ब्लॉगः JNU के जन्म की पूरी कहानी

By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Published: December 22, 2017 05:12 PM2017-12-22T17:12:51+5:302017-12-22T17:15:18+5:30

लाल बहादुर शास्त्री के समय में ही इस आशय का विधेयक राज्य सभा में आया जो कि बाद में इन्दिरा गाँधी के प्रधानमंत्री बनने पर संसद के दोनों सदनों से पास होकर 22 अप्रैल 1969 को प्रभावी हो सका।

Blog: The whole story of JNU's birth, where did this feeling come from | ब्लॉगः JNU के जन्म की पूरी कहानी

ब्लॉगः JNU के जन्म की पूरी कहानी

 यह ब्लॉग अंकित दूबे का है। अंकित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र हैं।

राजधानी दिल्ली में एक जगह है। यहां पहली बार जाने पर हर किसी का यही कहना होता है, 'लगता नहीं की ये जगह दिल्ली में है'। ये जगह कोई रिजॉर्ट नहीं है और ना ही कोई वन्य अभ्यारण्य है। पहाड़ी और जंगली माहौल में गुलज़ार रहने वाली देश की एक ख़ास तालिमगाह है। मैं बात कर रहा हूँ जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की जो आमफ़हम के बीच 'जेएनयू' के नाम से लोकप्रिय है।

देश के अलग-अलग हिस्सों में नेहरू-गाँधी परिवार के लोगों के नाम तमाम संस्थान हैं। ऊपरी तौर पर यह भी उन्हीं में से एक लगता है मग़र जब आप इसके भीतर आएँगे तो उन सबमें यह ख़ास लगेगा। और विशेष लगेगी इसे बनाने के पीछे की भावना भी जिससे आज का नेतृत्व भी सीख सकता है। मुल्क़ के पहले प्रधानमंत्री पण्डित जवाहरलाल नेहरू का समाजवाद के प्रति झुकाव जगज़ाहिर था। वैज्ञानिक सोच और तार्किकता के साथ-साथ बहुलता के विचार के प्रति सम्मान उनमें ख़ूब दिखाई देता है। अपने समय में नेहरू जिन विचारों को लेकर चले उन्हें संस्थागत रूप देने की ठोस कोशिश है जेएनयू। 1964 में उनकी मृत्यु कर बाद उन्हें एक अलग तरह की श्रद्धाँजलि देने की सोची गई। और यह तरीका था उनके समाजवादी, बहुलतावाद और तार्किकता के विचारों पर आधारित एक विश्वविद्यालय खोलने का। लाल बहादुर शास्त्री के समय में ही इस आशय का विधेयक राज्य सभा में आया जो कि बाद में इन्दिरा गाँधी के प्रधानमंत्री बनने पर संसद के दोनों सदनों से पास होकर 22 अप्रैल 1969 को प्रभावी हो सका। इस तरह से जेएनयू का जन्म होता है।

इस तरह यह एक ऐसा संस्थान हुआ जहाँ नाममात्र की फीस देकर कोई भी उच्च शिक्षा हासिल कर सकता है। इसका उद्देश्य था देश के आर्थिक रूप से कमज़ोर तबक़ों को पढ़ने का बेहतरीन अवसर देना। शिक्षा का ख़र्च पूरी तरह से सरकार उठाए इसी समाजवादी दर्शन पर यह संस्थान चल पड़ा। यहाँ के दरवाज़े सबके लिए खुले तो थे मग़र इसके लिए उन्हें बेहद कठिन समझी जाने वाली प्रवेश परीक्षा पास करनी होती थी। एक समय था जब इस परीक्षा की तुलना यूपीएससी से की जाती थी। देश के सभी क्षेत्रों और तबक़ों का यहाँ प्रतिनिधित्व हो सके इसके लिए यहाँ दूर-दराज़ के पिछड़े क्षेत्रों के लिए डेप्रिवेशन पॉइंट की व्यवस्था की गई। अर्थात पिछड़े क्षेत्रों से आने वालों को बिना किसी लिंग-जाति और वर्ग के भेद के अतिरिक्त अंक देना। महिला आरक्षण का विचार देश में बाद में सार्थक हुआ यहाँ बहुत पहले से जेंडर डेप्रिवेशन पॉइंट की व्यवस्था के तहत महिलाओं को अतिरिक्त नम्बर मिलते रहे हैं। यहीं नहीं पिछड़ों को भी अतिरिक्त नम्बर दिया जाता रहा है। इन प्रयासों से जेएनयू पूरे देश में ख़ास हो गया। क्योंकि दलित, अल्पसंख्यक, महिला और दूर-दराज़ के विद्यार्थियों का अनुपात उत्साहजनक रहा है।

