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गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: शिक्षा में मौलिक सोच के अभाव से उबरकर बनाएं नई नीति

By गिरीश्वर मिश्र | Updated: July 7, 2019 09:52 IST

मौलिक सोच का अभाव, मानसिक गुलामी और थोक में पश्चिम से आयात के आरोपों के बीच हमारी शिक्षा संस्थाएं किसी तरह सांस ले रही हैं

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नई शिक्षा नीति-19 का मसौदा मानव संसाधन मंत्नालय ने विचार विमर्श के लिए जारी किया है. यह दस्तावेज इक्कीसवीं सदी के लिए ‘भारतकेंद्रित’ और ‘जीवंत ज्ञान समाज’ के निर्माण के दो महत्वपूर्ण संकल्पों के साथ एक समावेशी दृष्टि अपनाते हुए भारत के भविष्य की रचना के लिए भी प्रतिबद्ध है. जहां एक ओर मनुष्य के विकास में शिक्षा की भूमिका निर्विवाद रूप से स्वीकृत है वहीं भारत में प्रचलित आधुनिक शिक्षा के असंतुलित विस्तार के साथ उपजती तमाम विसंगतियां भी चिंताजनक हैं.

मौलिक सोच का अभाव, मानसिक गुलामी और थोक में पश्चिम से आयात के आरोपों के बीच हमारी शिक्षा संस्थाएं किसी तरह सांस ले रही हैं. यह व्यवस्था समाज को पंगु भी बनाती जा रही है क्योंकि वह कृषि-प्रधान, गांव की प्रमुखता वाले देश और समृद्ध सांस्कृतिक परंपराओं वाले भारत की प्रकृति के विरुद्ध साबित हो रही है. 

नीति के मसौदे को देख कर यह अचरज जरूर हुआ कि वर्तमान नीति प्रणोताओं को स्वामी विवेकानंद के एक वक्तव्य (वह भी आधे-अधूरे!) के अलावा कोई दूसरा  भारतीय विचार उल्लेखनीय नहीं मिल सका. हालांकि ज्ञानियों की और समृद्ध ज्ञान की शंकराचार्य से लेकर कबीर तक शास्त्नीय और लोक-प्रचलित परंपराओं की भारत में कमी नहीं है. भारत में शिक्षा के प्रसंग में उसकी बृहत्तर मानवीय परिकल्पना को साकार करने वाले दो आधुनिक महापुरुष बरबस याद आते हैं.

एक तो पहले एशियाई जिन्हें नोबल पुरस्कार से नवाजा गया था गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर हैं. गुरुदेव के हिसाब से शिक्षा मनुष्य को मुक्त करती है और  व्यक्ति को ज्ञान के आंतरिक प्रकाश से परिपूर्ण कर देती है. रचना और सृजन से भरी शिक्षा पूर्वाग्रहों से मुक्त कर विश्व को स्वीकार करने का साहस और विश्व का अनुभव करने के लिए सहानुभूति भी पैदा करती है. उच्चतम शिक्षा सिर्फ सूचना नहीं देती है; वह समस्त अस्तित्व के साथ सामंजस्य बनाने का साहस और उपाय भी उपलब्ध कराती है.

गुरुदेव के मुख्य विचार थे कि शिक्षा को प्रकृति के अनुकूल, मानवीय, अंतर्राष्ट्रीय और आदशरेन्मुख होना चाहिए. श्रीनिकेतन और शांतिनिकेतन जैसी शिक्षा संस्थाओं को गुरुदेव ने इन्हीं  सिद्धांतों के अनुरूप रचा, गढ़ा और संचालित भी किया.

दूसरे महापुरुष हैं राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जो यह मानते थे कि ‘शिक्षा बालक के शरीर, मन तथा आत्मा की उत्तम क्षमताओं को उद्घाटित करती है और बाहर प्रकाश में लाती है’. उनके विचार में ‘शिक्षा का मूल उद्देश्य मनुष्य को सच्चे अर्थ में मनुष्य बनाना है. जो शिक्षा मानवीय सद्गुणों के विकास में योग नहीं देती और व्यक्ति के सर्वागीण विकास का मार्ग नहीं प्रशस्त करती वह शिक्षा अनुपयोगी है’.

जब तक शरीर, मस्तिष्क तथा आत्मा का विकास एक साथ नहीं हो जाता तब तक केवल बौद्धिक विकास एकांगी ही बना रहेगा. जैसा कि सबको ज्ञात है, गांधीजी ने ‘ नई तालीम’ नाम से शिक्षा प्रणाली भी शुरू की और वर्धा में उसका उपक्रम भी शुरू किया. अभी भी ‘आनंद निकेतन‘ नामक विद्यालय गांधीजी द्वारा स्थापित सेवाग्राम आश्रम में संचालित है और उनकी पद्धति के कई और विद्यालय भी देश में चल रहे हैं.

दुर्भाग्य से अब तक भारत में शिक्षा के लिए संसाधन पर्याप्त मात्ना में उपलब्ध नहीं रहे हैं. साथ ही सरकारी तंत्न शिक्षा के प्रति कितना असंवेदनशील है और प्रचलित व्यवस्थाएं जाने कितने गत्यवरोधों से बाधित हैं इसके अनुभव से पूरा देश गुजरता रहा है. ऐसे में  इस नीति को कार्य रूप में लागू करने के लिए दृढ़ राजनैतिक इच्छाशक्ति और संसाधनों की जरूरत होगी.

आशा की जाती है कि संसद में जिस सामथ्र्य के साथ जनता ने समर्थन देकर अपने प्रतिनिधियों को भेजा है उसका मान रखते हुए यह लोकप्रिय सरकार जन-जन को सशक्त बनाने के लिए शिक्षा नीति को सचमुच भारतकेंद्रित विचार के साथ लागू करेगी.

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