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भरत झुनझुनवाला का ब्लॉग: बैंकों का विलय नहीं पूर्ण निजीकरण करें

By भरत झुनझुनवाला | Updated: February 8, 2020 07:44 IST

हमें 1969 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण के निर्णय पर पुन: विचार करना चाहिए. उस समय उद्देश्य था कि बैंकों द्वारा छोटे उद्योगों और ग्रामीण क्षेत्नों में सेवाएं उपलब्ध कराई जाए. प्रश्न यह है कि इस कार्य को रिजर्व बैंक द्वारा निजी बैंकों से क्यों नहीं कराया जा सका था? रिजर्व बैंक के पास पर्याप्त अधिकार है. वह निजी बैंकों को मजबूर कर सकता है कि वे विशेष ग्रामीण क्षेत्नों में अपनी शाखाएं खोलें.

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वर्ष 1969 में प्रधानमंत्नी इंदिरा गांधी ने 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया था. उनका मानना था कि इन बैंकों पर निजी उद्यमियों का वर्चस्व है और ये जनता के पैसे को अपने व्यक्तिगत काम में ले रहे हैं. ग्रामीण क्षेत्नों में तथा गरीब लोगों को बैंक की सुविधा उपलब्ध कराने में इनकी रुचि नहीं है. इसमें कोई शक नहीं कि राष्ट्रीयकरण के बाद सरकारी बैंकों की शाखाओं का ग्रामीण क्षेत्नों में भारी विस्तार हुआ है और आम आदमी के लिए बैंक तक पहुंचना आसान हो गया है. इस दृष्टि से राष्ट्रीयकरण को सफल मानना चाहिए. लेकिन राष्ट्रीयकरण के बीते 50 सालों में दूसरी समस्या आ गई है.

इस लंबी अवधि में सरकार ने इन बैंकों में जो भी पूंजी का निवेश किया है उसका पूरी तरह क्षरण हो चुका है. इनके द्वारा भारी घाटा खाया जा रहा है. सरकार इनमें लगातार पूंजी डाल रही है और इनके द्वारा लगातार खाए जा रहे घाटे में यह पूंजी समाप्त होती जा रही है. यह घाटा मूलत: इसलिए हो रहा है कि सरकारी बैंक के कर्मियों के व्यक्तिगत स्वार्थ और बैंक के स्वार्थो में समन्वय नहीं है. ये अलग-अलग दिशा में चलते हैं. सरकारी बैंक के मुख्य अधिकारी के लिए लाभप्रद होता है कि वह घूस लेकर अथवा राजनीतिक दबाव में ऐसे लोगों को लोन दे जो कि बाद में खटाई में पड़ जाए. ऐसा करने से मुख्य अधिकारी को स्वयं लाभ होता है जबकि बैंक को घाटा होता है. निजी बैंकों में यह समस्या उत्पन्न नहीं होती है क्योंकि बैंक के मुख्य अधिकारी द्वारा घटिया लोन देने से बैंक को जो घाटा लगता है वह भी उसी मुख्य अधिकारी का होता है. ये एक दिशा में चलते हैं.  

वित्त मंत्नी ने बजट में इन बैंकों का निजीकरण करने के स्थान पर 10 बड़े सरकारी बैंकों का आपस में विलय करके इन्हें 4 बड़े बैंक बनाने का निर्णय लिया है. लेकिन यदि सरकारी बैंक के मुख्य अधिकारी के व्यक्तिगत उद्देश्य बैंक को घाटे में डालकर सिद्ध होते हैं तो विलय से इस समस्या का हल नहीं हो सकता है. विलय से सिर्फ इतना ही हो सकता है कि जो मुख्य अधिकारी ज्यादा घटिया था उसकी तुलना में अब कम घटिया मुख्य अधिकारी उस बैंक का संचालन करेगा.

हमें 1969 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण के निर्णय पर पुन: विचार करना चाहिए. उस समय उद्देश्य था कि बैंकों द्वारा छोटे उद्योगों और ग्रामीण क्षेत्नों में सेवाएं उपलब्ध कराई जाए. प्रश्न यह है कि इस कार्य को रिजर्व बैंक द्वारा निजी बैंकों से क्यों नहीं कराया जा सका था? रिजर्व बैंक के पास पर्याप्त अधिकार है. वह निजी बैंकों को मजबूर कर सकता है कि वे विशेष ग्रामीण क्षेत्नों में अपनी शाखाएं खोलें.

इसलिए सरकार को चाहिए कि विलय जैसा दिखावा करने के स्थान पर सभी सरकारी बैंकों का पूर्ण निजीकरण कर दे और रिजर्व बैंक इन्हें मजबूर करे कि यह ग्रामीण एवं प्राथमिकता वाले क्षेत्न में पर्याप्त सुविधाएं उपलब्ध कराएं.

टॅग्स :बैंकिंगइंडियामोदी सरकारनिर्मला सीतारमण
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