अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: हिंदी को लेकर जारी है वही पुराना हाहाकार

By अभय कुमार दुबे | Published: April 20, 2022 10:16 AM2022-04-20T10:16:59+5:302022-04-20T10:19:37+5:30

Abhay Kumar Dubey blog: Hindi language in India and politics on it after Amit Shah statement | अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: हिंदी को लेकर जारी है वही पुराना हाहाकार

हिंदी को लेकर जारी है वही पुराना हाहाकार

हिंदी के सवाल पर चर्चा कुछ इस अंदाज से की जा रही है मानो अतीत की बहसों को आज की तारीखों में कंप्रेस्ड कर दिया गया हो. गृह मंत्री अमित शाह ने यह बात भी साफ तौर पर कही थी कि हिंदी को अंग्रेजी की जगह लेना चाहिए, न कि स्थानीय और क्षेत्रीय भाषाओं की जगह. उनकी बात का सीधा मतलब था कि अंग्रेजी को संपर्क भाषा मानने के बजाय हिंदी को संपर्क भाषा मानने की तरफ जाना चाहिए. लेकिन विपक्षी पार्टियों से लेकर भाषाई प्रश्न का जानकार होने का दावा करने वाले कहने लगे कि यह संघ परिवार द्वारा एक भाषा-एक राष्ट्र की परियोजना को लागू करने की तरफ उठाया जाने वाला कदम है. कहना न होगा कि एक भाषा और एक राष्ट्र को एक दूसरे का पर्याय मानने का विचार एक यूरोपीय आग्रह है जिसका बहुभाषी भारत के जमीनी यथार्थ से कोई ताल्लुक नहीं हो सकता.  

दरअसल, तीखे भाषाई विवादों और बहसों के बाद बनी भारतीय आधुनिकता की भाषाई संरचना के संवैधानिक और राजनीतिक पहलुओं पर यह यूरोपीय विचार कोशिश करने के बाद भी कभी हावी नहीं हो पाया. भाषाई विविधता को विकास का विलोम नहीं माना गया. उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष की प्रक्रिया में जो राष्ट्र-भाषा कल्पित हुई उसका मकसद मुख्यत: एक अत्यंत बहुभाषी परिस्थिति के भीतर संपर्क-भाषा विकसित करना था. 

यह राष्ट्र-भाषा फ्रांस, अमेरिका या ब्रिटेन की तरह विविध भाषाई पहचानों के ऊपर आरोपित नहीं की जानी थी. आजादी मिलने पर इसी संकल्पना के भीतर से संविधान के जरिये राज-भाषा निकालने की कोशिश की गई. यूरोप के मुकाबले भारत में भाषाई आधुनिकता की दूसरी पेचीदगी यह थी कि यहां के उत्तर-औपनिवेशिक राज्य ने राज-भाषा की संरचना की जिम्मेदारी उठाई और उसके लिए भाषा-नियोजन भी चलाया, पर राष्ट्र-भाषा की रचना का उत्तरदायित्व लेने के नाम पर उसका संविधान खामोश रहा. 

नतीजतन, भाषा एक होने के बावजूद उसके दो सेक्टर बन गए, और आज तक बने हुए हैं. इस अनूठे बंदोबस्त के कारण ही जो माना जाता है वह है नहीं, और जो है उसे माना नहीं जाता. हिंदी भारतीय संघ की राज-भाषा है, लेकिन उसकी सामाजिक छवि गैर-हिंदीभाषी इलाकों में भी राष्ट्र-भाषा की ही है. दूसरी तरफ राज-भाषा भी वह केवल नाम के लिए ही है, व्यावहारिक रूप  से केंद्र का राजकाज एसोसिएट ऑफीशियल लैंग्वेज अंग्रेजी में किया जाता है.

उत्तर-औपनिवेशिक भारत में कहने और मानने का यह द्वैध क्यों पैदा हुआ? 14 सितंबर, 1949 को संविधान ने राज-भाषा प्रावधान  पारित किया था. संविधान सभा के सभापति डॉ. राजेंद्र प्रसाद द्वारा उस मौके पर व्यक्त की गई उद्भावनाओं का तात्पर्य-निरूपण अगर सभा में भाषाई प्रश्न पर हुई लंबी और पेचीदा बहस की रोशनी में किया जाए तो ऐसा लगता है कि संविधान-निर्माता न केवल नवोदित सत्तारूढ़ अभिजन को संबोधित कर रहे थे, बल्कि उनकी बातों में भारतीय समाज से एक खामोश अपील भी निहित थी. 

अगर ऐसा न होता तो वे राज-भाषा हिंदी को भारत की सामासिक संस्कृति के सब तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम अर्थात् एक अत्यंत बहुभाषी राष्ट्र की प्रभाषा और इस प्रकार पूूरे देश को एक सिरे से दूसरे सिरे तक एकता में बांध देने वाले ऐसे एक और सूत्र की रचना करने का आग्रह क्यों करते? मुखर और मौन के इस अपरिभाषित समीकरण में एक संदेश यह भी पढ़ा जा सकता है कि संविधान के भाषा-प्रावधानों में हिंदी को उसकी घोषित हैसियत के साथ-साथ एक अघोषित हैसियत भी प्रदान की गई थी. संवैधानिक परियोजना की अंतर्वस्तु केवल सरकारी नहीं, सामाजिक भी थी. इसीलिए हिंदी एक डबल सेक्टर लैंग्वेज बनती चली गई.

हिंदी से संबंधित अधिकतर अनुसंधान-प्रयास इस इकहरी परियोजना के दुहरेपन पर एक साथ गौर करने में नाकाम रहे हैं. ज्यादातर रिसर्च और टीका-टिप्पणियां उसके सरकारी रूप पर ही केंद्रित रहती हैं. थोड़ा-बहुत सामाजिक पहलुओं का भी अध्ययन किया जाता है, पर या तो उन्हें भाषा के विकास और विस्तार का एकमात्र कारक मान लिया जाता है या फिर भाषा की  गुणवत्ता के लिए खतरे के रूप में देखा जाता है.

दूसरी तरफ अधिकतर भाषा-चिंतन करने वाले विद्वानों ने इन दोनों को पर्यायवाची मान लिया है. एक प्रमुख राजनीतिशास्त्री ने ‘ऑफीशियल ऑर नेशनल’ जैसी अभिव्यक्ति का प्रयोग किया है, और भारत की भाषा-समस्या पर उल्लेखनीय अनुसंधान करने वाले एक भाषाशास्त्री ने तो अपनी एक चर्चित रचना के शीर्षक में ही हिंदी के लिए ‘नेशनल लैंग्वेज’ अभिव्यक्ति का इस्तेमाल किया है. 

दरअसल, राज-भाषा और राष्ट्र-भाषा को एक ही मानने के इसी चक्कर में हिंदी के दोहरेपन का इकहरापन और इकहरेपन का दोहरापन पकड़ में नहीं आता.

Web Title: Abhay Kumar Dubey blog: Hindi language in India and politics on it after Amit Shah statement

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