अभिषेक कुमार सिंह का ब्लॉग: थम क्यों नहीं रहा है वायरसों का खौफ?

By अभिषेक कुमार सिंह | Published: December 26, 2020 01:11 PM2020-12-26T13:11:50+5:302020-12-26T13:14:17+5:30

धरती पर फैले सबसे घातक रोगाणुओं ने एंटीबायोटिक और अन्य दवाओं के खिलाफ जबरदस्त जंग छेड़ रखी है और बीमारियों के ऐसे उत्परिवर्तित वायरस (रोगाणु) आ गए हैं, जिन पर नियंत्रण नहीं हो पा रहा है.

Abhishek Kumar Singh's blog: Why is the fear of viruses not stopping? | अभिषेक कुमार सिंह का ब्लॉग: थम क्यों नहीं रहा है वायरसों का खौफ?

कोरोना वायरस (सांकेतिक फोटो)

साल भर से ज्यादा कोरोना वायरस के कहर को झेलते-झेलते सूचनाएं मिली थीं कि अमेरिका, ब्रिटेन के अलावा हमारे देश में भी 2021 की शुरुआत से कोविड-19 पर अंकुश लगाने वाली वैक्सीनों के इस्तेमाल से राहत मिलने की शुरुआत हो जाएगी.

पर ब्रिटेन में वीयूआई-202012/01 नामक कोरोना का नया खतरनाक स्वरूप मिलने के साथ ही नई खलबली मच गई है. हालांकि चिकित्सा विज्ञानी दिलासा दिला रहे हैं कि कोरोना की वैक्सीनें कोरोना के म्यूटेशन (उत्परिवर्तन) से पैदा हुए इस नए वायरस (स्ट्रेन) पर भी कारगर हो सकती हैं लेकिन यह बात वे पूरी गारंटी के साथ नहीं कह रहे हैं.

वजह है वायरसों (विषाणुओं) का वह खतरनाक इतिहास, जिसमें कोई-कोई वायरस म्यूटेट होने के बाद पहले से कई गुना ज्यादा ताकतवर होकर सामने आता है.

जिस तरह इंसान ने पृथ्वी पर हर परिस्थिति और वातावरण में ढलना सीख लिया, उसी प्रकार वायरसों ने एंटीबायोटिक्स से समायोजन (एडजस्ट) करना और एक जीव प्रजाति से दूसरी जीव प्रजाति में छलांग लगाना सीख लिया है. कुछ मामलों में तो बैक्टीरिया ने एंटीबायोटिक को नष्ट करने की क्षमता रखने वाले एंजाइम तक बनाने सीख लिए हैं.

पिछले बरस चीन में जब कोरोना की चर्चा शुरू हुई तो कहा गया वुहान का सी-फूड मार्केट इसका जनक है, जहां सांपों और चमगादड़ों के मांस से तैयार होने वाली डिश अपने साथ यह संक्रमण इंसानों तक ले आई थी.

खोजबीन से यह तथ्य सामने आया कि कोरोना वायरस इबोला की तरह चमगादड़ों से ही आया है पर फर्क यह है कि इसने अपना मौजूदा घातक रूप किसी सांप को संक्रमित करने के बाद धरा है. एक संदेह इस बारे में चीन के खुफिया जैविक हथियारों की फैक्ट्री को लेकर भी किया गया.

दावा किया गया कि वुहान शहर में स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी में खतरनाक वायरसों पर काम होता रहा है. संभव है कि वहीं से यह वायरस बाहर निकल आया होगा. फिर भी कोरोना वायरस के पैदा होने की असली वजह शायद ही कभी पता चल सके, लेकिन यह तय है कि जिस तरह से एक जीव प्रजाति के संक्रमण दूसरी जीव प्रजाति यानी इंसानों में छलांग लगा रहे हैं और म्यूटेट हो रहे हैं, उससे हालात वास्तव में विकट हो चले हैं.

कोरोना से पहले बर्ड और स्वाइन फ्लू और इबोला जैसे वायरसों से जुड़ी यह समस्या सामने आ चुकी है कि इन बीमारियों के वायरसों ने म्यूटेशन (उत्परिवर्तन) का रुख अपनाया था. इसका मतलब यह है कि दवाओं के खिलाफ ये अपने अंदर प्रतिरोधी क्षमता विकसित कर लेते हैं और मौका पड़ने पर अपना स्वरूप बदल लेते हैं जिससे दवाइयां और टीके उसके खिलाफ कारगर नहीं रह पाते हैं.

