ब्लॉग: साहित्य में निरंतर प्रयोग करते रहे अज्ञेय
By गिरीश्वर मिश्र | Updated: March 7, 2024 12:38 IST2024-03-07T12:31:28+5:302024-03-07T12:38:33+5:30
बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में जिन मेधाओं ने भारतीय विचार जगत को समृद्ध करते हुए यहां के मानस के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई उनमें कवि, लेखक और पत्रकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ (1911-1987) की उपस्थिति विशिष्ट है।

फाइल फोटो
बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में जिन मेधाओं ने भारतीय विचार जगत को समृद्ध करते हुए यहां के मानस के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई उनमें कवि, लेखक और पत्रकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ (1911-1987) की उपस्थिति विशिष्ट है। कुशीनगर में पुरातत्व शिविर में जन्मे अज्ञेय जीवन भर देश और विदेश में रमते और भ्रमण करते रहे। वैविध्य और उथल-पुथल से भरा उनका जीवन चकित करने वाला है।
उनकी औपचारिक शिक्षा अव्यवस्थित थी और वे अध्यवसाय और जीवनानुभव से ही अपने को समृद्ध करते रहे। लखनऊ, श्रीनगर, मद्रास से घूमते-फिरते लाहौर से बीएससी की परीक्षा उत्तीर्ण की। फिर लगभग सात वर्ष एक क्रांतिकारी का जीवन जिया।
लाहौर, अमृतसर और दिल्ली की जेलों में रहे। इस बीच साहित्य-रचना में जो सक्रिय हुए तो वह जीवन का पर्याय बन गया। उनकी प्रसिद्ध कृति ‘शेखर एक जीवनी’ जेल में ही रची गई थी। वहीं से कविता संग्रह भी निकले और कहानियां जैनेंद्र कुमार और प्रेमचंद के सौजन्य से छपीं।
किसी ठौर पर अधिक समय रुकना उनको नहीं सुहाता था। जीवन को यात्रा मान वे सदा सैलानी ही बने रहे। क्रांतिकारी, सैनिक, पत्रकार, प्राध्यापक और सम्पादक जैसी नौकरी कुछ-कुछ दिन की जरूर, पर कहीं टिके नहीं। शायद सीधी राह पर चलना रचयिता वाले स्वभाव से मेल नहीं खाता था। कवि तो प्रजापति होता है उसे जब जैसा रुचता है वैसी दुनिया गढ़ने को आतुर रहता है।
प्रयोग और प्रयोगवाद के लिए अज्ञेय ने काफी ताप-संताप सहा था। अज्ञेय की बौद्धिक संवेदना को हिंदी जगत में सहज स्वीकृति नहीं मिली थी। लंबे समय तक रहस्यवाद, पूंजीवाद और अस्तित्ववाद के इर्द-गिर्द उनकी रचनाओं के पाठ-कुपाठ जारी रहे। परंतु अज्ञेय थे कि ऊर्जा और निष्ठा के साथ स्वाधीनता, वरण की स्वतंत्रता और व्यक्ति की गरिमा जैसे मूल्यों की प्रतिष्ठा के लिए लगातार यत्नशील बने रहे।
वे लोक के भी पक्षधर थे। मानवीय मूल्यों के लिए वे निरंतर संकल्पबद्ध रहे। सृजनशील चेतना के नायक अज्ञेय का रचना-जगत शब्द-चयन, भाषा के संस्कार और संस्कृति के प्रति सजग है। शाश्वत स्वर के साथ उसमें समय के प्रसंग से जुड़ाव और सामाजिक चिंता भी है।
यह देख आश्चर्य होता है और मन में यह सवाल भी उठता है कि मुक्त भाव से जीवन और साहित्य दोनों में निरंतर प्रयोग का माद्दा और एक विलक्षण किस्म की कल्पनाशील रचनात्मकता इस शख्स में कहां से आई होगी। आज जब विचार करने से कतराना स्वभाव बनता जा रहा है और उसे प्रकट करने के जोखिम उठाना सुभीते वाला नहीं रहा तो अज्ञेय जैसे व्यक्तित्व जगाने का काम करते हैं।