बिहार चुनाव में एनडीए की इस प्रचंड जीत के निहितार्थ
By राजकुमार सिंह | Updated: November 15, 2025 10:55 IST2025-11-15T05:56:08+5:302025-11-15T10:55:14+5:30
Bihar Latest Updates: पहला संदेश तो यही है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की लोकप्रियता और विश्वसनीयता अपने प्रतिद्वंद्वियों से बहुत ऊपर है.

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Bihar Latest Updates: एग्जिट पोल्स की अनुकूल भविष्यवाणियों के बावजूद बिहार विधानसभा चुनाव परिणाम चौंकानेवाले हैं. नीतीश कुमार से अधिक कार्यकाल तक भी कई मुख्यमंत्री देश में रहे हैं. इसलिए 20 साल के शासन के विरुद्ध सत्ता विरोधी भावना अपरिहार्य नहीं, लेकिन पिछले चुनाव में कड़े मुकाबले के मद्देनजर इस जनादेश की कल्पना शायद ही किसी ने की होगी.
इसलिए इस बार के बिहार विधानसभा चुनाव परिणाम गहन विश्लेषण और सही सबक सीखने की मांग करते हैं. पहला संदेश तो यही है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की लोकप्रियता और विश्वसनीयता अपने प्रतिद्वंद्वियों से बहुत ऊपर है. दूसरे, बिहार के मतदाता मानते हैं कि नीतीश ने अपने पूर्ववर्तियों से बेहतर शासन दिया है.
लालू-राबड़ी के 15 साल के शासन को उनके विरोधी जंगलराज करार देते हैं. उसी के विरुद्ध बदलाव का प्रतीक बन कर, भाजपा से गठबंधन में, नीतीश कुमार उभरे. बेशक दो बार पाला बदलने से नीतीश की छवि पर असर पड़ा, लेकिन चुनाव परिणाम बताते हैं कि उनकी साख बरकरार है. पिछले चुनाव के मद्देनजर इस बार भी बिहार में कड़े मुकाबले की उम्मीद थी,
लेकिन राजग (एनडीए) की चुनावी बिसात के आगे महागठबंधन कहीं नहीं टिक पाया. शुरू से बड़े भाई की भूमिका में रहे नीतीश कुमार के जदयू को इस बार अपने बराबर 101 सीटों पर ही चुनाव लड़ने को मनाना भाजपा के लिए आसान नहीं रहा होगा. चिराग पासवान की लोजपा (आर), जीतनराम मांझी का ‘हम’ और उपेंद्र कुशवाहा का ‘रालोमा’ भी ज्यादा सीटें मांग रहे थे,
लेकिन व्यापक हित में सब मान गए. इसके विपरीत महागठबंधन सत्ता विरोधी भावना की संभावना के बावजूद वैसी एकजुटता न तो सीट बंटवारे में दिखा पाया और न ही चुनाव प्रचार में. राजद और कांग्रेस में अंत तक औपचारिक सीट बंटवारा नहीं हो पाया. पिछली बार 70 सीटों पर लड़ कर 19 ही जीत पाई कांग्रेस इस बार 61 सीटों पर लड़ी.
महागठबंधन में आधा दर्जन सीटों पर दोस्ताना मुकाबले की स्थिति रही. राहुल गांधी की वोट अधिकार यात्रा के बाद तेजस्वी ने भी अपनी यात्रा निकाली. वोट अधिकार यात्रा के बाद लगभग दो महीने तक बिहार से नदारद रहे राहुल ने तेजस्वी के साथ संयुक्त चुनाव प्रचार की जरूरत नहीं समझी.
महागठबंधन के घोषणापत्र को ‘तेजस्वी प्रण’ का नाम दिया गया तो उसमें राहुल द्वारा ईबीसी के लिए घोषित 10 सूत्रीय एजेंडे को ज्यादा महत्व नहीं मिला. राजग ने सीटों से ले कर टिकट बंटवारे तक से बिहार के सामाजिक समीकरण को साधने में कोई कसर नहीं छोड़ी, जबकि महागठबंधन के सबसे बड़े दल राजद ने 143 में से 52 टिकट यादव समुदाय को ही दे दीं,
जो मुस्लिम समुदाय के साथ उसका परंपरागत वोट बैंक माना जाता है. 15 सीटों पर लड़ रही वीआईपी के मुकेश सहनी को उपमुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित कर दिया गया, जिससे ज्यादा बड़े वोट बैंक वाले ईबीसी, दलित और मुस्लिम वर्ग में गलत संदेश गया. चुनावी मुद्दों पर भी महागठबंधन में राजग जैसी स्पष्टता नहीं दिखी.
राजग ने लालू-राबड़ी के जंगलराज के आजमाए हुए मुद्दे के साथ ही केंद्र और राज्य सरकार के कामकाज पर चुनाव लड़ा, जबकि महागठबंधन खराब कानून व्यवस्था, गरीबी और पलायन के बजाय नौकरियां देने समेत लोकलुभावन वायदों पर केंद्रित रहा.
बेशक नीतीश सरकार ने भी चुनाव से ठीक पहले सवा करोड़़ महिलाओं के खाते में 10-10 हजार रुपए ट्रांसफर करने समेत कई लोकलुभावन योजनाओं का सहारा लिया, जिनका असर चुनाव पर पड़ा. राहुल गांधी समेत पूरे महागठबंधन ने ही एसआईआर और वोट चोरी को मुद्दा बनाया, पर चुनाव परिणाम बताते हैं कि वह चला नहीं.