अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: कोरोना के डर का आखिर इलाज क्या है?

By अभय कुमार दुबे | Published: April 8, 2020 05:48 AM2020-04-08T05:48:01+5:302020-04-08T05:48:01+5:30

हमारी जन-स्वास्थ्य व्यवस्था सबसे ज्यादा देहातों में टूटी हुई है जहां आज भी देश की 65 फीसदी आबादी रहती है. किसी जमाने में बनाया गया प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों का ग्रामीण नेटवर्क केवल कहने के लिए ही है. वहां न डॉक्टर मिलते हैं, न कंपाउंडर और न ही दवाएं. इस वजह से अफवाहें सबसे ज्यादा देहात के बारे में फैल रही हैं. 

Abhay Kumar Dubey blog: What is the final treatment for fear of coronavirus? | अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: कोरोना के डर का आखिर इलाज क्या है?

तस्वीर का इस्तेमाल केवल प्रतीकात्मक तौर पर किया गया है। (फाइल फोटो)

हमारी जिंदगी पूरी तरह से कोरोनामय हो गई है. माहौल इतना नकारात्मक है कि गायिका कनिका कपूर का नाम भी हम भूल गए हैं. क्यों? बताया गया था कि इस ‘कोरोना-पॉजिटिव’ गायिका ने तो लखनऊ, आगरा और दिल्ली के बीच में सैकड़ों लोगों को संक्रमित कर दिया था, और इस संक्रमण-श्रृंखला की आंच राष्ट्रपति भवन तक पहुंच गई थी. इसके बावजूद हम कनिका कपूर को इसलिए भूल गए कि उसे छूने वाले किसी व्यक्ति को कोरोना नहीं निकला. यानी कनिका अंतत: एक सकारात्मक खबर निकली जिसका साफतौर पर मतलब था कि अगर कोरोना-पॉजिटिव व्यक्ति को आप छू भी लेंगे तो कोरोना होने की गारंटी नहीं है.

चूंकि कनिका वाले मामले में कोरोना मौत की शर्तिया आहट साबित नहीं हुआ, इसलिए हमारे भयभीत और संत्रस्त मन ने उसकी चर्चा बंद कर दी. दरअसल, आज के वक्त की पॉलिटिकल करेक्टनेस यही है कि कोरोना से डरे रहिए, उससे डराने वालों की बात पर यकीन कीजिए, और अगर कहीं से इस कोरोना-भीति के विपरीत खबर आ रही है, तो उसे फौरन नजरअंदाज कर दीजिए.

कोरोना से लड़ना और उसे निष्प्रभावी करके ज्यादा से ज्यादा लोगों को उससे बचाने के उपाय करना एक बात है, और उसे एक प्रबल भीति (फियर फैक्टर) का स्नेत बना देना दूसरी बात है. पिछले हफ्ते दुनिया के 26 देशों में इससे संबंधित एक सर्वेक्षण हुआ जिसके नतीजे हमें सोचने लायक सामग्री देते हैं.

सर्वेक्षण से पता चला कि स्वीडन (जहां करीब छह सौ लोग कोरोना के शिकार होकर दम तोड़ चुके हैं) की जनता में कोरोना-भीति केवल 31 फीसदी है (यानी केवल इतने ही लोगों ने स्वीकार किया कि वे कोरोना से बहुत या थोड़े-बहुत डरे हुए हैं. ध्यान रहे कि स्वीडन में कोई ‘लॉकडाउन’ नहीं है. दफ्तर, स्कूल, बाजार, स्कीइंग करने वाली जगहें और रेस्त्रं वगैरह खुले हुए हैं और केवल ‘भीड़’ लगाने के खिलाफ सतर्कता बरती जा रही है.

वहां की सरकार की नीति है ‘बिजनेस एज यूजुअल’. इसके विपरीत मलेशिया, वियतनाम, इंडोनेशिया, थाईलैंड और फिलीपींस में कोरोना-भीति का प्रतिशत नब्बे से अस्सी फीसदी के बीच है, बावजूद इसके कि ये देश कोरोना प्रभावित देशों की सूची में पहले दस (अमेरिका, स्पेन, इटली, जर्मनी, फ्रांस, चीन, ईरान, ब्रिटेन, तुर्की और स्विट्जरलैंड) पर हैं ही नहीं. इनके मुकाबले मलेशिया को देखिए. वहां करीब 60 लोगों की कोरोना-मृत्यु हुई है, पर देश भर में भारत की ही तरह संपूर्ण तालाबंदी है. वियतनाम में तो एक भी व्यक्ति का कोरोना-देहांत नहीं हुआ है. वहां भी चौतरफा लॉकडाउन कर दिया गया है. इस सर्वेक्षण से हम एक नतीजे पर पहुंच सकते हैं.

