अटल बिहारी वाजपेयी, प्रेस के लिए एक आदर्श प्रधानमंत्री

By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Published: August 17, 2018 04:15 AM2018-08-17T04:15:24+5:302018-08-17T04:15:24+5:30

1971 में लोकसभा चुनाव और 1972 में विधानसभाओं के चुनाव जीतने के बाद इंदिरा गांधी की लोकप्रियता उन दिनों शिखर पर थी और विपक्षी नेता लगातार हार के बाद पूरी तरह से निराश थे

Atal Bihari Vajpayee, an ideal prime minister for the press | अटल बिहारी वाजपेयी, प्रेस के लिए एक आदर्श प्रधानमंत्री

अटल बिहारी वाजपेयी, प्रेस के लिए एक आदर्श प्रधानमंत्री

हरीश गुप्ता(लेखक)

अटल बिहारी वाजपेयीजी से मेरी पहली मुलाकात 1973 में हुई थी, जब मैं एक हिंदी न्यूज एजेंसी, हिंदुस्तान समाचार के लिए करता था और विभिन्न समाचार पत्रों के लिए लेख लिखता था. साथ ही दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर की पढ़ाई भी कर रहा था. 1971 में लोकसभा चुनाव और 1972 में विधानसभाओं के चुनाव जीतने के बाद इंदिरा गांधी की लोकप्रियता उन दिनों शिखर पर थी और विपक्षी नेता लगातार हार के बाद पूरी तरह से निराश थे. एक प्रमुख हिंदी अखबार चाहता था कि मैं अटल बिहारी वाजपेयी, ज्योतिर्मय बसु, भूपेश गुप्ता और अन्य नेताओं के साक्षात्कार लूं. कुछ कठिनाइयों के साथ मैंने वाजपेयीजी के घर का लैंडलाइन नंबर हासिल कर लिया, क्योंकि उन दिनों यह आसान नहीं था. मुङो आश्चर्य हुआ जब वाजपेयीजी ने खुद फोन उठाया और खुशी से मुङो उपकृत किया. वे संसद सदस्यों के लिए आवंटित 1 फिरोजशाह रोड बंगले में रहते थे.

मैं नर्वस था क्योंकि वे जनसंघ के सबसे लोकप्रिय नेता थे. स्थिति को भांपते हुए, उन्होंने मुङो सहज बना दिया और फिर तब तक बातें करते रहे जब तक कि एक महिला यह बताने नहीं आ गई कि उनके डिनर का समय हो चुका था. वाजपेयीजी ने मुझसे पूछा, ‘‘बरखुरदार, तुम्हारा न्यूजपेपर ये सब छापेगा क्या?’’ मैं पत्रकारिता के क्षेत्र में नया था और इन पेचीदगियों के बारे में नहीं जानता था. साक्षात्कार इंदिरा गांधी के बारे में काफी आलोचनात्मक था. लेकिन मैंने साहस दिखाया और उनसे कहा, ‘‘सर, यह मेरा एक असाइनमेंट है और मुङो विश्वास है कि यह छपेगा.’’ लेकिन वे आश्वस्त नहीं थे, क्योंकि उन्हें शक था कि वह कांग्रेस समर्थक अखबार है. वह साक्षात्कार बाद में प्रकाशित हुआ, हालांकि स्थानाभाव के कारण संपादित रूप में. मैंने उन्हें दुबारा फोन किया. अटलजी उसे पढ़कर काफी खुश थे और इसलिए भी खुश थे कि उनका प्रोफाइल फोटो ‘बहुत अच्छा’ था. इस प्रकार एक पत्रकार के रूप में मेरी उनके साथ लंबी यात्र शुरू हुई.

जब भी मैं उन्हें फोन करता था, वे मुझसे पूछते थे, ‘‘आजकल क्या चल रहा है?’’ क्योंकि वे हमेशा राजनीतिक गपशप में रुचि रखते थे. वे  ऐसे दिन थे जब कोई सुरक्षा गार्ड नहीं होता था, यहां तक कि बंगले के बाहर एक गार्ड भी नहीं और नेता आजादी के साथ नागरिकों, मीडिया से मिलते थे, सुरक्षा के किसी तामझाम के बिना. तब दूरदर्शन के अलावा कोई न्यूज चैनल नहीं था, जिसमें विपक्षी नेताओं के लिए स्थान नहीं था. इसलिए, प्रिंट मीडिया के लोग विपक्ष के लिए प्रिय थे. दूसरे, वाजपेयीजी खुद भी पत्रकारों के साथ घंटों समय बिताना पसंद करते थे. वे खानपान के शौकीन थे और भाजपा के कई नेता उनका दिल जीतने के लिए अपने संबंधित क्षेत्रों के स्वादिष्ट खाद्य पदार्थ लाते थे.   