मेडिकल साइंस इस बारे में एक जवाब और देता है. यह समझ कहती है कि ज्यादातर स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने माइक्रोब्स (रोगाणुओं) के जीवन चक्रों को समझने की कोशिश नहीं की या संक्रमण की कार्यप्रणाली को नहीं जाना. नतीजतन, हम संक्रमण की श्रृंखला तोड़ने में ही नाकाम नहीं हुए बल्कि कुछ मामलों में तो इसे और मजबूत ही बनाया गया है.

कुछ जाने-पहचाने वायरसों जैसे बर्ड फ्लू, स्वाइन फ्लू, इबोला, डेंगू बुखार और एचआईवी-एड्स से होने वाली मौतों में बीते तीन-चार दशकों में कई गुना बढ़ोत्तरी हो चुकी है, साथ में यह भी कहा जा रहा है कि 1973 के बाद से दुनिया में विषाणुजनित 30 नई बीमारियों ने मानव समुदाय को घेर लिया है.

धरती पर फैले सबसे घातक रोगाणुओं ने एंटीबायोटिक और अन्य दवाओं के खिलाफ जबरदस्त जंग छेड़ रखी है और बीमारियों के ऐसे उत्परिवर्तित वायरस (रोगाणु) आ गए हैं, जिन पर नियंत्रण नहीं हो पा रहा है.

जलवायु परिवर्तन के कारण दुनिया के ग्लेशियरों के तेजी के साथ पिघलने से उनमें हजारों वर्षो से दबे वायरस और बैक्टीरिया फूट पड़े हैं और उन्होंने इंसानों पर धावा बोल दिया है. इसके दो बड़े सबूत मिल चुके हैं. पहला मामला अलास्का के टुंड्रा क्षेत्र में दफनाए गए शवों का है, जिनमें विज्ञानियों को 1918 के स्पेनिश फ्लू के अवशेष मिले थे.

दावा है कि इसी तरह चेचक और बुबोनिक प्लेग के संक्रमित अवशेष भी साइबेरिया की बर्फीली सतहों में कैद हैं. दूसरा सबूत तिब्बत ग्लेशियर की 15 हजार साल पुरानी बर्फ में मिला, जहां 2015 में अमेरिका स्थित ओहियो स्टेट यूनिवर्सिटी और लॉरेंस बर्कले नेशनल लेबोरेटरी के शोधकर्ताओं की एक टीम ने प्राचीन वायरसों के 33 समूहों को मौजूद पाया.

बायोरिक्सिव प्रीप्रिंट सर्वर फॉर बायोलॉजी में प्रकाशित रिपोर्ट में दिए गए विवरण के मुताबिक तिब्बती पठार में शोधकर्ताओं की एक अन्य टीम ने 1992 में भी ऐसी ही एक कोशिश की थी, पर जिन टूल्स (उपकरणों) का वे इस्तेमाल कर रहे थे, उन्हें लेकर आशंका थी कि वायरस उन्हीं में पहले से चिपके रहे होंगे.

उस वक्त उन्होंने यह अध्ययन टाल दिया था. लेकिन बाद के प्रयास में उन्होंने टूल्स को लेकर सावधानी बरती और तिब्बती पठार से लिए गए बर्फ के टुकड़ों को जीवाणुरहित (स्टेराइज) पानी से धोने और 0.2 इंच पिघलाने के बाद पाया कि बर्फ के इन नमूनों में वायरसों के 33 समूह मौजूद हैं, जिनमें से 28 आधुनिक विज्ञान के लिए भी अनजाने हैं.

शोधकर्ताओं ने बताया कि दो अलग-अलग जगहों से बर्फ के टुकड़ों में पाए जाने वाले वायरस एक-दूसरे से भिन्न थे. शोधकर्ताओं का मानना था कि हो सकता है कि ये अलग-अलग समय में पैदा हुए हों या जलवायु में अंतर भी एक कारण हो सकता है. ऐसा ही एक मामला अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा के वैज्ञानिकों ने भी अलास्का में दर्ज किया था.

वहां उन्होंने 30 हजार वर्षो से अलास्का की बर्फ में जमे कार्नोबेक्टीरियम प्लीस्टोकेनियम नामक बैक्टीरिया को अलग करने में कामयाबी हासिल की थी, जिसके बारे में कहा जाता है कि वे वहां उस समय से जमे हुए थे जब वूली मैमथ पृथ्वी पर चलते थे. इस तरह कह सकते हैं कि जलवायु परिवर्तन के कारण ग्लेशियरों के पिघलने से सिर्फ समुद्र का जलस्तर ही नहीं बदल रहा है, बल्कि वायरसों की एक नई फौज मानव सभ्यता के सामने तैनात हो रही है.

Web Title: Abhishek Kumar Singh's blog: Why is the fear of viruses not stopping?

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