ब्लॉग: विद्यार्थियों को अनुशासन सिखाना जरूरी है, दंड देना नहीं
By लोकमत समाचार सम्पादकीय | Updated: September 18, 2023 09:37 IST2023-09-18T09:29:39+5:302023-09-18T09:37:51+5:30
राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 की प्रस्तावना इस बात को रेखांकित करती है कि बच्चे के व्यक्तित्व के समग्र विकास के लिए भय एवं हिंसा से मुक्त वातावरण का होना अनिवार्य है।

फाइल फोटो
राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 की प्रस्तावना इस बात को रेखांकित करती है कि बच्चे के व्यक्तित्व के समग्र विकास के लिए भय एवं हिंसा से मुक्त वातावरण का होना अनिवार्य है। बच्चों के शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक उत्पीड़न को पूर्ण रूप से समाप्त करके ही शिक्षक उनके लिए उन्मुक्त शैक्षिक वातावरण निर्मित कर सकता है।
चिंताजनक स्थिति यह है कि अमूमन एक भारतीय शिक्षक इस बात को आत्मसाथ किए रहता है कि बच्चों को नियंत्रण में रख कर ही गुणवत्तापूर्ण तरीके से सिखाया जा सकता है। इस कारण सीखने-सिखाने के लिए बच्चे पर नियंत्रण एक अनिवार्य शिक्षणशास्त्रीय पद्धति के रूप में स्वीकार्य होने लगता है।
पिछले दिनों मुजफ्फरनगर एवं कश्मीर के विद्यालयों में घटित हुई घटनाओं को न केवल समाजशास्त्रीय तरीके से बल्कि शिक्षणशास्त्रीय तरीके से भी समझा जाना चाहिए। मुजफ्फरनगर के एक निजी विद्यालय में घटित हुई घटना इसी संदर्भ में विचारणीय है जहां शिक्षिका बच्चे के द्वारा कुछ गणितीय सवाल हल नहीं कर पाने और गृहकार्य को समय पर पूरा नहीं कर सकने को ‘अनुशासनहीनता’ और ‘नियंत्रण का अभाव’ मानती है। वह इस घटना के लिए उत्तरदायी कारक के रूप में शैक्षिक-मनोविज्ञान को नहीं बल्कि बच्चे की सामाजिक-सांस्कृतिक-धार्मिक पृष्ठभूमि को जिम्मेदार मानती है।
वस्तुत: यह एक पारंपरिक शिक्षणशास्त्रीय समझ ही है, जिसमें अनुशासन की स्थापना हेतु दंड का विधान अपरिहार्य हो जाता है। शिक्षक के द्वारा दंड का विधान करते हुए शारीरिक और मानसिक यंत्रणा इस प्रकार व्यवहृत की जाती है कि बच्चे की अस्मिता का हनन भी सीखने-सिखाने का ज्ञानमीमांसीय उपक्रम लगने लगता है। विद्यालय की शैक्षणिक और सह-शैक्षणिक गतिविधियां बच्चे के ज्ञानात्मक एवं भावात्मक अभिविन्यास को निर्मित करती हैं।
एक बच्चे का जाति, धर्म, लिंग, समुदाय, भाषा आदि के प्रति नजरिया उसके विद्यालयी अनुभवों का विस्तार होता है। यदि शिक्षक दंड के विधान में हिंसात्मक व्यवहारों को सहज शिक्षणशास्त्रीय पद्धति के रूप में अंगीकार करते है तो वह वस्तुत: समाज में व्याप्त विषमताओं, वंचनाओं एवं अन्यायपूर्ण संरचनाओं को बरकरार रखने के लिए बड़े ही अनूठे ढंग से अनुकूलित होने लगते हैं।
गांधीजी ने आत्म-नियंत्रण के माध्यम से अनुशासन की वकालत की। उन्होंने स्वैच्छिक अनुशासन या अनुशासन पर जोर दिया जो भीतर से उत्पन्न होता है। आत्म-अनुशासन आत्म-संयम, निर्भयता, उपयोगिता और आत्म-बलिदान के शुद्ध जीवन से उत्पन्न होता है। आज जरूरत गांधी की नई तालीम में विद्यमान सकारात्मक अनुशासन को कक्षा में स्थान देने की है, क्योंकि बच्चों की सृजनात्मकता भयमुक्त वातावरण एवं सकारात्मक अनुशासन से ही पोषित हो सकती है।