अटलजी के साथ मेरा अधिक संपर्क तब शुरू हुआ जब मैं इंडियन एक्सप्रेस में था और संसद की कार्यवाही को बारीकी से कवर करता था. यह 1996 का साल था जब वे पहली बार 13 दिनों के लिए प्रधानमंत्री बने. राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा द्वारा राष्ट्रपति भवन में आमंत्रित किए जाने के बाद वे आडवाणी, डॉ. एम.एम. जोशी, जसवंत सिंह और कुछ अन्य नेताओं के साथ अपने 6 रायसीना रोड स्थित निवास पर बातचीत कर रहे थे. कोई नहीं जानता था कि उन्हें क्यों आमंत्रित किया गया है, क्योंकि भाजपा के पास न तो पर्याप्त संख्याबल था और न ही सहयोगी दल. जब वे अपने निवास से बाहर आए तो मैंने उन्हें अगला प्रधानमंत्री बनने के लिए बधाई दी. लेकिन वे मुस्कुराए और कहा, ‘‘मुङो राष्ट्रपति भवन से बाहर तो आने दो.’’ चूंकि वह खंडित जनादेश था, कोई नहीं जानता था कि आगे क्या होने वाला था. हालांकि भाग्य ने फैसला किया था कि अटलजी प्रधानमंत्री होंगे. वे राष्ट्रपति से प्रधानमंत्री बनने का पत्र लेकर लौटे थे. हालांकि तब एसपीजी परिदृश्य में आ गई थी, लेकिन अटलजी ने अपने बंगले में पत्रकारों के एक छोटे समूह के साथ आसानी से बातचीत की.

वाजपेयीजी के साथ मेरे रिश्तों में नया मोड़ 1999 में आया, जब वे पार्टी नेताओं और एसपीजी गार्ड के साथ संसद भवन में अपने कार्यालय से बाहर आ रहे थे. मैं कोने में खड़ा था और मुङो देख वे रुक गए. वह एक ऐतिहासिक दिन था, क्योंकि अप्रैल 1999 में विपक्ष उनकी सरकार को गिराने के लिए एकजुट था. उन्होंने मुझसे अपनी सामान्य शैली में   पूछा, ‘‘बरखुरदार, क्या हो रहा है?’’ मैंने कहा, ‘‘सर, संख्याबल में कुछ समस्या है.. बसपा तैयार नहीं है.’’

उन्होंने तुरंत जवाब दिया, ‘‘प्रमोदजी (प्रमोद महाजन) ने मुङो बताया है कि बसपा हमारे पक्ष में वोट देगी.’’ मैंने उन्हें बधाई दी और चला गया. बाद में लोकसभा में जो हुआ, उसने इतिहास बना दिया, क्योंकि बसपा ने सरकार के खिलाफ वोट दिया. स्पीकर ने ओडिशा के मुख्यमंत्री गिरधर गमांग को सरकार के खिलाफ वोट डालने की अनुमति दे दी, क्योंकि उन्होंने अपनी लोकसभा सीट नहीं छोड़ी थी. वाजपेयीजी को यह जानकर झटका लगा कि उनके प्रबंधकों ने उन्हें विफल कर दिया और सरकार एक वोट से हार गई. लेकिन उनकी महानता देखिए! उन्होंने सदन के बाहर मेरी पीठ थपथपाई, जहां मैं खड़ा था. उन्होंने कुछ  न कह कर भी सब कुछ कह दिया!

1999 में बहुमत के साथ सत्ता में आने के बाद वाजपेयीजी मीडिया के अधिक अनुकूल बन गए थे. उनके प्रेस सलाहकार अशोक टंडन खुद पूर्व में पीटीआई में काम कर चुके होने के नाते बहुत मददगार थे और जरूरत पड़ने पर सदैव उपलब्ध रहते थे. फिर भी कुछ वाकयों ने सरकार को असहज किया. लेकिन वाजपेयी वही बने रहे जो कि वे थे; मिलनसार. परिस्थितियों के बावजूद, उनकी स्नेहपूर्ण मुस्कान बनी रही. हालांकि संसद के केंद्रीय हॉल में एक बार उनकी नाराजगी का संकेत मिला. मैं कोने की सीट पर केंद्रीय मंत्री शत्रुघ्न सिन्हा के साथ बैठा था. जब वाजपेयीजी वहां से गुजरे तो हम सब उनके सम्मान में खड़े हो गए. वे रुके और कहा, ‘‘अरे, तुम इस खुराफाती पत्रकार के साथ क्या कर रहे हो.’’ शत्रुघ्न सिन्हा को भी समझ में नहीं आया कि वाजपेयीजी क्या कहना चाहते थे. मैंने भी नहीं जानने का बहाना किया लेकिन मैं जानता था कि कुछ खबरों से वे थोड़े अपसेट थे. हालांकि कुछ हफ्ते बाद, पीएमओ ने हमें विदेश यात्र पर वाजपेयीजी के साथ आने के लिए आमंत्रित किया. यह उनकी महानता थी

Web Title: Atal Bihari Vajpayee, an ideal prime minister for the press

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