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प्रमोद भार्गव का ब्लॉग: आत्मनिर्भरता के लिए शोध पर खर्च बढ़ाना जरूरी

By प्रमोद भार्गव | Updated: January 7, 2023 09:18 IST

युवा वैज्ञानिकों को इस नाते उल्लेखनीय पहल करने की जरूरत है। लेकिन यदि इन लक्ष्यों की पूर्ति हेतु धन के अतिरिक्त प्रावधान की घोषणा कर दी जाती तो उत्साही नवोन्मेषी वैज्ञानिकों को प्रोत्साहन मिलता क्योंकि अनेक कल्पनाशील वैज्ञानिक धन की कमी के चलते अपने अनुसंधान को परिणाम तक नहीं पहुंचा पा रहे हैं।

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ठळक मुद्देइस रिपोर्ट में 2018-19, 2019-20, 2020-21 एवं 2021-22 के वित्तीय वर्षों की जानकारी नहीं है।फिलहाल भारत अपनी जीडीपी का मात्र 0.6 प्रतिशत शोध पर खर्च करता है।आरएंडडी पर विश्व का औसत खर्च 1.8 प्रतिशत है, अतएव हम औसत खर्च का आधा भी खर्च नहीं करते हैं।भारत का शोध पर कुल खर्च 17.6 अरब डॉलर है, जबकि अमेरिका का 581 और चीन का 298 अरब डॉलर है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नागपुर में 108वीं भारतीय विज्ञान कांग्रेस का आभासी उद्घाटन करते हुए कहा कि भारत के वैज्ञानिक अनुसंधान पूरी दुनिया के लिए मार्गदर्शक सिद्ध हो रहे हैं। अतएव उनसे अपेक्षा है कि वे देश को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में अहम भूमिका निभाएं। साथ ही इसे महिला वैज्ञानिकों की भागीदारी से और सशक्त बनाएं। 

वैज्ञानिकों का ज्ञान आमजन तक जाएगा तो उनके दैनिक जीवन के क्रियाकलापों और सोच में बदलाव आएगा। खासतौर से हमें क्वांटम तकनीक, डाटा विज्ञान के संग्रह, नए टीकों के विकास और नई बीमारियों के प्रति सचेत रहते हुए इन दिशाओं में अनुसंधानों को बढ़ावा देना है। 

युवा वैज्ञानिकों को इस नाते उल्लेखनीय पहल करने की जरूरत है। लेकिन यदि इन लक्ष्यों की पूर्ति हेतु धन के अतिरिक्त प्रावधान की घोषणा कर दी जाती तो उत्साही नवोन्मेषी वैज्ञानिकों को प्रोत्साहन मिलता क्योंकि अनेक कल्पनाशील वैज्ञानिक धन की कमी के चलते अपने अनुसंधान को परिणाम तक नहीं पहुंचा पा रहे हैं। इस नाते नीति आयोग की रिपोर्ट ने भी धन की कमी जताई है।

नीति आयोग की अनुसंधान और विकास (आरएंडडी) से जुड़ी ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि 2008-09 से 2017-18 तक के वित्तीय वर्षों में अनुसंधान और विकास पर भारत सरकार द्वारा किए खर्च का लेखा-जोखा है। 2008-09 में भारत इस पर अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का जहां 0.8 प्रतिशत खर्च करता था, वहीं यह खर्च 2017-18 में घटकर 0.7 प्रतिशत रह गया। 

इस रिपोर्ट में 2018-19, 2019-20, 2020-21 एवं 2021-22 के वित्तीय वर्षों की जानकारी नहीं है। फिलहाल भारत अपनी जीडीपी का मात्र 0.6 प्रतिशत शोध पर खर्च करता है। इस नाते भारत अनुसंधान के पैमाने पर चीन और अमेरिका से तो पीछे है ही, दक्षिण अफ्रीका से भी पिछड़ा है, दक्षिण अफ्रीका में यह जीडीपी का 0.8 प्रतिशत है, जो भारत से अधिक है। आरएंडडी पर विश्व का औसत खर्च 1.8 प्रतिशत है, अतएव हम औसत खर्च का आधा भी खर्च नहीं करते हैं। भारत का शोध पर कुल खर्च 17.6 अरब डॉलर है, जबकि अमेरिका का 581 और चीन का 298 अरब डॉलर है। 

