अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: क्या चुनाव पर हावी हो रहा है व्यक्तिवाद?

By अभय कुमार दुबे | Updated: April 9, 2019 05:43 IST2019-04-09T05:43:06+5:302019-04-09T05:43:06+5:30

चुनावी संघर्ष इतना सघन और जटिल है कि 23 मई बहुत पास होते हुए भी बहुत दूर दिखाई पड़ती है. हर हफ्ते चुनावी मुहिम के आख्यान की दिशा बदल जाती है. पलड़ा कभी इधर झुकता है, तो कभी उधर. लोकतंत्र प्रतीक्षा कर रहा है कि उसे अंतत: क्या और कौन सा लोकलुभावनवाद मिलेगा. 

Abhay Kumar Dubey blog: Is the election being dominated by individualism? | अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: क्या चुनाव पर हावी हो रहा है व्यक्तिवाद?

अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: क्या चुनाव पर हावी हो रहा है व्यक्तिवाद?

लोक लुभावनवाद की वामपंथी किस्म इसे आर्थिक अवसरों के जनोन्मुख वितरण और लोकोपकारी राज्य की पुरानी अवधारणाओं तक सीमित कर देती है, जबकि इसकी दक्षिणपंथी किस्म धार्मिक या जातीयतावादी बहुसंख्यकवाद पर जोर देती है और अल्पसंख्यकों या बाहर से आने वाले ‘अन्यों’ के प्रति कम या ज्यादा शत्रुता का रवैया अपनाने वाली राजनीति करती है.

करिश्माई नेता इन दोनों तरह के लोकलुभावनवाद के केंद्र में होता है. अतीत में यह भूमिका इंदिरा गांधी ने निभाई थी, आजकल यही भूमिका नरेंद्र मोदी निबाह रहे हैं. पॉपुलिज्म एक और काम करता है. वह लोकतंत्र की संस्थागत प्रक्रियाओं को कमजोर कर देता है. यानी, वह न्यायपालिका, प्रेस, जांच एजेंसियों, रिजर्व बैंक और नागरिक समाज की संस्थाओं (जो चुनाव के जरिए अस्तित्व में नहीं आई हैं) पर दबाव डालता है ताकि वे लोकप्रिय इच्छा के मुताबिक निर्वाचित नेता के कामकाज या निर्णयों में कम-से-कम दखल देने लायक रह जाएं या पूरी तरह से उसकी इच्छा के सामने समर्पण कर दें. 


इस बहस के आईने में अगर देखा जाए तो सत्रहवीं लोकसभा के लिए हो रहे चुनाव दोनों तरह के लोकलुभावनवादों की प्रतियोगिता बन कर उभरते हैं. एक तरफ कांग्रेस का पॉपुलिज्म है जो उसके घोषणापत्र के जरिए सामने आता है. लेकिन यह केवल दक्षिणपंथी नहीं है. इसमें वामपंथ का एक जरा सा छौंक लगाने की कोशिश की गई है. यह घोषणापत्र गरीबों को सीधे-सीधे आमदनी कराने का एक ऐसा वायदा करता है जो भारत के इतिहास में कभी किसी ने नहीं किया.

बहत्तर हजार रुपए प्रति वर्ष यानी छह हजार रुपए प्रति महीने सीधे देश के बीस फीसदी लोगों के खाते में पहुंचाने के वायदे के साथ कांग्रेस अल्पसंख्यकों को सुरक्षा देने का वायदा भी करती है. यह अलग बात है कि यह वायदा हिंदू बहुसंख्यकवाद का निषेध नहीं है बल्कि इसमें निहित है कि हिंदुओं का बोलबाला सुनिश्चित करते हुए अल्पसंख्यकों को एक निरापद जीवन जीने की गुंजाइश दी जाएगी अगर कांग्रेस को सत्ता मिली.

इन दोनों तरह के वायदों को मिला कर कांग्रेस एक ऐसा आश्वासन तैयार करना चाहती है जो भाजपा के तुरुप के इक्के को मात दे सके. और, वह तुरुप का इक्का है नरेंद्र मोदी की व्यक्तिगत करिश्माई लोकप्रियता जो इस चुनाव को एक व्यक्ति को सत्ता में दोबारा वापस लाना चाहिए या नहीं के प्रश्न पर तकरीबन जनमत संग्रह में बदले दे रही है. बालाकोट की सजिर्कल स्ट्राइक ने भाजपा की इसमुहिम को एक और प्रबल तर्क प्रदान कर दिया है.


