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अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: पश्चिम बंगाल की राजनीति में भाजपा का असमंजस

By अभय कुमार दुबे | Updated: June 16, 2021 11:18 IST

पश्चिम बंगाल का सच ये है कि आज भी भाजपा के पास कोई प्रदेश स्तर का नेता नहीं है. मिथुन चक्रवर्ती विफल रहे और दूसरी ओर सौरव गांगुली ने होशियारी दिखाई हुए भाजपा में जाने से बच गए.

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मीडिया का ज्यादा जोर यह बताने पर रहा है कि मुकुल रॉय भाजपा छोड़कर अपनी पुरानी पार्टी तृणमूल कांग्रेस में क्यों लौटे. दलील यह दी जा रही है कि चुनाव के बाद जैसे ही शुभेंदु अधिकारी को विपक्ष का नेता बनाया गया, मुकुल रॉय ‘घर वापसी’ की योजना बनाने लगे. 

यहां पूछा जा सकता है कि क्या अगर मुकुल रॉय को विपक्ष का नेता बना दिया जाता तो वे भाजपा नहीं छोड़ते? इसी से जुड़ा सवाल यह है कि क्या उस सूरत में शुभेंदु अधिकारी नाराज होकर बगावती मूड में आ जाते? मीडिया यह नहीं बता रहा है कि मुकुल रॉय के भाजपा छोड़ने की अफवाह उड़ने के बाद उनके पास स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का फोन गया था. 

दोनों के बीच क्या बात हुई, किसी को नहीं पता. मुकुल रॉय को भाजपा का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया गया था, जो एक बड़ा और सम्माननीय पद है. प्रधानमंत्री के फोन और केंद्रीय संगठन में उपाध्यक्ष का पद भी उन्हें भाजपा में नहीं रोक पाया. 

जाहिर है कि इस तरह की अटकलबाजी से हम असलियत के नजदीक नहीं पहुंच सकते. यह व्यक्तियों का या किसी पद का मसला होते हुए भी मूल कारण नहीं है. अगर यही मूल कारण होता तो प. बंगाल में वह क्यों हो रहा होता जो किसी और प्रांत में नहीं होता है.

बंगाल में हो यह रहा है कि चुनाव के बाद जिले-जिले में भाजपा के निचले स्तर के कार्यकर्ता (इनमें वे भी शामिल हैं जो चार-पांच साल से पार्टी में हैं) रिक्शे पर लाउडस्पीकर लगा घोषणापूर्वक क्षमायाचना कर रहे हैं. इसमें कहा जाता है कि उन्होंने भाजपा को समझने में गलती की. इसी कारण से भाजपा में चले गए थे, अब वे लौटकर तृणमूल कांग्रेस में आना चाहते हैं. यह एक अलग तरह का दृश्य है. मुकुल रॉय के साथ जितने लोगों ने तृणमूल छोड़ी थी, वे सब भाजपा की जिला कमेटियों से इस्तीफा दे रहे हैं. आज अगर ममता बनर्जी दरवाजा खोल दें तो भाजपा में केवल मुट्ठीभर लोग रह जाएंगे. लेकिन ममता ने तृणमूल छोड़ कर भाजपा में गए लोगों को श्रेणियों में बांटा है. 

एक श्रेणी में वे आते हैं जो दलबदल करने के बावजूद मुख्यमंत्री और पार्टी के खिलाफ ज्यादा आक्रामक नहीं हुए, आलोचना की, खिलाफ चुनाव लड़ा, लेकिन मर्यादा नहीं छोड़ी. दूसरी श्रेणी में वे आते हैं जिन्होंने सारी सीमाओं को लांघ कर धुआंधार तलवार भांजी, ममता पर भी निजी आक्षेप लगाए, अभिषेक बनर्जी पर आक्रमण किया और भाजपा की शह पर जमकर सांप्रदायिक राजनीति की. ममता बनर्जी ऐसे लोगों को पार्टी में वापस नहीं लेना चाहतीं.

2011 में सत्ता हासिल करने के बाद ममता बनर्जी ने कांग्रेस के बचे-खुचे प्रभाव को पूरी तरह से खत्म करने और मार्क्‍सवादी पार्टी को बेहद कमजोर करने की दीर्घकालीन योजना बनाई थी. इसके तहत इन दोनों पार्टियों से बड़े पैमाने पर स्थानीय स्तर के नेता और कार्यकर्ताओं ने पाला बदला. 

2016 में जब ममता ने दूसरा चुनाव जीता तो कांग्रेस और माकपा के लोगों को यकीन हो गया कि तृणमूल को अपदस्थ करना आसान नहीं होगा. इसलिए ममता की बनाई हुई रणनीति तेजी से कामयाब होने लगी. 

2018 में पंचायत चुनाव के दौरान ममता ने ताकत के दम पर एक-तिहाई सीटें बिना किसी विरोध के जीत लीं. इस तरह उन्होंने सुनिश्चित कर लिया कि कांग्रेस और माकपा के पास उनके खिलाफ संघर्ष करने की ताकत नहीं बची है. लेकिन इस चक्कर में एक और घटना हुई जिसका ममता को अंदाजा नहीं था. 

प्रदेश की राजनीति में एक नया खिलाड़ी आ गया, जो बहुत महत्वाकांक्षी, आक्रामक और साधन संपन्न था. यह थी भाजपा. 2016 में उसे केवल तीन सीटें और दस फीसदी वोट मिले थे. लेकिन 2018 के पंचायत चुनाव के बाद वे सभी कांग्रेसी और माकपाई भाजपा में चले गए जो तृणमूल में नहीं जाना चाहते थे. 

इससे भाजपा को जबरदस्त उछाल मिला और साल भर के भीतर 2019 के लोकसभा चुनाव में वह चालीस फीसदी वोटों, 18 लोकसभा सीटों और तकरीबन सवा सौ विधानसभा सीटों पर बढ़त रखने वाली पार्टी बन गई. अब ममता चाहती हैं कि वे भाजपा को भी उसी घाट पर उतार दें जिस पर उन्होंने कांग्रेस और माकपा को उतारा था.

भाजपा के पास आज भी पश्चिम बंगाल में कोई प्रदेश स्तर का नेता नहीं है. मिथुन चक्रवर्ती पिटी हुई गोट साबित हुए. सौरव गांगुली ने होशियारी दिखाई और भाजपा में जाने से कन्नी काट गए. कैलाश विजयवर्गीय और दिलीप घोष अगर यह चाहते हैं कि राज्यपाल की मदद से विपक्ष की राजनीति करके वे अपनी पार्टी से नेताओं और कार्यकर्ताओं को तृणमूल में जाने से रोक सकते हैं, तो वे गलतफहमी में हैं. 

इसी तरह विजयवर्गीय का यह प्रचार कि प्रदेश में जल्दी ही राष्ट्रपति शासन लगने वाला है, उनके कार्यकर्ताओं को भरोसा नहीं दे सकता. भाजपा को एक विश्वसनीय व आकर्षक बंगाली चेहरा चाहिए जिसे ममता बनर्जी की ताकतवर शख्सियत के खिलाफ खड़ा किया जा सके. जब तक वह ऐसा नहीं करेगी, उसकी राजनीतिक योजनाएं परवान नहीं चढ़ेंगी.

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