आलोक मेहता का ब्लॉग: मीडिया से खुशी और नाराजगी का सवाल
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: December 29, 2019 06:05 AM2019-12-29T06:05:56+5:302019-12-29T06:05:56+5:30
यों वर्ष 2019 बेहद उथल-पुथल और क्रांतिकारी वर्ष कहा जा सकता है क्योंकि कश्मीर से लेकर असम तक के लिए ऐतिहासिक फैसले और चुनावों के साथ भारी राजनीतिक टकराव की स्थितियों में मीडिया को दोनों पक्षों का कोप भाजन बनना पड़ा.
देश-दुनिया की सालाना समीक्षा करते समय अपना घर-आंगन, सफलता-विफलता, समाज-सत्ता या प्रतिपक्ष की नाराजगी का आत्ममंथन भी होना चाहिए. यों वर्ष 2019 बेहद उथल-पुथल और क्रांतिकारी वर्ष कहा जा सकता है क्योंकि कश्मीर से लेकर असम तक के लिए ऐतिहासिक फैसले और चुनावों के साथ भारी राजनीतिक टकराव की स्थितियों में मीडिया को दोनों पक्षों का कोप भाजन बनना पड़ा.
यही मीडिया की विश्वसनीयता का प्रमाण कहा जा सकता है. प्रतिपक्ष तो हमेशा यही शिकायत करता है कि मीडिया सत्ता के साथ हो गया. इन दिनों राजनीतिक खेमे ही नहीं मीडिया का एक वर्ग भी अपने समुदाय पर हमले करने लगा है. टेलीविजन के कुछ समाचार चैनलों की उत्तेजक बहस कभी-कभी निजी आरोपों और अशोभनीय भाषा के कारण समाज में भी प्रतिष्ठा खराब करने लगी.
लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि अखबार, टेलीविजन, वेबसाइट जैसे समाचार माध्यमों की प्रसार संख्या, पाठक-दर्शक संख्या में लगातार वृद्धि होती रही है. चुनावी दौर में जोर-शोर से नए चैनल शुरू हुए और राजनीतिक आका होने पर एकाध कुछ महीनों में बंद भी हो गए. फिर भी विभिन्न राज्यों में पत्नकारों पर हिंसक हमलों की घटनाएं चिंताजनक हैं.
असल में जो राजनेता सत्ता या धनबल से मीडिया को खरीदने अथवा डराने का खेल करते रहे हैं, उन्हें हमेशा यह आशंका रहती है कि यदि उसकी आलोचना और उसके विरोधी का पक्ष लिया जा रहा है, तो कोई सौदा हो गया है, जबकि ऐसा होना जरूरी नहीं है. जम्मू-कश्मीर के लिए अनुच्छेद 370 हटाने और तीन तलाक की व्यवस्था पर रोक के कानून का समर्थन करने वाले पत्नकारों या मीडिया संस्थानों को आरोपों के घेरे में खड़ा किया जाना लोकतांत्रिक परंपरा और अभिव्यक्ति की स्वतंत्नता की मूल भावना की दृष्टि से अनुचित है.
इसमें कोई शक नहीं कि भारी बहुमत से सत्ता पाने वाले सत्तापक्ष के क्रांतिकारी निर्णयों और प्रधानमंत्नी नरेंद्र मोदी के कामकाज की प्रशंसा करने वाले मीडिया समूहों का वर्चस्व दिखने लगा है. फिर भी भाजपा और उसके साथी दलों के कई नेता अपनी आलोचना होने पर संपूर्ण मीडिया को ही पूर्वाग्रही कहने लगते हैं. प्रदेशों में सत्ताधारी दलों की नाराजगी सर्वाधिक ङोलनी पड़ रही है. उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल और कर्नाटक जैसे राज्यों में इस साल मीडिया को अधिक निशाना बनाया गया.