चुनाव को जनमत संग्रह में बदलने की यह कोशिश कोई अनायास नहीं है. दरअसल, इसे एक लंबे अरसे से योजनाबद्ध रूप से अंजाम दिया जा रहा है. यह देख कर ताज्जुब होता है कि किस तरह चुनाव से काफी पहले से इसकी योजनाएं बनाई गईं, और समस्त प्रचार और अन्य हथकंडों को इस प्रकार नियोजित किया गया कि वे ठीक चुनाव से पहले फलीभूत हों.

इस सिलसिले में जिस पहलू पर सबसे ज्यादा ध्यान दिया जाना चाहिए, वह है फीचर फिल्मों और वेब सीरियलों के जरिए एक व्यक्ति के इर्द-गिर्द सारी बहस को केंद्रित करना. इसमें तीन तरह के उपादानों का इस्तेमाल किया गया है. पहला है, पाकिस्तान विरोधी राष्ट्रवाद का. इसे धार देने के लिए उड़ी की सजिर्कल स्ट्राइक पर फिल्म बनाई गई जो सुपरहिट हुई और अमेठी (और भी कई निर्वाचन क्षेत्रों में) में इसे भाजपा द्वारा सिनेमा हॉल किराये पर लेकर मुफ्त दिखाया गया. पुलवामा और बालाकोट की घटनाएं न भी होतीं, तो भी इस चुनाव में राष्ट्रीय सुरक्षा का प्रश्न उड़ी की सजिर्कल स्ट्राइक के जरिये बार-बार सामने आने वाला था.

दूसरा है, गांधी परिवार की राजनीतिक वैधता पर आक्रमण करने वाली फिल्म बनाना जो ताशकंद में लाल बहादुर शास्त्री की अचानक मृत्यु को एक साजिश के रूप में पेश करती है. इस फिल्म के निर्देशक पिछले कई साल से भाजपा के पक्ष में खुला राजनीतिक अभियान चला रहे हैं, और उनके बारे में माना जाता है कि उनकी गतिविधियों को भाजपा आलाकमान का आशीर्वाद प्राप्त है.

तीसरी फिल्म सीधे-सीधे पीएम नरेंद्र मोदी पर है, और चौथी है एक वेब सीरियल जिसमें मोदी के जीवन को एक आम आदमी की असाधारण जीवनी के रूप में पेश किया गया है.  देश के किसी भी नेता के ऊपर एक साथ चुनाव से पहले इतनी फिल्में बनना महज एक संयोग नहीं हो सकता.  

इसमें कोई शक नहीं कि कांग्रेस ने न्याय स्कीम के जरिए अपना सबसे बड़ा दांव चला है. भाजपा न्याय स्कीम का खंडन नहीं कर सकती. केवल यह कह सकती है कि इसे व्यावहारिक रूप से लागू नहीं किया जा सकता. अरुण जेटली और मोदी यही कह भी रहे हैं. मोदी की शख्सियत को एक और राजनीतिक रुझान का सामना करना है. वह है राज्य स्तर पर भाजपा विरोधी वोटों और सामाजिक समूहों के गठजोड़ों की चुनौती. यह उत्तर प्रदेश में सबसे जोरदार दिखाई पड़ती है. लेकिन, अन्य प्रदेशों में भी किसी न किसी रूप में मौजूद है.

चुनावी संघर्ष इतना सघन और जटिल है कि 23 मई बहुत पास होते हुए भी बहुत दूर दिखाई पड़ती है. हर हफ्ते चुनावी मुहिम के आख्यान की दिशा बदल जाती है. पलड़ा कभी इधर झुकता है, तो कभी उधर. लोकतंत्र प्रतीक्षा कर रहा है कि उसे अंतत: क्या और कौन सा लोकलुभावनवाद मिलेगा. 

Web Title: Abhay Kumar Dubey blog: Is the election being dominated by individualism?