पहला, किसी भी देश की आबादी में फैली हुई कोरोना-भीति का संबंध वहां कोरोना के वास्तविक प्रसार से नहीं है, बल्कि वहां की सरकार द्वारा इस महामारी से निबटने के रवैये और सरकार के कदमों का समर्थन करने वाले मीडिया के तौर-तरीकों से है. दूसरा, सरकार और जनता का रवैया उस देश में स्वास्थ्य-प्रणाली के प्रभावी या निष्प्रभावी होने से भी जुड़ा हुआ है. स्वीडन की स्वास्थ्य-प्रणाली अपनी प्रभाव कारिता के लिए सारी दुनिया में मशहूर है.

स्वीडन एक लोकोपकारी राज्य है जो हर व्यक्ति का मुफ्त इलाज करता है. वहां की सरकार और जनता जानती है कि अगर उनकी तबीयत खराब हुई तो वे भरोसे लायक हाथों में हैं. इसके मुकाबले भारत में (जहां 130 करोड़ की आबादी और बड़े पैमाने पर अस्वच्छ स्थितियों के बीच अभी तक मरने वालों की संख्या डेढ़ सौ के करीब पहुंची है) हेल्थ-सिस्टम पर किसी को भरोसा नहीं है. न जनता का और न ही सरकार का.

हमारी जन-स्वास्थ्य व्यवस्था सबसे ज्यादा देहातों में टूटी हुई है जहां आज भी देश की 65 फीसदी आबादी रहती है. किसी जमाने में बनाया गया प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों का ग्रामीण नेटवर्क केवल कहने के लिए ही है. वहां न डॉक्टर मिलते हैं, न कंपाउंडर और न ही दवाएं. इस वजह से अफवाहें सबसे ज्यादा देहात के बारे में फैल रही हैं. 

मसलन, अभी तीन दिन पहले एक वरिष्ठ पत्रकार ने मुङो फोन करके बड़े यकीन के साथ भविष्यवाणी की कि अगले पंद्रह दिन में डेढ़-दो लाख लोग ग्रामीण इलाकों में कोरोना की भेंट चढ़ जाएंगे. मैंने चौंक कर पूछा कि आपकी इस बात का आधार क्या है? तो उनका कहना था कि गांवों में कोरोना बहुत फैल रहा है, पर सरकार आंकड़े छिपा रही है. मैंने उनसे कहा कि थोड़ा रुकिए. मैं मध्य, उत्तर प्रदेश (इटावा, एटा, मैनपुरी, फरुखाबाद वगैरह) के ग्रामीण और कस्बाई इलाकों में फोन करके कुछ पता लगाता हूं. जब फोन किया तो जानकारी मिली कि वहां के गांव अभी तक कोराना-मुक्त हैं. न ही जनता में कोई खास घबराहट है और न ही प्रशासन को वहां कोई खास सख्ती करनी पड़ रही है. फिर मैंने पश्चिमी उ.प्र. और हरियाणा में पूछताछ की. वहां भी इसी से मिलता-जुलता जवाब मिला.

इस चर्चा का मतलब यह नहीं लगाया जाना चाहिए कि कोरोना के खिलाफ सतर्कता नहीं बरतनी चाहिए. मैं सिर्फ उससे निबटने की एक वैकल्पिक रणनीति की ओर इशारा कर रहा हूं. लेकिन कोई भी वैकल्पिक रणनीति केवल तभी कारगर हो सकती है जब हमारे पास स्वीडन जैसा या उससे मिलता-जुलता हेल्थ-सिस्टम हो. मौजूदा हेल्थ-सिस्टम में तो हम लोगों से वही करने को कह सकते हैं जो कहा जा रहा है.

Web Title: Abhay Kumar Dubey blog: What is the final treatment for fear of coronavirus?

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