नतीजतन हम नए अनुसंधान, आविष्कार और स्वदेशी उत्पाद में पिछड़े हैं। इसीलिए पेटेंट के क्षेत्र में भारत विकसित देशों की बराबरी करने में पिछड़ गया है। भारत से कम जीडीपी वाले फ्रांस, इटली, ब्रिटेन और ब्राजील भी हमसे कई गुना ज्यादा धन शोध पर खर्च करते हैं। यदि यही सिलसिला जारी रहा तो वैश्विक प्रतिस्पर्धा में भारत कैसे टिक पाएगा, यह विचारणीय बिंदु है। इसीलिए हमारे उच्च शिक्षा संस्थान विश्व प्रतिस्पर्धा की रैंकिंग में पिछड़ रहे हैं। हालांकि नवाचारी वैज्ञानिकों को लुभाने की सरकार ने अनेक कोशिशें की हैं। बावजूद देश के लगभग सभी शीर्ष संस्थानों में वैज्ञानिकों की कमी है। 

वर्तमान में देश के 70 प्रमुख शोध-संस्थानों में वैज्ञानिकों के 3200 पद खाली हैं। बेंगलुरु के वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) से जुड़े संस्थानों में सबसे ज्यादा 177 पद रिक्त हैं। पुणे की राष्ट्रीय रसायन प्रयोगशला में 123 वैज्ञानिकों के पद खाली हैं। देश के इन संस्थानों में यह स्थिति तब है, जब सरकार ने पदों को भरने के लिए कई आकर्षक योजनाएं शुरू की हुई हैं। 

इनमें रामानुजम शोधवृत्ति, सेतु-योजना, प्रेरणा-योजना और विद्यार्थी-वैज्ञानिक संपर्क योजना शामिल हैं। महिलाओं के लिए भी अलग से योजनाएं लाई गई हैं। इनमें शोध के लिए सुविधाओं का भी प्रावधान है। इसके साथ ही राज्यों में कार्यरत वैज्ञानिकों को स्वदेश लौटने पर आकर्षक पैकेज देने के प्रस्ताव दिए जा रहे हैं। बावजूद न तो छात्रों में वैज्ञानिक बनने की रुचि पैदा हो रही है और न ही परदेश से वैज्ञानिक लौट रहे हैं। 

इसकी पृष्ठभूमि में एक तो वैज्ञानिकों को यह भरोसा पैदा नहीं हो रहा है कि जो प्रस्ताव दिए जा रहे हैं वे निरंतर बने रहेंगे, दूसरे नौकरशाही द्वारा कार्यप्रणाली में अड़ंगों की प्रवृत्ति भी भरोसा पैदा करने में बाधा बन रही है। यहां गौरतलब है कि 1930 में जब देश में फिरंगी हुकूमत थी, तब देश में वैज्ञानिक शोध का बुनियादी ढांचा न के बराबर था। विचारों को रचनात्मकता देने वाला साहित्य भी अपर्याप्त था। अंग्रेजी शिक्षा शुरुआती दौर में थी। 

इसके बावजूद जगदीश चंद्र बसु ने भौतिकी और जीव-विज्ञान में वैश्विक मान्यता दिलाने वाले आविष्कार किए। यही बसु अपने मौलिक आविष्कार रेडियो का पेटेंट नहीं करा पाए, अन्यथा रेडियो का आविष्कार भारत के नाम होता। सीवी रमन ने साधारण देशी उपकरणों के सहारे देशज ज्ञान और भाषा को आधार बनाकर काम किया और भौतिक विज्ञान में नोबल दिलाया। सत्येंद्रनाथ बसु ने आइंस्टीन के साथ काम किया। 

मेघनाद साहा, रामानुजम, पीसी रे और होमी जहांगीर भाभा, शांतिस्वरूप भटनागर, विक्रम साराभाई ने अनेक उपलब्धियां पाईं। एपीजे अब्दुल कलाम, जयंत विष्णु नार्लीकर, महिला वैज्ञानिक टीसी थॉमस और के। शिवम जैसे वैज्ञानिक भी मातृभाषा में आरंभिक शिक्षा लेकर महान वैज्ञानिक बने। लेकिन अब उच्च शिक्षा में तमाम गुणवत्तापूर्ण सुधार होने और अनेक प्रयोगशालाओं के खुल जाने के बावजूद गंभीर अनुशीलन का काम थमा है। उपलब्धियों को दोहराना मुमकिन नहीं हो रहा है।

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