सुनील सोनी
‘मिडनाइट इन पेरिस’ ने जब 2011 में मौलिक पटकथा के लिए ऑस्कर जीता, तब आलोचकों ने उसे 1985 की ‘द पर्पल रोज ऑफ काहिरा’ का ही पुनराविष्कार कहा. दोनों ही फिल्में वुडी एलन के निर्देशन-लेखन का जादुई यथार्थवाद हैं. ‘पर्पल रोज’ में मुख्य किरदार फिल्म से बाहर निकल आता है और सिनेमाघर में बैठी नायिका के साथ फरार हो जाता है, वहीं ‘मिडनाइट’ का मुख्य किरदार उपन्यास की खोज में पेरिस की आधी रात में 1920 में मशहूर साहित्यकार-नाटककार-फिल्मकार ज्यां कोटेक्यू की पार्टी में पहुंच जाता है.
कई आधी रातों तक चलनेवाले इस सिलसिले में उसकी मुलाकात उस दौर के मॉडर्निज्म आंदोलन के पुरोधाओं से होती है. खुद अर्नेस्ट हेमिंग्वे उसकी पांडुलिपि को सराहते हैं और स्कॉट फिट्जगेराल्ड, गर्ट्रूड स्टीन, पाब्लो पिकासो और साल्वाडोर डॉली से मुलाकात करवाते हैं. हेमिंग्वे के गुजरने के तीन साल बाद 1964 में उनका अद्भुत संस्मरण ‘द मूवेबल फीस्ट’ प्रकाशित हुआ, तब वुडी एलन उम्र के तीसरे दशक में होंगे, जिसके कथानक के आधार पर लिखी गई ‘मिडनाइट इन पेरिस’ उनके प्रिय कथाकार को श्रद्धांजलि रही होगी और आधुनिकतावाद को भी.
आधुनिकतावाद भारत में आजादी के साथ ही आया और कला को बंगाल स्कूल के पुरुत्थानवादी राष्ट्रवाद और यूरोपीय यथार्थवाद से असर से निकाला. तब कला-साहित्य आंदोलन को आवां गार्द ने नई नजर बख्शी थी. विभाजन की त्रासदी से ‘नया खून’ बेचैन था. यही वजह थी कि बॉम्बे में ही फ्रांसिस न्यूटन सूजा ने 1947 में पहल की और मकबूल फिदा हुसैन, सैयद हैदर रजा, सदानंद बाकरे, कृृष्णजी हावलाजी आरा, हरि अंबादास गाड़े के साथ मिलकर प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप (पीएजी) बनाया.
बाद में उसमें वासुदेव गायतोंडे, तैयब मेहता, रामकुमार, अकबर पदमसी , मोहन सामंत, भानु अथैया, ए.ए. रायबा भी शामिल हो गए. इस समूह ने कला की नई शैली से न केवल भारतीय कला जगत को बदल दिया, बल्कि पेरिस समेत यूरोप के कला आंदोलन पर भी प्रभाव डाला. ये सब देश की सामाजिक, आर्थिक, भाषाई विविधता का प्रतीक तो थे ही, बल्कि वैश्विक नवशैलियों के आग्रह के साथ देशज अभिव्यक्ति के प्रतीक भी बने. इसमें हिंदू, जैन, मुस्लिम, गुजराती, पहाड़ी, मुगल कला परंपरा के तत्व मिलाकर उन्होंने इसे आधुनिकतावादी वर्तमान की बहुलता के रूप में पेश किया.इस समूह में सभी की शैलियां काफी अलग भी थीं.
सूजा अभिव्यक्तिवाद, अतियथार्थवाद, घनवाद से होते हुए आदिमवाद तक पहुंचे, जबकि हुसैन ने पिकासो के घनवाद (क्यूबिज्म) को नई नजर से देखा. हुसैन ने इसमें गांधीजी, मदर टेरेसा, ब्रिटिश राज, रामायण, महाभारत, भारतीय शहरी व ग्राम्य जीवन के बिम्बों को भी जोड़ा. मेहता ने भी उत्तर प्रभाववाद का भारतीय बिम्बों से जोड़कर इस्तेमाल किया. आरा ने स्त्री देह को नए आईने में रखा, तो गाड़े ने अमूर्त अभिव्यंजना को माध्यम बनाया.
रजा और पदमसी ने अर्धआधुनिक शैली में सभी समकालीन रुझानों को शामिल किया और अभिव्यक्तिवाद, घनवाद से होते हुए अमूर्तन की ओर बढ़ गए. समूह में बाकरे ही अकेले शिल्पी थे, जिन्हें जल्द ही मेहता जैसे साथी मिले. गायतोंडे ने अमूर्तन को अनुद्देश्य कहा, पर उनके काम में रहस्यमय रूपांकन अक्सर ‘ज़ेन’ दर्शन पेश करता रहा हैं. पीएजी की सिर्फ तीन कला प्रदर्शनियां लगीं और धूम मचा दी. 1948 में कालाघोड़ा में बॉम्बे आर्ट सोसाइटी सैलून की पहली प्रदर्शनी का लोकार्पण प्रख्यात लेखक एवं कला समीक्षक मुल्कराज आनंद ने किया. 1950 में कोलकाता में दूसरी प्रदर्शनी के बाद सूजा ब्रिटेन और रजा पेरिस चले गए.
1953 में तीसरी प्रदर्शनी में हुसैन, गाड़े, बाकरे, गायतोंडे थे, लेकिन बाकरे भी लंदन चले गए, तो 1956 में समूह भंग हो गया. जिंदगी के आखिरी दौर में हुसैन भी उग्र दक्षिणपंथियों के घोर विरोध और बेमतलब मुकदमों के चलते स्वनिर्वासन में कतर चले गए और वहीं अंतिम सांसें लीं.
विसर्जन ने समूह की प्रतिबद्धता को नहीं तोड़ा, जिसे उत्तरकाल में शेष कलाकारों के काम में देखा जा सकता है. आधुनिकतावाद के समग्र विचार के मुताबिक उन्होंने कोरियाई लैंडस्केप, जापानी इंक पेंटिंग समेत एशिया की विभिन्न शैलियों को भी अपनाया. पदमसी और गायतोंडे के यहां इसे देखा जा सकता है. आदिवासी व अन्य लोक परंपरा के साथ तेज औद्योगिकीकरण के चित्रण में यह झलकता है. पीएजी भले ही टूट गया हो, पर उसने भारतीय कला को नए संदर्भ व आयाम दिए. इनमें से एक विचार और मूल्य भी हैं.