अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: कौन-सा रास्ता अपनाएंगी अगड़ी जातियां?

By अभय कुमार दुबे | Published: November 28, 2018 08:44 PM2018-11-28T20:44:21+5:302018-11-28T20:44:21+5:30

इस रणनीति का पहला उद्घाटन 2017 के उ.प्र. चुनाव के समय हुआ था जब शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करके भाजपा के ब्राrाण जनाधार में सेंध लगाने की कोशिश शुरू की गई थी.

Abhay Kumar Dubey's blog: Which way will the backward castes adopt? | अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: कौन-सा रास्ता अपनाएंगी अगड़ी जातियां?

अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: कौन-सा रास्ता अपनाएंगी अगड़ी जातियां?

जो लोग समझते हैं कि कांग्रेस के दोनों नेताओं- सी.पी. जोशी और मनीष तिवारी ने ब्राrाण समर्थक वक्तव्य जुबान फिसल जाने के कारण दिए हैं, वे कांग्रेस के एक सुचिंतित रणनीतिक पैटर्न को देख पाने में असमर्थ हैं. दरअसल, दोनों ही वरिष्ठ नेता हैं और सोच-समझ कर बोलने वालों के रूप में देखे जाते हैं.

जोशी ने चूंकि अपने वक्तव्य में ब्राrाणों को कर्मकांडीय रूप से श्रेष्ठ बताने के साथ-साथ पिछड़ी जातियों को कमतर बताने वाले पहलू भी जोड़ दिए थे, इसलिए राहुल गांधी की मीठी सी फटकार के बाद उन्हें माफी मांगनी पड़ी. जहां तक मनीष तिवारी का सवाल है, कांग्रेस के आलाकमान ने उन्हें इस तरह की कोई नसीहत देने की जरूरत नहीं समझी कि वे राजनीति का ब्राrाणीकरण करने का प्रयास न करें. दरअसल, माफी मांगी गई हो या नहीं, इन दोनों वक्तव्यों से जितना लाभ कांग्रेस को होना था, वह हो चुका है. देश भर में फैले हुए ब्राrाण समुदाय तक वह संदेश पहुंच गया है जो कांग्रेस बार-बार पहुंचाना  चाहती है. 

इस रणनीति का पहला उद्घाटन 2017 के उ.प्र. चुनाव के समय हुआ था जब शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करके भाजपा के ब्राrाण जनाधार में सेंध लगाने की कोशिश शुरू की गई थी. चूंकि कांग्रेस ने बीच धार में अपनी रणनीति बदल दी, इसलिए वह कदम परवान नहीं चढ़ पाया. इस रणनीति का दूसरा उद्घाटन तब हुआ जब राहुल गांधी को जनेऊधारी ब्राrाण के रूप में पेश किया गया. इसी के साथ कांग्रेस एक बार फिर ब्राrाणों का मन जीतने के भगीरथ प्रयास में जुट गई. यह समुदाय उसका पुराना जनाधार रहा है. कांग्रेस का ख्याल है कि पिछले तीस साल से भाजपा का दामन पकड़ने वाले और निष्ठापूर्वक कमल के फूल पर मुहर लगाने वाले द्विज और ब्राrाण समुदायों में आजकल एससी-एसटी एक्ट संबंधी विवाद के कारण सत्तारूढ़ पार्टी के प्रति कुछ नाराजगी है. इसलिए वह इसका लाभ उठाने की फिराक में है. 

सामाजिक न्याय की पिछड़ावर्गीय राजनीति करने वाले कितनी भी आलोचना करते रहें, पर लगता नहीं कि कांग्रेस अपनी इस कोशिश को रोकेगी. इन आलोचकों का कहना है कि अगर कांग्रेस ने अपना ब्राrाण चेहरा बहुत अधिक आगे किया तो ओबीसी वोट उससे फिरंट हो जाएंगे. कांग्रेस इस तर्क से प्रभावित होने वाली नहीं है. इसके दो कारण हैं. पहला, ओबीसी वोटों ने साठ के दशक के बाद से ही धीरे-धीरे कांग्रेस को छोड़ना शुरू कर दिया था. जो वोट उसे मिलते ही नहीं, उन्हें भला वह खो कैसे सकती है? दूसरा, ओबीसी वोटों को कांग्रेस अपनी बृहत्तर राजनीति के पक्ष में अपने सहयोगी दलों के माध्यम से गोलबंद कर सकती है, और करती रही है. उसे तो लग यह रहा है कि पिछले चार वर्षो में भाजपा का बहुत तेजी से ओबीसीकरण हुआ है. खासकर नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पार्टी ने अपना जनाधार व्यापक करने के लिए कुछ ऐसी सांगठनिक और सरकार ने नीतिगत प्रक्रियाएं चलाई हैं जिनका लक्ष्य प्रधानमंत्री को पिछड़े वर्ग का देशव्यापी नेता  बनाना है. 

लेकिन इसी के साथ भाजपा इस तथ्य से भी अनभिज्ञ नहीं है कि अत्यधिक ओबीसीकरण द्विज जातियों को उसके प्रति निराशा के भाव से भर सकता है. इसलिए उसने बड़े पदों पर द्विज नेताओं को बैठाने की संतुलनकारी नीति अपनाई है. मसलन, उ.प्र. में एक ठाकुर को मुख्यमंत्री बनाना, एक ब्राrाण और एक पिछड़े को उपमुख्यमंत्री बनाना और अध्यक्ष पद ब्राrाण को सौंप देना तो इसकी एक बानगी है ही, साथ ही महाराष्ट्र में एक ब्राrाण को मुख्यमंत्री बनाना भी इस रणनीति का एक उदाहरण है. मुश्किल यह है कि द्विज जातियां इस तरह के पदों से संतुष्ट नहीं होने वाली हैं. वे जानती हैं कि असली सत्ता धीरे-धीरे उस पार्टी के भीतर भी उनके हाथ से खिसकती जा रही है जिसे आम तौर से ब्राrाण-बनिया पार्टी समझा जाता रहा है. इसलिए उनके भीतर असंतोष पनपना स्वाभाविक है. अब यह भाजपा को देखना है कि वह इस संतुलनकारी रणनीति के सीमित प्रभाव को कितनी दूर तक खींच पाती है. 

इस देश के ब्राrाण समुदाय को ‘ब्राrाणवाद’ के नाम पर राजनीतिक मंचों से बहुत गाली खानी पड़ती है. निस्संदेह भारत का अतीत ब्राrाण-वर्चस्व का अतीत था. मीडिया, बौद्धिक वर्ग, नौकरशाही और निजी क्षेत्र के पूंजीवाद जैसे इदारों पर अभी भी द्विज जातियों (खासकर ब्राrाणों) का वर्चस्व कोई छिपी हुई बात नहीं है. लेकिन, धीरे-धीरे समाज के नियंत्रक के तौर पर उनकी भूमिका सीमित होती जा रही है. इससे उनके मन में एक चिढ़ पनपने की स्थिति बनी है. राजनीति और खासकर भाजपा के ओबीसीकरण की प्रतिक्रिया होनी लाजिमी है. ऐसे में अगर कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टी उनकी हमदर्दी जीतने का प्रकट प्रयास करेगी, तो एक बारगी वे भाजपा के प्रति अपनी निष्ठाओं के बारे में दोबारा सोच सकते हैं. 

 

Web Title: Abhay Kumar Dubey's blog: Which way will the backward castes adopt?

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