Bihar Chunav 2025: चुनावी रेवड़ियों पर कब लगेगी लगाम?, लालच देकर राजनेता मतदाता को बरगलाते हैं...

By विश्वनाथ सचदेव | Updated: October 13, 2025 05:19 IST2025-10-13T05:19:55+5:302025-10-13T05:19:55+5:30

Bihar Chunav 2025: बिहार सरकार ने कुछ ही दिन पहले एक करोड़ से अधिक महिलाओं के बैंक खातों में दस-दस हजार रुपए जमा करवा कर इस रेवड़ी संस्कृति को एक नया आयाम दे दिया है.

Bihar Chunav 2025 When election freebies be curbed Politicians deceive voters by offering bribes blog Vishwanath Sachdev | Bihar Chunav 2025: चुनावी रेवड़ियों पर कब लगेगी लगाम?, लालच देकर राजनेता मतदाता को बरगलाते हैं...

सांकेतिक फोटो

Highlightsएक करोड़ महिलाओं का मतलब एक करोड़ परिवारों तक पहुंचना है.महिलाओं के सशक्तिकरण के नाम पर यह सीधी रिश्वत है.जनता को वित्तीय सहायता देकर जनता की सहायता ही तो की जाती है.

Bihar Chunav 2025: बिहार में चुनावों की तारीखें घोषित होने के साथ ही ‘राजनीतिक रिश्वतखोरी’ की बातें चलने लगी हैं.  राजनीतिक रिश्वतखोरी यानी मतदाता को रेवड़ियां बांटकर उन्हें अपने पक्ष में वोट देने के लिए लुभाना. यहां रेवड़ियों का मतलब वह ‘मुफ्त की सेवाएं’ हैं जिनका लालच देकर राजनेता मतदाता को बरगलाते हैं. पहले बिजली-पानी जैसी जीवनोपयोगी चीजें मतदाता को दी जाती थीं, देने का वादा किया जाता था, और अब तो नकद पैसा बांटा जा रहा है.  बिहार सरकार ने कुछ ही दिन पहले एक करोड़ से अधिक महिलाओं के बैंक खातों में दस-दस हजार रुपए जमा करवा कर इस रेवड़ी संस्कृति को एक नया आयाम दे दिया है. एक करोड़ महिलाओं का मतलब एक करोड़ परिवारों तक पहुंचना है. महिलाओं के सशक्तिकरण के नाम पर यह सीधी रिश्वत है.

सवाल यह पूछा जा रहा है कि किसी सरकार द्वारा इस तरह की नकद राशि बांटना क्या सरकार के पैसों से चुनाव जीतना नहीं है? आश्वासन वाली राजनीति कोई नई चीज नहीं है और ऊपरी तौर पर देखें तो यह उतनी गलत भी नहीं लगती.  आखिर जनता के हित की बात सोचना सरकार का काम है, और जनता को वित्तीय सहायता देकर जनता की सहायता ही तो की जाती है.

पर सवाल उठता है कि जनता की यह ‘मदद’ सरकारों और राजनीतिक दलों को चुनावों से पहले ही याद क्यों आती है? सवाल यह भी उठाना चाहिए कि राजनीति में ‘तोहफे’ बांटने की यह परंपरा अपराध की श्रेणी में क्यों नहीं आनी चाहिए? इस सवाल का सीधा-सा जवाब यह है कि यह अपराध सबकी मिलीभगत से हो रहा है.

राजनेताओं को, सरकारों को, राजनीतिक दलों को रेवड़ियां बांटने या कहना चाहिए रिश्वत देकर अपना काम निकालने का यह एक आसान तरीका लगता है. ऐसे में पारस्परिक लाभ के इस सौदे में भला किसी को कुछ गलत क्यों  लगेगा? अब तो हमारे राजनीतिक दल यह सोचना भी नहीं चाहते कि इस प्रतियोगिता में राज्यों का बजट घाटा लगातार बढ़ता जा रहा है- यह घाटा खतरनाक स्तर पर पहुंच रहा है.

यही सब देखते हुए यह मांग भी उठी थी कि मुफ्त संस्कृति वाली इस राजनीति के वित्तीय अनुशासन के बारे में भी कुछ नियम कायदे बनने चाहिए. कहा यह भी गया कि चुनाव घोषणापत्रों में ऐसी युक्तियों-योजनाओं के साथ उन पर होने वाले व्यय का ब्यौरा भी दिया जाना चाहिए,  यह भी बताया जाना चाहिए कि इन योजनाओं पर होने वाले खर्च की व्यवस्था कैसे होगी. पर ऐसा कुछ होता दिख नहीं रहा. जबकि राजनीतिक नैतिकता का तकाजा है कि राजनीति की यह घटिया संस्कृति समाप्त हो.

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