आलोक मेहता का ब्लॉग: मंदिरों को राजकीय संरक्षण के मुद्दे पर विवाद
By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Published: February 9, 2020 05:21 AM2020-02-09T05:21:50+5:302020-02-09T05:21:50+5:30
एक बात याद रखी जानी चाहिए कि धर्म और आपद्धर्म दो व्यवस्थाएं हैं जिनसे भारतीय जन अपने भूत और भविष्य से रिश्ते जोड़ता है. जब धर्म में उसे आडंबर दिखने लगता है तो वह उससे विमुख होने लगता है. जहां उसे कट्टरता दिखने लगती है, वह उससे किनारा करने लगता है. भारतीय राजनीति में भी पाखंड और कट्टरता होने पर उसे जनता ने नकारा है. मुस्लिम लीग हो या हिंदू महासभा, कभी भारत में भारी समर्थन नहीं प्राप्त कर सकी.
केंद्र सरकार ने अयोध्या में मंदिर निर्माण के लिए न्यास की घोषणा कर दी. मंदिर निर्माण पर खर्च की व्यवस्था न्यास की ओर से होगी. मंदिर निर्माण के लिए जन सामान्य से जुटाई गई धनराशि के अलावा केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा भी संपूर्ण अयोध्या क्षेत्न के विकास और लाखों तीर्थयात्रियों के लिए विभिन्न सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए करोड़ों रुपए खर्च होंगे. इस खर्च में गड़बड़ी न हो इसलिए उसका ठीक से ऑडिट किया जाएगा. इस बात पर किसी को आपत्ति नहीं है. दूसरी तरफ उत्तराखंड विधानसभा में बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्नी, यमुनोत्नी के 50 मंदिरों के सरकारी अधिग्रहण का विधेयक पारित होकर जल्द कानून का रूप लिए जाने पर कांग्रेस पार्टी सहित कुछ स्थानीय धार्मिक संगठनों द्वारा विरोध हो रहा है.
यह कितनी अजीब बात है कि इसी कांग्रेस पार्टी ने प्रदेश के गठन के साथ सत्ता में आने पर मंदिरों के अधिग्रहण का प्रस्ताव विधानसभा में पारित करवाया था, लेकिन बाद में निर्णय वापस लिया था. सत्ताधारी और विपक्ष ही नहीं, क्षेत्न-प्रदेश और देश दुनिया से आने वाले तीर्थयात्नी-पर्यटक यह जानते हैं कि हिमालय के दुर्गम इलाके में सड़क, बिजली, पानी, विश्रम स्थलों और बर्फबारी या पर्वत श्रृंखलाएं टूटने, बाढ़ - भूकंप की परिस्थितियों को संभालने, सुविधाओं की जिम्मेदारी की अपेक्षा सरकार से होती है. हजारों साल पहले भी मंदिरों को राज संरक्षण मिलता रहा और दक्षिण भारत में तो अरबों रुपए मूल्य के सोने-चांदी, जवाहरात पर राजा के वंशज का अधिकार बना हुआ है. यदि वह भंडार भारत सरकार को मिल जाए तो देश में रोजगार की समस्या संभवत: दो-चार वर्ष में हल हो जाए.
असल में दुर्भाग्य यह है कि राजनीति ही नहीं अन्य क्षेत्नों में भी दोहरे मानदंड अपनाए जाते हैं. कुंभ मेले हों अथवा बड़े त्यौहार- सरकारों को बहुत इंतजाम करना पड़ता है. भारत सरकार अब बद्रीनाथ, केदारनाथ, द्वारका, जगन्नाथ पुरी, रामेश्वरम सहित बारह ज्योतिर्लिगों की यात्नाएं सुगम करने और एक-दूसरे से जोड़ने की बहुत बड़ी योजना भी क्रियान्वित करने जा रही है. ऐसी दूरगामी हितों और पर्यटन को शिखर पर पहुंचाने वाली योजना पर भी सरकारी खजाने या यूं कहा जाए तो जनता से मिली कर की धनराशि खर्च होगी. माता वैष्णो देवी संस्थान बोर्ड या तिरुपति देवस्थानम न्यास में भी तो सरकारी भागीदारी है.
प्रबंधन में मुख्यमंत्नी, मुख्य सचिव और भारतीय प्रशासनिक सेवा का एक अधिकारी मुख्य कार्यकारी अधिकारी रहते हैं. इससे इन धार्मिक स्थानों की व्यवस्था वर्षो से अच्छी तरह चल रही है. अमरनाथ की यात्ना के लिए सरकार की भूमिका महत्वपूर्ण हो गई, क्योंकि सुरक्षा के प्रबंध भी सेना और पुलिस को मिलकर करने होते हैं.
कैलाश मानसरोवर की यात्ना के लिए तो बाकायदा भारत सरकार ही अधिकतर इंतजाम करती है. केदारनाथ का सबसे अधिक महत्व है लेकिन पिछले वर्ष भी दान राशि से मात्न 12 करोड़ रुपयों की आय रिकॉर्ड में आई है. इतनी रकम से कितना इंतजाम हो सकता है? इस दृष्टि से धार्मिक स्थलों के संरक्षण, विकास, आमदनी-खर्च को अधिक पारदर्शी एवं व्यवस्थित करने के साथ दान पुण्य की राशि से शिक्षा, स्वास्थ्य, गरीबों के पोषण की आचार संहिता - नियम कानून भी तय होने चाहिए.
आखिरकार प्राचीन काल से मंदिरों के साथ गुरुकुल और धर्मशालाएं होती थीं. प्रसाद सुबह-शाम मुफ्त में बंटता था और गरीब वहीं पेट भर खा लेते थे. गुरुद्वारों में आज भी लंगर में हजारों लोग बिना किसी दान राशि के भर पेट अच्छा भोजन पाते हैं. लेकिन अधिकांश बड़े मंदिरों में अब प्रवेश शुल्क के साथ प्रसाद के लड्डू या भोजन खरीदना होता है. मतलब न हम परंपरा निभाना चाहते हैं और न ही सामाजिक उत्तरदायित्व वाली व्यवस्था. अराजकता से आस्था आखिर कैसे पैदा होगी?
एक बात याद रखी जानी चाहिए कि धर्म और आपद्धर्म दो व्यवस्थाएं हैं जिनसे भारतीय जन अपने भूत और भविष्य से रिश्ते जोड़ता है. जब धर्म में उसे आडंबर दिखने लगता है तो वह उससे विमुख होने लगता है. जहां उसे कट्टरता दिखने लगती है, वह उससे किनारा करने लगता है. भारतीय राजनीति में भी पाखंड और कट्टरता होने पर उसे जनता ने नकारा है. मुस्लिम लीग हो या हिंदू महासभा, कभी भारत में भारी समर्थन नहीं प्राप्त कर सकी.
आजकल साधु-संत सत्ता में भागीदारी चाहते हैं , लेकिन अवसर आने पर सत्ता के किसी हस्तक्षेप के लिए तैयार नहीं होते. मंदिरों के अधिग्रहण की बात तो दूर है, अयोध्या में मंदिर निर्माण के ट्रस्ट में भागीदारी पर ही कुछ साधु-संतों ने विरोध के तेवर अपना लिए. उपासना स्थलों पर कम से कम धर्मगुरु कहलाने वाले राजनीति न करें. इसी तरह विभिन्न राजनीतिक दल संविधान की दुहाई देने के साथ धर्म को राजनीतिक हथियार की तरह इस्तेमाल करके जनता को भ्रमित न करें तो सही मायने में उनके राजधर्म का पालन होगा.