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ब्लॉग: भाषा की शक्ति को पहचान कर ही देश बढ़ता है आगे

By गिरीश्वर मिश्र | Updated: September 14, 2023 08:52 IST

भाषा का अपना जीवन होता है और वह भी राजनीति का शिकार होती है। भाषा की शक्ति को पहचानना और उपयोग करना हम सभी के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।

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ठळक मुद्देसार्वजनिक जीवन में संचार के लिए भाषा एक बड़ा ही लचीला और बहुउद्देशीय माध्यम है लेकिन भाषा का भी अपना जीवन होता है और वह भी राजनीति का शिकार होती हैइसलिए भाषा की शक्ति को पहचानना और उपयोग करना हम सभी के लिए बेहद महत्वपूर्ण है

हम लोग सार्वजनिक जीवन और मीडिया में देख पा रहे हैं कि भाषा एक बड़ा लचीला और बहुउद्देशीय माध्यम है और उसका सदुपयोग-दुरुपयोग दोनों हो रहा है, पर भाषा का भी अपना जीवन होता है और वह भी राजनीति का शिकार होती है। भाषा की शक्ति को पहचानना और उपयोग करना भी महत्वपूर्ण है।

भारत की संविधानस्वीकृत राजभाषा हिंदी की स्थिति यही बयान करती है। स्वतंत्रता मिलने के पहले की राष्ट्रभाषा हिंदी को स्वतंत्र भारत में 14 सितंबर 1949 को संघ की राजभाषा के रूप में भारतीय संसद की स्वीकृति मिली थी। यह स्वीकृति सशर्त हो गई! जो व्यवस्था बनी उसमें हिंदी विकल्प की भाषा बन गई।

आज विश्व में संख्या बल में इसे तीसरा स्थान प्राप्त है। दस जनवरी को विश्व हिंदी दिवस भी मनाया जाता है। 14 जनवरी का हिंदी दिवस हिंदी को आधिकारिक भाषा बनाने के संकल्प से जुड़ गया और 1953 से मनाया जा रहा है। सरकारी कृपा-दृष्टि से हिंदी को योग्य बनाने के लिए किस्म-किस्म के इंतजाम शुरू हुए हैं।

शब्द बनाने की सरकारी टकसाल बनी, प्रशिक्षण की व्यवस्था हुई, हिंदी भाषा अध्ययन और शोध के कुछ राष्ट्रीय स्तर के संस्थान भी खड़े हुए, प्रदेश स्तर पर हिंदी अकादमियां बनीं और विश्वविद्यालय स्थापित हुए। हिंदी के लेखकों और सेवकों को प्रोत्साहित करने के लिए नाना प्रकार के पुरस्कारों की भी व्यवस्था हुई और साथ ही राजभाषा सचिव और सचिवालय भी बना।

संसदीय राजभाषा समिति देश में घूम कर हिंदी की प्रगति का जायजा लेती है। विभिन्न मंत्रालयों के लिए हिंदी की सलाहकार समितियां भी हैं जिनकी बैठक में सरकारी कामकाज में हिंदी को बढ़ावा देने का संकल्प दुहराया जाता रहता है। एक केंद्रीय हिंदी समिति भी है जो पांच-सात साल में एक बार बैठती है। एक बड़ा भारी सरकारी अमला मूल अंग्रेजी के हिंदी अनुवाद मुहैया कराने की मुहिम में जुटा हुआ है परंतु वह अनुवाद नीरस और अग्राह्य हो जाता है।

हिंदी के प्रति सरकारी संवेदना जीवित है और हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए सन्‌ 1975 में विश्व हिंदी सम्मेलन की जो शुरुआत हुई, उसकी कड़ी भी आगे बढ़ रही है। यह संतोष की बात है कि अटलबिहारी वाजपेयी, सुषमा स्वराज और प्रधानमंत्री मोदी ने हिंदी की अंतरराष्ट्रीय उपस्थिति को भलीभांति प्रभावी और प्रामाणिक ढंग से रेखांकित किया है। संयुक्त राष्ट्र में हिंदी को दर्ज कराने के प्रयास भी होते रहे हैं और उसमें तेजी आई है।

समाज और राष्ट्र को सामर्थ्यशील बनाने के लिए उसकी अपनी भाषा को शिक्षा और नागरिक जीवन में स्थान देने के लिए गंभीर प्रयास जरूरी है। नई शिक्षा नीति की संकल्पना में मातृभाषा में शिक्षा का प्रावधान इस दृष्टि से बड़ा कदम है।

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