आलोक मेहता का ब्लॉग: संपूर्ण कश्मीर को अपने कब्जे में लेने के रास्ते पर बढ़ें आगे

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: June 23, 2020 05:22 AM2020-06-23T05:22:50+5:302020-06-23T05:22:50+5:30

Alok Mehta's blog: Go ahead on the path of occupying entire Kashmir | आलोक मेहता का ब्लॉग: संपूर्ण कश्मीर को अपने कब्जे में लेने के रास्ते पर बढ़ें आगे

जम्मू-कश्मीर का एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे में हैं

Highlightsचीन के सैनिकों ने भारत की जमीन पर खून बहाने की कोशिश की.भारतीय कंपनियों द्वारा चीन में किए गए पूंजी निवेश की महत्ता चीन के शीर्ष नेता भी समझते हैं. अमेरिका के साथ भारत के  संबंध तेजी से बढ़ने से भी चीन को तकलीफ हो रही है.

आलोक मेहता.

चीन ने लद्दाख के गलवान क्षेत्र में सीधा टकराव लेकर जहां हमें विचलित किया, वहीं भविष्य के लिए भारत को दृढ़ता से वार्ता, सैन्यशक्ति के प्रदर्शन और अक्साई चिन  वापस लेने के साथ पाकिस्तान द्वारा कब्जाए हुए कश्मीर को लेने के रास्ते खोल दिए हैं. लद्दाख में युद्ध जैसी स्थिति पैदाकर चीन वार्ता की टेबल पर बैठने के बाद तवांग- अरुणाचल की बात करने लगता है.

अरुणाचल और लद्दाख भारत के अभिन्न अंग और लोकतांत्रिक प्रदेश हैं. इसलिए गलवान घाटी में चीन की घुसपैठ पर सैन्य, कूटनीतिक, शीर्ष राजनैतिक वार्ताओं के दौरान भारत अपने कश्मीर के अधिकार पर चीन को पाकिस्तान का साथ नहीं देने के मुद्दे को प्रभावी ढंग से रख सकता है. सीमा विवाद पर करीब पंद्रह वर्षों से चल रही वार्ताएं आगे भी जारी रह सकती हैं. लेकिन अब चीन को अपने पुराने अड़ियल रवैये को बदलने के लिए बाध्य करना भारतीय रणनीति का हिस्सा है.

ड्रैगन यानी सर्प दैत्य - चीन की पहचान यही है. मुझे 1993 में प्रधानमंत्री नरसिंह राव के साथ चीन जाने का पहला अवसर मिला था और तब संबंधों का नया अध्याय शुरू हुआ था. उसके बाद राव ने ही 1996 में द्विपक्षीय संबंधों के मोटे धागे बांधे. संयोग रहा कि 2003 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की यात्रा और समझौते का भी गवाह रहा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उन्हीं समझौतों पर भारतीय हितों की रक्षा करते हुए आगे बढ़ रहे थे. लेकिन चीन के सैनिकों ने भारत की जमीन पर खून बहाने की कोशिश की.

मुझे भारत-चीन की सरकारी वार्ताओं से अधिक दोनों देशों की निजी कंपनियों के बीच होते रहे अरबों डॉलर के समझौतों पर ध्यान दिलाना आवश्यक लगता है. एक तरफ चीन भारत के साथ लगभग 100 अरब डॉलर का व्यापर कर रहा है और अनेक भारतीय कंपनियों में भारी पूंजी लगाकर हिस्सेदार बना हुआ है. भारत का निर्यात उससे बहुत कम है यानी बही खाते में घाटा हमारा है. दूसरी तरफ भारतीय कंपनियों द्वारा चीन में किए गए पूंजी निवेश की महत्ता चीन के शीर्ष नेता भी समझते हैं.

मैं स्वयं शंघाई से जुड़ी हेयान काउंटी औद्योगिक बस्ती में भारतीयों के कारखाने, ऑफिस देखकर आया हूं. भारत में लोगों को यह गलतफहमी रहती है कि चीन की तरक्की उसने अकेले कर ली है. असलियत यह है कि 1993 तक राजधानी बीजिंग भी लगभग साइकिल युग में थी और हमें सड़कों पर इक्का-दुक्का कारें दिखती थीं. इस चक्कर में हम जैसे पत्रकारों को पैदल अधिक चलना पड़ता था. अमेरिका, यूरोप, भारत और खाड़ी के देशों के पूंजी निवेश से उसे आधुनिक होने और आर्थिक शक्ति बनने का लाभ मिला.

हमारी आईटी कंपनी इन्फोसिस, विप्रो, टीसीएस, टेक महिंद्रा, एचसीएल जैसी कंपनियों ने पिछले दस-पंद्रह वर्षों में उसे संचार संसाधनों में अग्रणी सा बना दिया. यही नहीं इन कंपनियों में नब्बे प्रतिशत कर्मचारी  चीन के स्थानीय लोग रहे हैं. जब अटलजी के साथ समझौता हुआ, तब चीन में भी रोजगार की गंभीर समस्या थी इसीलिए चीन ने भारत के साथ अमेरिका के दरवाजे पूरी तरह खोल दिए. देवेगौड़ा और मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में भी आर्थिक समझौते होते रहे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए भी  सीमा विवादों पर कड़ा रुख अपनाते हुए भारतीय हितों वाले आर्थिक संबंधों को आगे बढ़ाया. इस संदर्भ में याद रखा जाना चाहिए कि सारी लड़ाई के बावजूद आज भी चीन और अमेरिका में दोनों देशों की कंपनियों के खरबों डॉलर लगे हुए हैं.

दक्षिण कोरिया, जापान तो सैकड़ों वर्षों से चीन को दुश्मन मानते रहे हैं, लेकिन व्यापार, पूंजी निवेश के आर्थिक मामलों में पूरी तरह चीन से रिश्ते जोड़े हुए हैं. इस समय भारतीय सीमा पर चीन की धोखाधड़ी से घुसपैठ की कोशिश के पीछे उसकी जमीन हथियाओ साजिश के साथ आर्थिक हालत बिगड़ना, कोरोना महामारी फैलाने के पाप से दुनिया से मिल रही नाराजगी-नफरत, विदेशी कंपनियों के पलायन की तैयारियां, फिर कम्युनिस्ट पार्टी में भी अंदर बढ़ रहा असंतोष भी है. देंग के सत्ता काल में भी पार्टी में अंतरकलह बढ़ गई थी. एकदलीय कठोर व्यवस्था में यह बात कम सामने आती है.

दूसरे, अमेरिका के साथ भारत के  संबंध तेजी से बढ़ने से भी चीन को तकलीफ हो रही है. बहरहाल, इस तनाव के बावजूद चीन बातचीत से समाधान की बात कह रहा है. भारत अब केवल अपने हितों की रक्षा करते हुए कोई सहमति देगा. अपनी स्वतंत्रता, संप्रभुता और  आत्मनिर्भरता के लिए आर्थिक शक्ति बढ़ाना आवश्यक है. आज भी चीन का रक्षा बजट हमसे कई गुना अधिक है. दोनों देश परमाणुशक्ति संपन्न हैं  इसलिए यही कामना की जा सकती है कि चीन को सद्बुद्धि आए और वह अपनी सीमाओं में रहकर अपनी जनता की स्थिति सुधारने में अपनी ताकत लगाए. कोरोना काल में और इसके बाद भी भारत सरकार की यही प्राथमिकता रहने वाली है.

Web Title: Alok Mehta's blog: Go ahead on the path of occupying entire Kashmir

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