधन का दामन थाम लेते हैं। मौजूदा भारतीय सियासत वैचारिक आधार पर साफ-साफ दो धड़ों में बंट सी गई है। ऐसे में उन राजनेताओं और पार्टियों की क्या साख रह जाती है, जो राष्ट्र-राज्य स्तर पर अलग-अलग गठबंधन पकड़ कर रखते हैं। उनके दोनों हाथों में लड्डू होते हैं।

जाहिर है कि इसके पीछे कोई सैद्धांतिक कारण नहीं, बल्कि निजी स्वार्थ होते हैं। इनके चलते लोकतंत्र को भारी नुकसान उठाना पड़ता है। जिन मतदाताओं के कंधों पर जनतंत्र का बोझ होता है, वे ठगे से रह जाते हैं। मान सकते हैं कि भारतीय मतदाता यूरोप अथवा पश्चिमी देशों के मतदाताओं की तुलना में कम जागरूक हैं इसलिए अपने राजनेताओं के इन अलोकतांत्रिक प्रपंचों के घातक परिणाम नहीं सूंघ पाते। जिस दिन वोटर सौ फीसदी जागरूक हो जाएगा, उस दिन वह ऐसी राजनीति को नकार देगा।

चुनाव से ठीक पहले दल बदलने के कृत्य में यकीनन सियासी शुचिता नहीं होती। उत्तर-पूर्व के एक छोटे प्रदेश नगालैंड में कोई भी पार्टी विपक्ष में बैठने को तैयार नहीं है जबकि राज्य के हित में तो विपक्ष में रहते हुए भी सरकार का साथ दिया जा सकता है। भारतीय प्रदेशों में इसके अनेक उदाहरण हैं, जब सरकार के जनहितकारी निर्णयों में विपक्ष ने भी साथ दिया है। लोकतांत्रिक तकाजा तो यही है कि एक दल सरकार चलाता है तो बाकी पार्टियां प्रतिपक्षी बेंचों पर बैठती हैं क्योंकि उन्हें जनादेश ही विपक्ष में बैठने के लिए मिला है।

सरकार के पाले में जाने पर उस दल को हर वह फैसला मानना होता है, जो सरकार की नजर में जनहित का होता है। हरियाणा विधानसभा के लिए हुए पिछले चुनाव को याद कीजिए। जो पार्टियां चुनाव प्रचार के दरम्यान एक दूसरे पर जहर बुझे तीर छोड़ती रहीं, परिणाम आते ही वे आपस में मिल गईं और सरकार चलाने लगीं। ऐसी स्थिति में एक वोटर के पास कौन सा अधिकार बचता है कि वह अपने मत का मजाक बनते असहाय सा देखता रहे और कोई कार्रवाई न कर पाए।

नगालैंड में ही जनता दल यूनाइटेड यानी जेडीयू की प्रादेशिक इकाई ने भी भाजपा और एनडीपीपी के गठबंधन को समर्थन दे दिया था। इसके बाद राष्ट्रीय नेतृत्व ने पूरी प्रादेशिक इकाई को हटा दिया लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है। अब प्रादेशिक इकाई के कार्यकर्ता पूछ रहे हैं कि जेडीयू के मुखिया नीतीश कुमार स्वयं तीन बार भाजपा के साथ सरकार बनाते थे, तो उनके राजनीतिक सिद्धांत कहां चले जाते थे? नीतीश कुमार भाजपा गठबंधन वाली सरकार में रहते हुए राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस के लोगों पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाते थे और अब उन्हीं की सहायता से अपनी सरकार चला रहे हैं।

विडंबना है कि राजनीतिक कार्यकर्ता ही नहीं, आम मतदाता के मन में भी ये सवाल उठते हैं पर उससे राजनेताओं पर कोई असर नहीं पड़ता। अब कर्नाटक, मिजोरम, तेलंगाना, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ प्रदेश में विधानसभा चुनाव ने दस्तक दे दी है। ताजा खबर अविभाजित आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे किरण कुमार रेड्डी ने दी है। उन्होंने कांग्रेस छोड़ने की घोषणा कर दी है। अर्थ यह है कि तेलंगाना के अगले चुनाव में वे नया निशान खोजेंगे, उन पर भी पार्टियां डोरे डालेंगी।

मान सकते हैं कि जहां जिस पार्टी के उम्मीदवार मजबूत होते हैं, उन्हें विपक्षी पार्टियां ललचाने का काम करती हैं। कहीं-कहीं ऐसे भी आरोप लगाए जा रहे हैं कि यदि प्रतिपक्ष का कोई प्रत्याशी अपना दल नहीं छोड़ना चाहता तो उस पर दबाव डालने के लिए जांच एजेंसियों का सहारा लिया जा रहा है। आज की सियासत काजल की कोठरी है. कौन राजनेता दूध का धुला है? जब उसकी पोल-पट्टी उजागर होने लगती है तो वह इसी में भलाई समझता है कि चुपचाप दल-बदल कर जाए। बंगाल, असम और महाराष्ट्र में इस तरह के अनेक मामले सामने आ चुके हैं।

वैसे तो दल-बदल की यह महामारी दशकों से मुल्क की जम्हूरियत पर घुन की तरह लगी हुई है। जब आयाराम गयाराम ने मतदाताओं को परेशान कर दिया तो राजीव गांधी सरकार ने ही सबसे पहले दल-बदल विरोधी कानून बनाया था। खास बात तो यह है कि उस समय केंद्र सरकार इतनी अस्थिर नहीं थी कि दल-बदल से आतंकित हो और उसे अपनी सरकार गिरने का खतरा हो।

उस समय राजीव गांधी सरकार 404 के ऐतिहासिक बहुमत शिखर पर बैठी थी इसलिए इस कानून को बनाने के पीछे निश्चित रूप से उसकी मंशा पवित्र ही रही होगी। अफसोस, बाद के राजनेताओं ने दल-बदल कानून का मखौल उड़ाया। आज के राजनीतिक माहौल में इस कानून को कोई याद भी नहीं करना चाहता, यह अफसोसनाक है।

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