दुर्भाग्य यह है कि जिस मीडिया के बल पर लोग सत्ता में आते हैं, वही बाद में उससे दूरी रखने एवं दबाव डालने लगते हैं. फिर भी मेरा मानना रहा है कि पत्नकारों को नौकरी से निकलवाने की धारणा गलत है. यदि कोई पत्नकार एक पक्षीय हो जाए तो पाठक-दर्शक नाराज होंगे ही, संस्थान के प्रबंधक ही विदाई के लिए बाध्य हो जाते हैं. इसी तरह यदि पत्नकार या संस्थान आमदनी अथवा अन्य व्यवसाय में नियम कानून के विरुद्ध काम करेगा तो किसी भी सरकारी एजेंसी की कार्रवाई को अभिव्यक्ति की आजादी से जोड़कर दुखड़ा सुनाने का हकदार कैसे हो सकता है?
मीडिया के पूर्वाग्रही होने की गलतफहमी किसी को भी होती रहे लेकिन वास्तविकता यह है कि सभी पक्षों की बात रखने के लिए टीवी चैनलों ने सारी सीमाएं लांघकर कट्टरपंथियों-पाकिस्तान तक के गैर जिम्मेदार लोगों को अपनी झूठी बातें रखने के अवसर दिए हैं. इतनी उदारता तो अमेरिका और यूरोप का मीडिया भी नहीं दिखाता. धार्मिक भावना से जुड़े विषयों पर कई अनजान धार्मिक ठेकेदार बहुत भड़काऊ भाषण देने लगे हैं और इसे कानून व्यवस्था की अनदेखी या उदारता कहा जाएगा कि उन चैनलों पर कठोर कार्रवाई नहीं हुई.
इस वर्ष बलात्कार, पुलिस ज्यादतियों, घोटालों की कई गंभीर घटनाओं पर मीडिया की खोजी पत्नकारिता का लाभ भी हुआ और अदालतों ने हस्तक्षेप करके फैसले भी दिए. सीमा पार की गई सैनिक कार्रवाई हो या अंतरिक्ष यात्नाओं का जीवंत प्रसारण समाज को जागरूक बनाने में सहायक हुआ है.
मीडिया से खुशी और नाराजगी के बीच सरकार ने प्रेस एवं पुस्तक रजिस्ट्रेशन कानून 1867 को बदलने के लिए पहला कदम उठाया है. आजादी के 72 साल बाद ही सही, इस कानून में बदलाव की आवश्यकता रही है. इस कदम से जिला स्तर पर पंजीकरण और बाबूई हस्तक्षेप से मुक्ति मिलेगी. यों एक प्राधिकरण बनाने का प्रस्ताव है और उम्मीद की जानी चाहिए कि नए नियम-कानूनों में पत्नकारिता और प्रकाशन मुद्रण के कामकाज में अधिक स्वतंत्नता और उत्तरदायित्व का प्रावधान रहेगा. इसी तरह भारतीय प्रेस परिषद का दायरा बढ़ाने अथवा मीडिया कौंसिल गठित करने की वर्षो से चल रही मांग को ध्यान में रखकर संसद द्वारा कोई कदम उठाया जाना चाहिए.
इस समय प्रेस कौंसिल को दंतहीन माना जाता है. उसकी तथा एडिटर्स गिल्ड द्वारा तय आचार संहिता का पालन भी नहीं हो पा रहा है. इसलिए अपनी विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए मीडिया को स्वयं आत्मसमीक्षा करने की जरूरत है. सारी कमियों और कठिनाइयों के बावजूद भारतीय मीडिया 2019 में अधिक प्रभावशाली हुआ है. यह धारणा भी गलत है कि लोग अखबार कम पढ़ते हैं या टीवी भी कम देखते हैं और डिजिटल ही बड़ा माध्यम हो गया है.
निश्चित रूप से नई पीढ़ी डिजिटल हो रही है लेकिन हिंदी, मराठी, मलयालम जैसी भारतीय भाषाओं का प्रकाशन या प्रसारण आज भी अधिक लोगों तक जा रहा है. असल में समाचार माध्यम एक-दूसरे के पूरक हैं, उन्हें प्रतियोगी नहीं समझा जाना चाहिए. तो नए वर्ष 2020 में मीडिया के अधिक स्वस्थ, स्वतंत्न व विश्वसनीय होने की आशा और शुभकामनाएं.