अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: सौम्य चेहरा ओढ़ना चाहता है RSS
By अभय कुमार दुबे | Updated: September 26, 2018 07:31 IST2018-09-26T07:31:03+5:302018-09-26T07:31:03+5:30
प्रश्न यह है कि क्या केवल वक्तव्यों के जरिए सौम्य चेहरा हासिल किया जा सकता है? क्या उसके लिए वास्तव में मुसलमानों से अच्छे संबंध कायम करने की जरूरत नहीं पड़ेगी?

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जब कोई राजनीतिक-सामाजिक शक्ति अपना प्रभुत्व कायम कर लेती है, तो उसके बाद वह अपना वर्चस्व स्थापित करने की कोशिश शुरू करती है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को लग रहा है कि उसके परिवार की प्रमुख सदस्य भाजपा न केवल अपने दम पर केंद्र और राज्यों में सत्ताधारी है, बल्कि आने वाले भविष्य में भी सत्ता कमोबेश उसी के पास रहने वाली है।
जाहिर है कि भाजपा के पास सत्ता तभी रह सकती है जब हिंदू मतदाता मंडल के चालीस-पैंतालीस प्रतिशत सदस्य उसे वोट देने के लिए तैयार हों। इस तरह के ध्रुवीकरण के प्रयोग पहले गुजरात और फिर उत्तर प्रदेश की राजनीतिक प्रयोगशाला में सफलतापूर्वक किए जा चुके हैं।
हिंदू राजनीतिक एकता के क्षेत्र में यह उपलब्धि करने के बाद स्पष्ट रूप से यह राजनीतिक प्रभुत्व की स्थिति है। लेकिन वर्चस्व इससे भी ऊंचे पायदान की हैसियत होती है।
एक बार वर्चस्व कायम हो जाए तो फिर सत्ता रहे या न रहे— बौद्धिक, सांस्कृतिक और सामाजिक जगत में तूती बोलती रहती है। जो लोग सा$फ तौर पर विरोधी होते हैं, वे भी सत्ता हासिल करने पर उसी एजेंडे पर चलते हैं जो वर्चस्वशाली शक्ति ने स्थापित किया होता है।
पहले प्रणव मुखर्जी को अपने मंच पर व्याख्यान के लिए बुलाना, फिर राहुल गांधी और सीताराम येचुरी जैसे धुर विरोधियों को भी निमंत्रित करने के बारे में कहना, और अब दिल्ली के विज्ञान भवन को राष्ट्रीय मंच का रूप देकर तीन दिन तक सारे देश को अपने बारे में बताते हुए संबोधित करना वर्चस्व स्थापित करने की सुचिंतित योजना का पहला चरण ही है।
प्रभुत्व एक भीषण और आक्रामक चेहरे के दम पर हासिल किया जा सकता है। लेकिन, वर्चस्व हासिल करने के लिए एक सौम्य चेहरे की आवश्यकता होती है। संघ की पूरी कोशिश यही सौम्य चेहरा हासिल करने की है। इसके लिए जो भी करना जरूरी हो—वह कर रहा है।
सरसंघचालक मोहन भागवत के त्रि-दिवसीय व्याख्यान से पहले संघ ने अपनी दो शीर्ष बैठकों में मंत्रणा की। म$कसद था पूरे देश को यह बताने की तरकीब तलाश करना कि संघ गोलवलकर के उन विचारों से पिंड छुड़ा चुका है जो उसकी संकीर्ण, आक्रामक और कट्टर सांप्रदायिक छवि बनाते हैं।
मनुस्मृति और याज्ञवल्क्य स्मृति से तो संघ का$फी पहले ही अपने आपको अलग करके विश्व हिंदू परिषद की वेबसाइट पर इसकी घोषणा कर चुका है। बिना ऐसा किए वह पिछड़े, अनुसूचित और आदिवासी समुदायों को अपने साथ नहीं जोड़ सकता था।
नतीजतन जो हिंदू एकता उसने आंशिक रूप से प्राप्त की है, वह नहीं हो सकती थी। बाकी बच गई थीं दो बातें। मुसलमानों का प्रश्न और संविधान का प्रश्न। इन दोनों सवालों को भागवत के तीन व्याख्यानों में निपटा दिया गया है।
संघ जानता है कि पंद्रह-सोलह करोड़ मुसलमानों को इस देश से बाहर नहीं निकाला जा सकता है और न ही संविधान के तहत उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक घोषित किया जा सकता है।
लेकिन यह कहते हुए भी कि हिंदुत्व मुसलमानों के साथ ही रह सकता है, मुसलमान समुदायों को अघोषित रूप से एक ऐसी स्थिति में जरूर पहुंचाया जा सकता है जिसमें उनकी राजनीतिक और सांस्कृतिक दावेदारियां पूरी तरह से शून्य हो जाएं। मुसलमानों के साथ नियोजित रूप से पिछले साढ़े चार साल से ऐसा ही किया जा रहा है।
स्थिति यह है कि हिंदुत्व के साथ इस देश में मुसलमान भी रहेंगे लेकिन संघ परिवार की प्रमुख सदस्य भाजपा उन्हें या तो न के बराबर टिकट देगी या बिल्कुल नहीं देगी। मुसलमान रहेंगे, लेकिन बांग्लादेश से आए हिंदू शरणार्थी का संघ के विचारक छाती ठोक कर स्वागत करेंगे, और मुसलमान शरणार्थी घुसपैठिया करार दे दिया जाएगा।
टीवी पर बहस में सा$फ तौर पर कहा जाएगा कि भाजपा पहले भी मुसलमान वोटों के बिना सत्ता में आई थी, और उनके बिना ही सत्ता में फिर से आएगी। मुसलमान रहेंगे, लेकिन अल्पसंख्यक आयोग की जरूरत पर सवालिया निशान लगाया जाता रहेगा।
मुसलमान रहेंगे, लेकिन संघ परिवार का ही संगठन बजरंग दल उन्हें हड़काने के एजेंडे पर काम करता रहेगा। मुसलमान रहेंगे, लेकिन गौमांस रखने के आरोप में अखलाक की हत्या और मवेशियों का व्यापार करने वाले मुसलमानों की भीड़-हत्या के कारण बने माहौल के असर में बहुतेरे मुसलमान परिवार अपने घर में गोश्त पकाना ही बंद कर देंगे। उन्हें जब खाना होगा तो रेस्तरां में खा आएंगे।
प्रश्न यह है कि क्या केवल वक्तव्यों के जरिए सौम्य चेहरा हासिल किया जा सकता है? क्या उसके लिए वास्तव में मुसलमानों से अच्छे संबंध कायम करने की जरूरत नहीं पड़ेगी? कथनी और करनी के बीच यह अंतर संघ कैसे पाटेगा?