विदेशी भाषाओं में बैचलर पाठ्यक्रमों को छोड़ दें तब यहाँ पर सभी पढ़ाई मास्टर डिग्री से शुरू होकर शोध तक जाती है। इसे रिसर्च बेस्ड यूनिवर्सिटी बनाया गया। यहीं कारण है कि यहाँ के छात्रों में वैचारिक प्रतिबद्धता और परिपक्वता अधिक पाई जाती है। अगर इसके भीतर आएँ तो आपको एक यूटोपियाई संसार दिखेगा। ठीक वैसा जैसा किसी क्रांति के बाद के समाज की कल्पना की जाती है। सस्ता खाना, शानदार शिक्षा और भेदभाव से रहित वातावरण। यहीं बात तब एक त्रासदी लगने लगती है जब यहाँ से निकलने के बाद बाकि दुनिया इससे बहुत अलग नज़र आती है। जेएनयू आदर्श का यथार्थ रूप है लेकिन यह भी सच है कि कोई भी यहाँ सीमित समय के लिए आता है और इसकी आदत लेकर निकलता है तो बाहरी दुनिया उसके लिए ज़्यादा अच्छा नहीं होता।

कहने वाले कहते हैं कि पूरे देश के कम्युनिस्टों को एक बाड़े में बन्द करने के लिए इंदिरा गाँधी ने जेएनयू बनाया जहाँ वे क्रान्ति को सच मान कर बाकि देश को भूल जाएँ। देश में आज वामपंथ की हालत देख कर ये बात गल्प नहीं लगती। पूरे देश में हाशिये से भी कहीं नीचे चले गए लेफ्ट को सियासी राहत हर साल सितम्बर में तब मिलती है जब यहाँ छात्रसंघ चुनाव होता है और हर बार की तरह आइसा-एसएफआई जैसे दल क्लीन स्वीप कर जाते हैं। 2001 और 2015 के अपवादों को छोड़ दें जब संघ समर्थित एबीवीपी को सेंट्रल पैनल की एक-एक सीट पर जीत मिली थी, तो यहाँ वामपंथ अपराजेय रहा है।

केन्द्र में नरेन्द्र मोदी की सरकार बनने के बाद जब 'काँग्रेस मुक्त भारत' एक एजेन्डा बना हुआ है ऐसे में जेएनयू जो दक्षिणपंथ के ठीक विपरीत वामपंथ का गढ़ है, सरकार की सहिष्णुता नहीं पा सका है। विश्वविद्यालय के छात्र नेता आए दिन हक़मारी का इल्ज़ाम लगाते हैं। कई बार विरोध विद्रोह लगने लगता है और दमन भी ख़ूब होता है। दो सोचों की आक्रामक टकराव से अब अक्सर ही यह विवादों का घर बनता जा रहा है। फिर भी, सबके बावजूद आज भी यहाँ की भीतरी लड़ाई वैचारिक ही है। कभी भी दो पक्षों कर बीच मारपीट की कोई ख़बर नहीं आती। यहीं वो परिपक्वता है जिसकी कल्पना इसके रिसर्च बेस्ड रूप के गढ़न के साथ की गई थी...

-अंकित दूबे
पूर्व छात्र, भाषा साहित्य एवम संस्कृति अध्ययन संस्थान
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय

Web Title: Blog: The whole story of JNU's birth, where did this feeling come from

पाठशाला से जुड़ीहिंदी खबरोंऔर देश दुनिया खबरोंके लिए यहाँ क्लिक करे.यूट्यूब चैनल यहाँ इब करें और देखें हमारा एक्सक्लूसिव वीडियो कंटेंट. सोशल से जुड़ने के लिए हमारा Facebook Pageलाइक करे